होली पर्व - बुरा मानें या न मानें? djjs blog

होली के दिन यदि कोई आपके ऊपर रंग डाले, तो क्या बुरा मानने वाली बात है? बिल्कुल नहीं। अगर कोई खुशी में झूमे-नाचे, तो क्या बुरा मानने वाली बात है? बिल्कुल भी नहीं। तभी तो रंगों से सराबोर होने के बाद सब यही कहते हैं- 'भई बुरा न मानो, होली है!'

लेकिन यदि रंग की जगह लोग एसिड फेंकने लग जाएँ... खुशी में झूमने की जगह नशे में होशो-हवास खोकर अश्लील और भद्दे काम करने लग जाएँ... पर्व से जुड़ी प्रेरणाएँ संजोने की बजाए, हम अंधविश्वास और रूढ़िवादिता में फँस जाएँ- तब? तब फिर इस पर्व में भीगने की जगह पर्व से भागना ही बेहतर है। प्रस्तुत है इस पर्व की कुछ बिगड़ी हुई झलकियाँ, जिनके चलते यही कहना सही है- 'बुरा कैसे न मानें?'

रंग हुए बदरंग

आज हमने अपने निजी स्वार्थ के लिए त्यौहारों के मूल रूप को ही बर्बाद कर दिया है। हमने मिलावट की सारी हदें पार कर दी हैं। होली के रंगों में अक्सर क्रोमियम, सीसा जैसे ज़हरीले तत्त्व, पत्थर का चूरा, काँच का चूरा, पेट्रोल, खतरनाक रसायन इत्यादि पाए गए हैं। इन मिलावटी रंगों से एलर्जी, अन्य बिमारियाँ, यहाँ तक कि कैंसर होने का खतरा भी होता है। अफसोस! जहाँ रंगों से ज़िंदगी खूबसूरत होनी चाहिए थी, वहाँ आज ये जानलेवा बन गए हैं।

न केवल होली के रंग स्वार्थ, द्वेष, लोभ आदि विकारों के कारण घातक हुए हैं, बल्कि अंधविश्वास और रूढ़िवादी परम्पराओं ने भी इस पर्व में दुर्गंध घोल दी है।

रूढ़िवादी परम्पराएँ

होली से पहले होलिका दहन का प्रचलन है। यह परम्परा हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के अग्नि- दहन होने और भक्त प्रह्लाद की रक्षा से आरंभ हुई। दूसरे शब्दों में, यह बुराई के अंत और सच्चाई की जीत की द्योतक है। परंतु अज्ञानतावश आज इस परम्परा के साथ लोगों ने अलग-अलग भ्रांतियाँ जोड़ दी हैं। जैसे- मथुरा, राजस्थान आदि क्षेत्रों में एक प्रथा है- होलिका दहन के समय, जब आग की लपटें थोड़ी कम हो जाती हैं, तब उसमें से गाँव के कुछ लोग नंगे पाँव चलकर जाते हैं। जो भी उस आग में से सुरक्षित बाहर आ जाता है, ऐसा माना जाता है कि उसे भगवान ने बचाया है। अतः गाँववाले उसे प्रह्लाद की संज्ञा दे देते हैं।

कैसी विडम्बना है- कहाँ तो हमें इतिहास के दृष्टांतों के पीछे मर्म को समझना था और कहाँ हमने इनके अर्थ का अनर्थ कर डाला। सबसे पहले तो, प्रह्लाद ने स्वयं जानबूझकर अग्नि में प्रवेश नहीं किया था- यह जाँचने या परखने के लिए कि क्या भगवान उसे बचा सकते हैं। बल्कि उसे षडयंत्र के तहत उस धधकती ज्वाला में बिठाया गया था। ऐसे में, प्रह्लाद का दृढ़ विश्वास व सच्ची भक्ति उसके सुरक्षा कवच बने। हमारी तो प्रह्लाद जैसी भक्ति भी नहीं है, फिर भी हम भगवान की शक्ति को परखने चल पड़ते है। इस प्रकार की भ्रान्तियों के चलते कई बार हादसे भी घटित हो जाते हैं। अतः हमें ऐसी कोई भी धारणा या प्रथा नहीं अपनानी चाहिए, जिससे हमारा या समाज का अहित हो। पर्व तो आनंद और उल्लास के लिए मनाए जाते हैं, न कि खतरनाक करतब करके किसी अनहोनी या दुर्घटना को जन्म देने के लिए।

परम्पराओं के नाम पर आज होली के साथ भांग- शराब को जोड़ दिया गया है, जिसने इसके चेहरे को और विकृत बना दिया है। लोगों के अनुसार होली और भांग- दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। कैनाबिस के पौधे से बनने वाली भांग एक नशीला पदार्थ है। वैसे तो भारत में कैनाबिस का सेवन गैरकानूनी है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे होली पर हर व्यक्ति यह मानकर चलता है कि उसके पास भांग के नशे में डूब जाने का सर्टिफिकेट उपलब्ध है।  

