छठ पर्व पर डूबते और उगते सूर्य को नमन क्यूँ? djjs blog

विविधताओं में एकता का प्रतीक है, हमारा भारतवर्ष। अनेक पर्वों व त्यौहारों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहां मनाये जाने वाले प्रत्येक पर्व के भीतर मानवजाति के लिए अनेक प्रेरणाएँ व संदेश निहित हैं। हमारी सभी परंपराएं और रीति-रिवाज़ सांकेतिक रूप से हमें अंतर्जगत की ओर उन्मुख कर, हमारा मार्ग प्रशस्त करते हैं।

इस माह में भी ऐसा ही एक अनूठा पर्व आ रहा है - "छठ", जो कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को पड़ता है। यह अनुपम पर्व  भारत के अनेक राज्यों- झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेष, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात , दिल्ली आदि में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इसकी पद्चाप नेपाल, फिजी, मॉरीशस, गयाना, जमैका, सूरीनाम आदि अनेकों प्रांतो में भी सुनाई देती है। समय के साथ छठ पर्व विश्व भर में प्रचलित होता जा रहा है ।

भारत के बिहार राज्य के नालंदा में स्थित है- बड़गाँव। चलते हैं, यहाँ के प्राचीन व प्रसिद्ध सूर्य भगवान के मंदिर में। यहीं मिलेंगें हमे अपने सभी प्रश्नों के उत्तर! क्योंकि आज यहाँ युवक आशीष को उसके ब्रह्मज्ञानी चाचा जी छठ पर्व के विषय में बता रहे हैं ।

चाचा जी ( मंदिर परिसर की और इशारा करते हुए ) - देखो! आशीष यहाँ चारों ओर मंगल कीर्तन हो रहा है। आज से छठ की पूजा आरम्भ हुई है।

आशीष - पर चाचा जी, इस छठ पूजा की धूम सूर्य मंदिर में ही क्यों दिख रही है ?

चाचा जी - क्योंकि छठ, भगवान भास्कर की आराधना का पर्व है। पर आशीष , मैं तुम्हे यहाँ इसलिए नहीं लाया की इस मंदिर में होती रीतियों व कर्मकांडों से प्रभावित कर सकूं। मैं तो तुम्हे इस पर्व से जुड़े परंपराओं के सूक्ष्म संदेशों को समझाना चाहता हूँ।

आशीष - मैं कुछ समझा नहीं। आखिर इस पर्व की परंपराओं के पार क्या है, चाचा जी ?

चाचा जी - आंतरिक ज्ञान , " ब्रह्मज्ञान" का संदेश! इस पर्व की हर प्रथा हमें अन्तर्जगत की साधना की प्रेरणा देती है। जैसे - इस त्योहार की प्रथा है कि इसमें पवित्रता का बहुत ध्यान रखा जाता है।

व्रत रखने वाली व्रती सूर्य भगवान को अर्पित करने वाले नैवेद्य की शुद्धता व पवित्रता को भली प्रकार जांचती है। पर अचानक वह थाल में रखे केले के गुच्छे पर सुग्गा ( तोता ) मंडराता हुआ देखती है। गुस्से में आकर कहती है -  'मैं धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर इस पर प्रहार करूँगी और तब यह तोता मूर्छित हो जाएगा।' उसके क्रोध के ताप से वह तोता तत्क्षण मुर्छित हो जाता है। सुगनी ( तोते की पत्नी ) तोते के वियोग में हाहाकार कर उठती है। उसे ऐसे रोता देख कर व्रती द्रवित हो जाती है। अतः सूर्य भगवान से प्रार्थना करती है कि वे तोते को पुनः स्वस्थ कर दें।

आशीष - यह कैसा विचित्र गीत है, चाचा जी! आखिर इससे हमे क्या प्रेरणा मिलती है ?

चाचा जी - इसमे अत्यंत गूढ़ संदेश छिपा है। वास्तव में , व्रती वह जीव है, जो इस संसार में जीवन यापन कर रहा है। व्रती का क्रोध के आवेश में तोते को मूर्छित करना - मनुष्य की विकार ग्रस्त मानसिकता को दर्शाता है। सुग्गा-सुगनी प्रतीक हैं - जीव की इस मानसिकता से प्रभावित हुए समाज के। इस विकार की औषधि हमे प्रसंग के दूसरे चरण में दिखाई देती है। व्रती सुगनी की दशा देख कर व्यथित हो उठती है। तोते के मंगल हेतु सूर्य भगवान से प्रार्थना करती है। यहाँ सूर्य प्रतीक है - आत्मा के प्रकाश का! जब जीवात्मा ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर 'सूर्य रूपी आत्मा' के उन्मुख होती है, तब उसके मन की भी मलिनता व तमस आत्म-प्रकाश  में विलीन होते जाते हैं। उसके भीतर प्रेम,  दयाक्षमा रूपी सद्भाव प्रस्फुटित होने लगते हैं। उसके व्यवहार और कार्य सात्विक हो जाते हैं।

आशीष - अच्छा! तो ये महात्म्य है- छठ पर्व में भगवान सूर्य की उपासना करने का! पर चाचा जी मैंने यह भी सुना है कि यह पर्व चार दिनों का होता है और इसमें भगवान सूर्य को अर्घ्य देने का प्रचलन है। क्या इसमें भी कोई प्रेरणा निहित है ?

