कन्हैया के गुदगुदाते खेल djjs blog

पृथ्वी लोक का एक भाग ब्रह्मलोक बना था। यह था- गोकुलधाम। ब्रह्मा जी ने नीचे झाँका और कारण टटोलना चाहा। अद्भूत... आला-निराला प्रेम का नजारा दिखाई दिया। हँसी के फव्वारे... मसखरी... ठिठोली- नटखट प्रेम का पूरा महाभोज यहाँ पक रहा था। हर पकवान में था, कृष्ण-रस का तड़का! अभिभूत होकर ब्रह्माजी कह उठे-

अहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्।

यन्मित्र परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्।।

अर्थात् अहो! नंद के व्रज में रहने वाल गोप-गोपियाँ महाभाग हैं। धन्यभाग्य हैं उनके! क्योंकि साक्षात् परमानंद स्वरूप सनातन पूर्ण ब्रह्म उनके बेमोल बिके सखा हैं, प्यारे मित्र हैं!

किसी कहने वाले ने खूब कहा- ‘रे कन्हैया! कैसा अजब चयन है तुम्हारा! ज्ञानवृद्ध ब्राह्मँणों के यज्ञ में प्रकट होने में तुम्हें लज्जा आती है – पर उधर गोप ग्वालों के कीच भरे आंगनों में तुम बिन बुलाए कूदते फाँदते चले जाते हो! ज्ञानी-ध्यानी प्रकाण्ड पुरुषों की धाराप्रवाह स्तुतियाँ सुनने पर भी तुम मौन रहते हो- पर उधर एक गोप शिशु पुकार करे, तो ‘आया! आया!’ कह उठते हो! बड़े-बड़े इंद्रिय-संयमी हठी-तापसियों का तुम स्वामी बनना तक स्वीकार नहीं करते- पर उधर उन अल्हड़ अलमस्त ग्वालों के तुम ‘दास’ बने फिरते हो! समझ गया मैं नटवर नागर मनमोहन... तोर नाता प्रेम का!’

आइए, चलते हैं, गोकुल की प्रेमपगी बस्ती में... मिलते हैं, कन्हैया की धमाल-चौंकड़ी मचाने वाली गोप मंडली से! द्रष्टा बनते हैं उनके गुदगुदाते खेलों के और उनमें छिपे अलौकिक रहस्यों के!     

गोकुल में धूम-धमाल मचा था। नन्हा नटखट कान्हा कुँज गलियों में निकला था। मोर पंखी सजाकर... छम-छम करता... अपने सखाओं को पुकार रहा था- ‘मनसुखा... सुबल... सुबाहु... सुभद्र... भद्र... मणिभद्र... वरुथप... भोज... विशाल... तोक... श्रीदामा... भई कहाँ हो सब?... खेलेंगे न!’

कन्हैया की रसीली कूक हो और प्रेमपगे पंछी उड़कर न आएँ! असंभव! यमुना तट वाले मैदान में गोप-सखाओं की बड़ी मंडली इकट्ठी हो गई। मनसुखा ने उचक कर प्रस्ताव रखा- ‘क्या खेलें?’ आँखमिचौनी... गुल्ली-डंडा... चकई-भौंरा... कंदुक-कंदुक... झूला-झूलन... या फिर माखन-चोरी करें?...

कन्हैया की आँखें टिमटिमा उठीं। शरारत चेहरे पर ठुमकने लगी। नन्ही अंगली उठाकर बोला – मैं बताउँ?... ताली-ठोक!... खेलोगे?’

