गायन्ति देवाः किल गीतकानि ध्न्यास्तु ते भारत-भूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पद्मार्गभूते भवन्ति भूयः पुरूषाः सुरत्वात्।।
(विष्णुपुराण-2.6.24)
अर्थात् देवगण भी गान करते हैं कि भारतभूमि में जन्म लेने वाले लोग ध्न्य हैं। स्वर्ग और अपवर्ग के तुल्य इस देश में देवता भी देवत्व को छोड़कर मनुष्य योनि में जन्म लेना चाहते हैं।
पुरातन काल में, विश्व के दृश्य-पटल पर यदि किसी देश की संस्कृति ने पूर्ण शुभ्रता एवं दिव्यता को प्राप्त किया तो वह था आर्याव्रत - भारत। ‘भा’ अर्थात् प्रकाश, ‘रत’ अर्थात् अंतर्लीन। वह देश जो प्रकाश सिंधु में निमग्न रहता है, वही भारत है। संस्कृति के पुण्य प्रवाह में भारत ने ऐसे युग को देखा व जिया, जहाँ उसने यदि विष को स्वीकार किया तो उसे भी अमृत कर दिया; जिसका भी आलिंगन किया, उसे पारस बना दिया। यज्ञधूम्र की पवित्रा सुगंध से परिपूर्ण इसका आकाश; ऋषियों-महर्षियों द्वारा उच्चारित मंत्रों से गुंजित वातावरण, प्रत्येक निवासी में देवत्व की झलक - इस धरा पर साक्षात् स्वर्ग का अनुभव देते थे। इस भूमि के पावन स्पर्श से पारस बने विवेकानंद जी का कहना था कि, “हमें गर्व है कि हम अनंत गौरव की स्वामिनी इस भारतीय संस्कृति के वंशज हैं, जिसने सदैव दम तोड़ती मानव जाति को अनुप्राणित किया है।” भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है-“या प्रथमा संस्कृति विश्वारा”। जहाँ समय की प्रचण्ड धराओं में यूनान, रोम, सीरीया, बेबीलोन आदि संस्कृतियाँ बिखरकर अपना अस्तित्व खो बैठीं, वहीं भारतीय संस्कृति ही ऐसी एकमात्रा संस्कृति है जो इन प्रवाहों के समक्ष अडिग चट्टान के समान खड़ी रही। क्योंकि इस संस्कृति के आधरभूत स्तम्भ दिव्य-विभूतियाँ थी, ऐसे ऋषिगण थे जिन्होंने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधर-परमात्मा के गूढतम ज्ञान को प्रकट कर लिया था। ब्रह्मर्षियों की छत्र छाया में मनु-स्मृति का यह कथन भी सजीव हो गया था -
एतद् देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रां शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।
अर्थात् -सम्पूर्ण विश्व के समस्त भागों से ज्ञान पिपासु मानव ज्ञान की खोज में इस आर्याव्रत में आएंगे तथा देश के सुसंस्कृत साहित्य एवं संस्कृति से नैतिकता और चरित्र का पाठ सीखेंगे। उस काल में अनेकानेक विदेशियों के जिज्ञासु कदम बरबस ही इस देवसंस्कृति की ओर बढ़ आए। यहाँ उन्हें अपनी समस्त आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के समाधन मिले। अतः उन्होंने भारत को ज्ञान का असीम स्रोत घोषित कर दिया। दार्शनिक शोपेनहॉवर का कहना था कि -विश्व में यदि कभी कोई सर्वाधक प्रभावशाली व सर्वव्यापी सांस्कृतिक क्रांति आई है, तो वह केवल उपनिषदों की भूमि-भारत से। जर्मनी के मैक्स मूलर भी जब इस पुण्य भूमि के दिव्यत्व से परिचित हुए तो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘India - What can it teach us’ में लिखा था कि “यदि मुझसे पूछा जाए कि आकाश मंडल के नीचे कौन सी वह भूमि है, जहाँ मानव ने अपने हृदय में अवस्थित ईश्वरीय गुणों का पूर्ण विकास किया, तो मेरी उंगली भारत की ओर उठेगी। और यदि मैं स्वयं से पूछूँ कि वह कौन सा साहित्य है जिससे हम यूरोपवासी, जो अब तक केवल ग्रीक, रोमन तथा यहूदी विचारों में पलते आए हैं, प्रेरणा ले सकते हैं, जिससे हमारा आंतरिक जीवन पूर्णत्व की ओर बढ़े, व्यापक बने, सच्चे अर्थों में मानवीय बने तो मेरी उंगली फिर भारत की ओर उठेगी।