चाचा जी - बिल्कुल आशीष! इन चार दिनों के छठ पर्व में तीसरे दिन डूबते सूर्य को और अंतिम दिवस उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं।

आशीष - पर मुझे एक बात समझ नहीं आ रही की सूर्य की पहली किरण या उगते सूर्य को तो पूज्य माना जाता है। किंतु डूबते सूर्य को अर्घ्य अर्पित करने का क्या तात्पर्य है? अस्तगत सूर्य तो रात्रि के आगमन का संकेत देता है। एक प्रकार से अपशकुन का प्रतीक है।

चाचा जी - देखो ये सच है कि नभ में उदित होता भास्कर - नव जीवन , नवीन आशा , नए आरंभ का प्रतीक है। सूर्य की प्रथम किरण का संदेश पाते ही प्रकृति भी तरंगित हो उठती है। उदित होते सूर्य को अर्घ्य देकर हम नवीन जीवन को नमन अर्पित करते हैं। किन्तु अस्त होता सूर्य भी संकेत करता है - जीवन की गौरवशाली संध्या की ओर!

आशीष - गौरवशाली संध्या से आपका क्या तात्पर्य है?

चाचा जी - ध्यान से सुनो! एक बार किसी जिज्ञासु ने मेरे गुरूदेव श्री आशुतोष महाराज जी से प्रश्न किया था - 'महाराज जी, मृत्यु कैसी होनी चाहिये?' समाधान हेतु महाराज श्री ने कहा - 'मृत्यु, अस्त होते भास्कर के समान होनी चाहिए।... संतो के देहावसान के समय उनके मुख मंडल पर एक अद्भुत लालिमा विराजमान होती है। वहीं, साधारण मनुष्य का चेहरा मृत्यु के समय काला और निस्तेज पड़ जाता है। इसलिए हमारा अंतिम समय भी सूर्यास्त के समय की गौरवशाली संध्या जैसा हो।'

आशीष - तो हमे अंतिम समय में भी नौजवान रहने हेतु क्या करना होगा?

चाचा जी - यह प्रेरणा भी हमे अस्त होते सूर्य से प्राप्त होती है। सुंदर लालिमा से युक्त ढलता सूर्य मानव-समाज को संदेश देता है कि उसने पूरे दिन प्रकृति के नियमों का पालन किया। वह अपने कर्तव्यों, दायित्वों का वहन करता हुआ जग को प्रकाशित करता रहा। स्वयं भी प्रकाशित रहा, समाज कल्याण हेतु भी सतत प्रयासशील रहा। यही कारण है कि अंत समय वह गौरवमयी मुस्कान के साथ विदा हो पा रहा है।

अतः हमें भी अपने जीवन में प्राकृतिक व ईश्वरीय नियमों का पालन करते हुए कर्तव्यों को पूर्ण करना है। ताकि हम श्रीहीन व ओजहीन होकर आँखें न मूंदें। हमारे मुखमंडल पर अंतिम समय में निस्तेज निराशा न छाए, अपितु गौरवमयी संतोष की लालिमा से वह परिपूर्ण हो।

ऋग्वेद मे हमारे ऋषियों की ईश्वर के समक्ष यही प्रार्थना की -

अथार्त् हे सूर्य देव! जिस प्रकार आपके उदय व अस्त दोनो ही मधुर होते हैं। उसी प्रकार मेरा भी इस संसार से गमन और संसार में पुनः आगमन मधुर हो।

आशीष - सच में चाचा जी! आज अपने छठ पर्व में निहित ऐसी क्रांतिकारी व गूढ़ प्रेरणाओं से मुझे अवगत कराया , जिनके बारे में मै सोच भी नही सकता था। मेरे लिए तो यह पर्व कर्मकांडों का पुलिंदा था, जिन्हें मैं अजीबोगरीब मानता था। पर आज आपने ब्रह्मज्ञान के प्रकाश में उनके जो आंतरिक संदेश बताए, वास्तव में वही इस छठ पर्व की आत्मा हैं। काश! हम सभी इस पर्व की आत्मा से जुड़ पाएँ।