कैलाश की बर्फीली चोटियाँ! एक पवित्र शिखर पर महादेव शंकर ध्यानस्थ थे। धीरे-धीरे यह ध्यान गहन समाधि में विलीन हो गया। इतने में, मलंगी में झूमता हुआ महादेव का परम गण नंदी आया। नंदी के मन में विचार उठा- ‘किसी महान लक्ष्य को साधने हेतु मेरे प्रभु आशुतोष समाधि में स्थित हैं। मुझे भी सहयोग देना चाहिए। दिव्य तरंगों को सघन करना चाहिए।’ यही विचार कर नंदी ने महादेव शंकर के समक्ष धरा पर एक आसन बिछाया। फिर पद्मासन में तन को तान कर साधना में बैठ गया। साधना के प्रताप से उसके हृदय का सूक्ष्म तार महादेव की ब्रह्मचेतना से जुड़ गया।
कुछ समय बाद… एक अप्रिय घटना घटी! दुष्ट जालंधर, जो महादेव से घोर शत्रुता रखता था, वह कैलाश में घुसपैठ कर गया। छल-बल से महादेव की भार्या देवी पार्वती का अपहरण करके ले गया। शिवलोक में हाहाकार मच गया। देवगण और शिवगण घोर चिंता से व्याकुल हो उठे। उन्होंने सामूहिक निर्णय लिया कि इस दुर्घटना की सूचना महादेव को दी जाए। परन्तु कैसे? महादेव तो गहन समाधि में लीन थे। श्री गणपति ने उन्हें उठाने के भरसक प्रयत्न किए, पर विफल रहे। भगवान आशुतोष की समाधि तो शून्यता की अतल गहराइयों को छू चुकी थी। ऐसे में क्या करें? विवेक के देवता श्री गणपति को युक्ति सूझी। उन्होंने महादेव के परम गण नंदी को साधन बनाया। ध्यान में लीन नंदी के कान में सारी दुर्घटना कह दी। इधर नंदी के कान में सूचना गई, उधर भगवान के नेत्र तुरन्त खुल गए।
महादेव समाधि से उठ गए। कैसा अद्भुत सूक्ष्म जुड़ाव था- भक्त और भगवान का! बस, तभी से यह ऐतिहासिक घटना एक आराधना पद्धति या प्रथा का रूप ले गई। आज अनेक शिव-मंदिर इस प्रकार निर्मित हैं, जिनमें महादेव या शिवलिंग के ठीक सामने नंदी की प्रतिमा होती है। भक्तजन अपनी मनोकामना नंदी के कान में कहते हैं। मान्यता है कि वह कामना सीधा भगवान शिव तक संप्रेषित हो जाती है।
मन में जिज्ञासा उठती है- ‘भला ऐसा कौन-सा गुण है इस शिवगण नंदी में, जो भगवान इसकी बात को अनसुना नहीं कर पाते?’ एक दिन यही जिज्ञासा माता पार्वती के हृदय में दस्तक देने लगी। पार्वती जी ने महादेव से पूछा- ‘आपको नंदी इतना प्रिय क्यों?’
महादेव- क्योंकि नंदी में सेवा और भक्ति- दोनों का समन्वय है। उसके सेवा-कर्म में शौर्य है, धार है। एक सतत वेग है। उसकी भक्ति-आराधना में तप है, समर्पण है। निरन्तर सुमिरन है। इसलिए नंदी मुझे प्राणवत प्रिय है।
माँ पार्वती- प्रभु! भक्ति-भाव और समर्पण तो आपके सभी भक्तों और गणों में है। फिर नंदी की भक्ति में ऐसा क्या विशेष है, जो आपके हृदय को गद्गद कर गया?
महादेव- अनेक वर्षों पूर्व की बात है। अपने पिता ऋषि शिलाद के द्वारा नंदी को यह पता चला कि वह अल्पायु है। समस्या है, तो समाधान भी होगा। यही विचार कर नंदी भुवन नदी के किनारे साधना करने लगा। अटूट लगन और एकचित्तता थी उसके सुमिरन में! जब एक कोटि सुमिरन पूर्ण हुए, तो मैं प्रकट होकर दर्शन देने को विवश हो गया। जानती हो, वह साधना-सुमिरन में इतना मग्न था कि मुझसे वर माँगने का उसे ध्यान ही नहीं रहा।
उसे साधनारत छोड़कर मैं अंतर्धान हो गया। ऐसा ही एक बार और हुआ। तृतीय बार जब मैं प्रकट हुआ, मैंने ही अपना वरद हस्त उठाकर उसे वर-प्राप्ति के लिए प्रेरित किया। जानती हो देवी, तब भी नंदी ने दीर्घ आयु का वर नहीं माँगा। अपनी अखण्ड साधना का एक ही फल चाहा। उसकी चाह थी- केवल मेरा सान्निध्य! ‘हे महादेव! मुझे अपनी अलौकिक संगति का वर दो। अपना प्रेममय सान्निध्य और स्वामित्व दो। मैं दास भाव से आपके संग रहना चाहता हूँ। मेरा हृदय अन्य कोई अभीप्सा नहीं रखता।’ सरल हृदय से नंदी ने ये भोले वचन कहे। मेरा हृदय द्रवित हो उठा। मैंने प्रसन्न होकर उसे अपना अविनाशी वाहन और परम गण घोषित कर दिया।
माँ पार्वती- किन्तु वाहन ही क्यों, महादेव? कोई अन्य भूमिका क्यों नहीं?
महादेव- देवी! वाहन का समर्पण अद्वितीय होता है। नंदी का मन इतना समर्पित है कि मैं सदा उस पर आरूढ़ रहता हूँ। उसकी अपनी कोई इच्छा, कोई मति, कोई आकांक्षा नहीं। नंदी मेरी इच्छा, मेरी आज्ञा, मेरे आदर्शों का वाहक बन गया है। इसलिए वह मेरा वाहन है।
माँ पार्वती- सत्य है प्रभु! नंदी की भक्ति-साधना और समर्पण तो अनुपम है। अब उसके सेवा या कर्म-शौर्य की भी तो विशेषता बताइए। मैं जानने को उत्सुक हूँ।
महादेव- तुम्हें स्मरण है देवी, समुद्र-मंथन की वह असाधारण घटना! समुद्र को मथते-मथते अमृत से पहले निकला- हलाहल विष! संसार के त्राण के लिए हमें उसका पान करना पड़ा। परन्तु विषपान करते हुए विष की कुछ बूँदें धरा पर गिर गईं। इन बूँदों के कुप्रभाव से पृथ्वी त्राहि-त्राहि करने लगी थी। पर तभी मेरे नंदी ने अपनी जिह्ना से उन विष-बिंदुओं को चाट लिया। देवों ने व्यग्र होकर कारण पूछा। नंदी ने कहा- ‘मेरे स्वामी ने प्याला भर विष पान किया। क्या मैं सेवक होकर कुछ बूँदें ग्रहण नहीं कर सकता? जगत के त्राण और कल्याण में क्या इतना भी सहयोग नहीं दे सकता?’ सो, ऐसा है नंदी का कर्म-शौर्य! नंदी की अतुलनीय सेवा-निष्ठा!