सराहनीय होली

जहाँ होली का चेहरा समय के साथ और ज्यादा खराब तथा भयावह होता जा रहा है, वहाँ अभी भी कुछ क्षेत्र, कुछ प्रांत और कुछ प्रथाएँ ऐसी हैं, जो इसे खूबसूरत बनाए रखने में प्रयासरत हैं। आइए, अब उनकी बात करते हैं ताकि उनसे प्रेरणा ले सकें-

उत्तरप्रदेश, बंगाल इत्यादि में कुछ जगहों पर आज भी होली को रंग-बिरंगे फूलों से और टेसू के फूलों से बने शुद्ध रंगों से खेला जाता है। इससे न तो लोगों को किसी प्रकार से हानि पहुँचती है, न ही प्रकृति को।

इसी प्रकार दक्षिण भारत के कुदुम्बी तथा कोंकण समुदायों में होली हल्दी के पानी से खेली जाती है। इसलिए वहाँ होली को 'मंजल कुली' नाम से मनाया जाता है, जिसका मतलब होता है- हल्दी स्नान! केरल के लोक-गीतों के संग इस पर्व में सभी लोग शामिल होते हैं। अतः इस प्रकार हल्दी के औषधीय गुणों से खुद को तथा वातावरण को लाभ देते हैं।

निःसंदेह, ऐसे उदाहरण सराहनीय है। ऐसी प्रेरणाओं को अपनाकर हम इस रंगों के पर्व को फिर से सुंदर बना सकते हैं। परंतु होली की वास्तविक खूबसूरती सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। मूल रूप से यह पर्व दिव्यता एवं शुद्धता से परिपूर्ण है। इतिहास के पन्नों से कई दृष्टांतों में से दृष्टांत जो त्यौहार की पावनता, अलौकिकता एवं आनंद की गहराई को दर्शाते हैं। उनकी दिव्य प्रेरणा से हम लाभान्वित होते हैं-  

संत हरिदास की अपने कृष्ण के संग होली

एक बार एक व्यापारी संत हरिदास के लिए इत्र लेकर आया। हरिदास जी ने प्रभु- मस्ती में गाते हुए वह बोतल उठाई और उसे पूरा का पूरा मिट्टी में उड़ेल दिया। व्यापारी की भौंहें कुछ सिकुड़ी। बोला- 'यह क्या किया आपने? इतना कीमती इत्र... और उसे यूँ ही...'

संत हरिदास मुस्कुराते हुए बोले- 'कीमती था, तभी तो उसे उचित स्थान पर अर्पित कर दिया।'

व्यापारी ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। संत के वचन समझ जो नहीं पाया था। संत हरिदास बोले- 'मैंने इस इत्र से अपने कृष्ण संग होली खेली।' वे जानते थे कि व्यापारी की तार्किक बुद्धि को उनका कथन हज़म नहीं होगा। सो खुद ही बोले- 'जाओ, मंदिर में कृष्ण की मूर्ति देख आओ। वह भीगी है कि नहीं...'

संत हरिदास जी के इन शब्दों को सुनकर व्यापारी ही नहीं, वहाँ मौज़ूद अन्य जिज्ञासु भी चल दिए। आश्चर्य!! कृष्ण के वस्त्र सचमुच भीगे हुए थे और उनसे उसी इत्र की भीनी-भीनी महक आ रही थी, जिससे मंदिर का समूचा प्रांगण महक उठा था।

देखा आपने- होली ऐसी होती है, जहाँ दिव्य प्रेम की खुशबू है। जहाँ ईश्वर से अंतरंग सम्बन्ध है। जहाँ अंधविश्वास नहीं, बल्कि अनंत विश्वास है। फिर ऐसे अनोखे खेलने के अंदाज़ पर कोई कैसे बुरा मान सकता है?

लेकिन जानते हैं, ऐसी होली कब खेली जाती है? अमीर खुसरो अपनी काफी में क्या खूब लिखते हैं-

कपड़े रंग के कुछ न होत है,
या रंग में मन को डुबोया री
दैया रे मोहे भिजोया री...

यानी यह शुद्धता, सुन्दरता, सौम्यता एवं दिव्यता वास्तव में तभी इस पर्व में झलकते हैं- जब इंसान अपने मन को सद्गुरु के माध्यम से ईश्वर के रंग में रंग लेता है।

तो आएँ, अपने मन को ईश्वरीय रंग में रंग कर इस पर्व की बिगड़ी हुई सूरत को फिर से खूबसूरत बनाएँ। फिर भीतर और बाहर- दोनों ओर शुद्धता और पावनता के रंग ही बरसेंगे... न कोई बुरा मानेगा... न कोई बुरा करेगा...  और इस पर्व के आने पर सब खुशी से एक स्वर में कह उठेंगे... होली है!

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