“ ग्रीस के राजदूत मैगस्थनीश भी जब चन्द्रगुप्त के राज्यकाल में भारत आए तो वह यहाँ की अस्तेय पूर्ण संस्कृति से अत्यंत प्रभावित हुए। यहाँ से लौटने पर उन्होंने कहा था कि “रात्रि के समय भी भारत में कोई अपने मकान में ताला नहीं लगाता। मकान के भीतर केवल चाँद की सत्यनिष्ठ किरणें ही प्रवेश करती है, अन्य कोई संदिग्ध व्यक्ति नहीं। उपनिषद् में भारतीय सम्राट अश्वपति कैकेय भी कहते हैं-‘न मे स्तेनो जनपदे’ अर्थात् मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है। ऐसा था भारत का निष्कलंक स्वरूप और उसकी अनुकरणीय प्रसिद्धि इतना ही नहीं ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाले भारत के व्यापारियों तक के ईमान की सौगंध खाई जाती थी। उस काल में दूरवर्ती देशों के साथ भारत के उत्तम व्यापारिक संबंध थे। इंगलैंड में भी भारतीय सामग्री विशेष रूप से निर्यात की जाती थी। वहाँ के सौदागरों ने अपने यहाँ व्यापारी कोठियाँ बनाई हुई थीं जिन्हें ‘Easterling’ कहते थे। इनमें भारत (East) से आयात हुई साम्रगी रखी जाती थी। भारत से पहुँचा माल वजन और गुण में शुद्ध होता था। इसी कारण ईस्टरलिंग से निकले शब्द ‘स्टरलिंग’ का अर्थ भी शुद्ध रखा गया। यह थी भारतीय व्यपारियों के माल की साख।
न केवल व्यापार जगत, मानव सभ्यता के अन्य क्षेत्र भी भारत की अलौकिक कांति से अछूते नहीं थे। सांस्कृतिक व आध्यात्मिक पराकाष्ठा को प्राप्त हुआ भारत, उस समय सभी क्षेत्रों के अद्भुत रत्नों को अपने भीतर समेटे हुए था। कालीदास, भवभूति आदि कवियों की काव्य प्रतिभा, दंड और बाणभट्ट की विलक्षण लेखन शक्ति, ऋषि कणाद व कुम्भक के वैज्ञानिक आविष्कार; आयुर्विज्ञान, ज्योतिर्विज्ञान जैसी विद्याएँ- सभी प्रमाणित करते हैं कि पुरातन काल में भारत सामाजिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में पूर्ण विकसित था। फ्रैडरिक लुई इसी बात का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि, “जब यूरोप सभ्यता से बहुत दूर था, उस समय के अवशेष जो एशियाई प्रदेशों में पाए जाते हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि भारत निवासियों ने सभ्यता के निर्माण का ठोस आधर पा लिया था।”
ऐसी थी हमारी श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति; जिसके समक्ष सम्पूर्ण विश्व श्रद्धावत नमन करने के लिए बाध्य हो गया था। परन्तु उपरोक्त गाथा आज एक स्वर्णिम इतिहास बन कर रह गई है। आज वह ठोस आधर कहाँ लुप्त हो गया जिसके ऊपर इस महान संस्कृति का गौरवमयी महल स्थापित था? ऋषिगणों के आशीषों में पली, श्री राम की मर्यादा, बुद्ध की सत्यपथगामिता, श्री कृष्ण के दिव्य-कर्म पथ की साक्षी यह भारत-भूमि आज इतनी निर्जीव और शुष्क क्यों हो गई है? बात केवल यह नहीं है कि पूर्वकाल में भारत सुसंस्कृत व वैभव पूर्ण राजमहल जैसा था। विचारणीय तथ्य तो यह है कि वह आज क्यों एक खंडहर के समान हो गया है? इस प्रश्न के उत्तर में पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित कुछ शिक्षित जनों का कहना है- ‘Too much religion has ruined India – धर्म की अतिशयता ने ही भारत का विनाश किया है। चूंकि हमने केवल नीरस व वैराग्यपूर्ण अध्यात्म को ही महत्व दिया इसलिए अन्य क्षेत्रों में कभी विकास की ओर कदम ही नहीं बढ़ाए। इसी अविकसित स्थिति का परिणाम था कि हमें परतंत्रता की जंजीरों में भी बंधना पड़ा’। यह तर्क तो उन्हीं को अर्थपूर्ण लग सकता है जो अध्यात्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। परन्तु जो अध्यात्म की सत्यता से परिचित हैं, वे जानते हैं कि इस अवांछनीय स्थिति का कारण अध्यात्म का आध्क्यि नहीं अपितु उसका अभाव रहा। यदि भारत की आधी संख्या ने भी अध्यात्म को सच्चे अर्थों में अपनाया होता तो हम वहाँ न होते जहाँ आज विवश होकर खड़े हैं। हमारा व्यक्तिगत जीवन अत्यंत अधार्मिक, स्वार्थपूर्ण व भौतिक हो गया था, इसलिए हम पतन की खाईयों में जा गिरे। अतः भारत के युग-युगीन सनातन आदर्श-अध्यात्म को नकारना समस्या का सही समाधन नहीं है अपितु इसके वास्तविक स्वरूप को जानकर धारण करने की आवश्यकता है। यही उत्तर था स्वामी विवेकानन्द जी का, जब भारत की वर्तमान स्थिति पर आश्चर्य चकित हो एक विदेशी ने उनसे पूछा था, “वेदों की भूमि भारत आज इतनी दयनीय अवस्था में क्यों है?” विवेकानंद जी ने समस्या का मूल बताते हुए कहा कि, “यदि किसी मनुष्य के पास बन्दूक है परन्तु वह उसे चलाना न जानता हो तो अवश्य ही शत्रु से पराजित हो जाएगा। भारत के पास अथाह आध्यात्मिक कोश है, जो सभी प्रकार की निधर्नता को दूर कर सकता है, परन्तु आज भारतवासी इस कोश का लाभ उठाना नहीं जानते, इसी कारण पिछड़ गए हैं।”
यह सर्वविदित है कि यदि हमारा जीवनाधर रक्त शुद्ध व स्वस्थ है तो देह को संक्रामक रोग नहीं लग सकते। भारत का प्राणाधर अध्यात्म है। जब तक भारतवासियों के रोम-रोम में आध्यात्मिकता का रक्त प्रवाहित होता रहा, तथा जब तक इसके कण-कण में ‘अमृतस्य पुत्राः’, ‘आत्मान् विजातिही’ अर्थात् ‘आत्मा को जानो’ आदि सत्यवचनों की गूँज रही, तब तक भारत सशक्त राष्ट्र बना रहा। परन्तु जैसे ही वह आध्यात्मिकता से दूर हुआ, इसकी शक्ति क्षीण होती चली गई। परिणामस्वरूप, दुर्बल हुई उसकी देह विभिन्न राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक कुरीतियों के आघात से रोगग्रस्त होती गई। यही कारण है, कि वर्तमान भारत इतना खोखला व बदरंग नजर आ रहा है। भ्रष्टाचार और राजनैतिक कदाचार के नित्य नए मामले प्रकाश में आने लगे हैं।
आज हमारे द्वारा किए गए प्रयास जैसे सुदृढ़ राजनीतियों का संगठन, गगन चूमती आर्थिक प्रगति, भौतिक पदार्थों की अविराम दौड़, परमाणु शक्ति की वृद्धि आदि - सभी एकजुट होकर भी भारत की प्राचीनतम कीर्ति व दिव्यता को पुनः प्राप्त करने में विफल हो रहे हैं। आध्यात्मिक आधार के अभाव में यह सभी उपलब्ध्यिाँ निरर्थक साबित हो रही हैं। इसलिए श्री आशुतोष जी महाराज प्रायः कहा करते हैं- ‘यदि भारत को पुनर्जीवित करना है, तो अध्यात्म के विराट प्रकाश पुँज की ओर लौटना होगा; ब्रह्मज्ञान द्वारा ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति करनी होगी, जीवन के मूल स्रोतों एवं शक्तियों को अपने ही भीतर जानना होगा।’ प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ब्रह्म तत्व की जाग्रति ही सम्पूर्ण भारत का रूपांतरण व दिव्यीकरण कर सकेगी। इसलिए ‘दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान’ ब्रह्मज्ञान के प्रचार द्वारा महर्षि अरविंद जी के उस स्वप्न को साकार करने के लिए कृतसंकल्प है कि “भारत एक दिन फिर जगत-गुरू कहलाएगा।”
Bhartiye adhyatmic or bhautic gyan se urja lekar hi paschim me sampradayo ka uday Hua.aaj vo sab dharam oos mool prerana se bhatak gaye h.definitely kewal sanatan vichaar hi jagat ko kalyan ke marg par le jayega. Bharat pakka vishwaguru banega...... Aapko saadhuwad.
भारतीय संस्कृति के गौरवशाली इतिहास की जानकारी बहुत कम लोगों को होने के कारण आज की युवा पीढ़ी भी वंचित रह गयी | आज आध्यात्मिक क्रान्ति की ही ज़रुरत है जिससे मानवीय मूल्यों की रक्षा हो सके और इंसानियत को बचाया जा सके | भारत कि आज कि युवा -पीढ़ी को यदि सुदिशा और मार्ग दर्शन मिले तो भारत पुनः वही गौरव दिलाने में समर्थ अवश्य है | jay mharaaj ji ki!!
जगद्गुगुरू भगवान श्री कृष्ण की जय। अखण्ड भारत। वन्दे मातरम्।
Jmjk, This is actually Non-initiated Brahm Gyanis should understand about the real spiritual master..
मेरा भारत महान