ठीक है! ठीक है!... चलो... चलों जोडियाँ बनाओ’

पूरी उमंग से जोड़ीदारी होने लगी। कन्हैया ने दौड़कर श्रीदामा का हाथ थाम लिया। ‘मैं तुझसे जोड़ी बनाऊँगा।’- खिलखिल करता वह श्रीदामा से बोला।       

खेल शुरु हुआ। एक-एक करके जोड़ियाँ मैदान में डटीं। एक संगी ने दूसरे के हाथ पर ताली ठोकी। फिर यह पहला संगी दौड़ पड़ा। दूसरा उसे पकड़ने के लिए पीछे-पीछे भागा। अन्य गोप उत्साहवर्धन करने लगे।

अब हमारे बटुक कुमार वाली जोड़ी की बारी थी। उसने अपनी नन्ही अंगुली कनपटी पर टिकाई, कुछ सोचा और बोला- ‘श्रीदामा, तू ताली ठोक और दौड़ जा। मैं पीछे-पीछे आकर तुझे पकडूँगा।’ पर श्रीदामा नट गया- ‘तू दौड़, मैं तुझे पकडूँगा।’

कन्हैया मुस्काया, तुतलाता हुआ कह गया- ‘बुद्धू! मुझे पकड़ना सरल नहीं!’

श्रीदामा (झुंझलाते हुए)- पर तू पकड़ने में भी तो बड़ा कुशल है। कोई कितनी भी गति से दूर भागे, तू लपक कर अपनी भुजाओं में उसे फाँस ही लेता है। ...दोनों ओर से हार ही है मेरी। फँस गया मैं तेरा जोड़ीदार बनके।

श्रीदामा मायूस था। कन्हैया ने उसकी ठुड्डी पकड़ी और जोर से खिलखिला दिया। फिर बोला- ‘सच्ची दामा! बड़ा मजा आएगा मेरा जोड़ीदार बनकर तुझे!... अच्छा, मैं ताली ठोकता हूँ। तू मुझे पकड़।’

‘ठीक है।’- श्रीदामा मान गया। कन्हैया ने नन्हे हाथ से श्रीदामा के हाथ पर ताली मारी और दौड़ पड़ा। पवन के तेज झौंके जैसी स्फूर्ति थी उसकी!

उधर श्रीदामा ने भी पूरी जान लड़ा दी। ‘मैं पकड़ कर ही रहूँगा तुझे!’- मन ही मन यही हठ दोहराते हुए वह भागता रहा। ‘मैं’ की हठ थी। भला कान्हा कैसे पकड़ में आता?

इसलिए दौड़-भाग लगी रही। आगे-आगे कान्हा, पीछे-पीछे श्रीदामा। धीरे-धीरे श्रीदामा की साँस उखड़ने लगी। कन्हैया से दूरी बढ़ती गई। पराजय का मुख बड़े आकार में दिखने लगा।

अगले ही पल, श्रीदामा के हृदय से हूक निकली- ‘मैं थक गया, कान्हा! बस, अब गिरने वाला हूँ। अब, तू ही कुछ कर न। क्या तू मुझे हराकर रहेगा? चल, जैसा तू चाहे।

हार-जीत तेरे हाथ!!’

‘मैं’ हर पंक्ति के साथ ‘तू’ में बदलता गया। श्रीदामा का ‘हठ’ पिघल कर ‘समर्पण’ में ढल गया। उधर मैदान पर भी बदलाव दिखने लगे। कन्हैया की गति सहसा घटती गई। दूरियाँ कम होती जा रही थीं।... 20 फलांग से 15...15 फलांग से 10 ...5...3...2...1...

यह क्या! कन्हैया श्रीदामा की बाँहों में कैद खड़ा था। ‘पकड़ लिया! पकड़ लिया!’- कहकर श्रीदामा विजयनाद उठा रहा था।

गोप-मंडली में भी श्रीदामा की जय-जयकार थी। आश्चर्य! इस विजयोत्सव के बीच हारने वाले के मुखड़े पर हार के चिह्न नहीं थे। होठों पर मीठी सी रेखा थी। भाल पर गर्व का भाव था। प्रसन्न नेत्रों से कन्हैया श्रीदामा से कह रहा था- ‘देखा! मेरा जोड़ीदार कभी नहीं हारता। उसकी सदा जय होती है।’

कान्हा का पसंदीदा खेल- गो एवं गोवत्सों (बछड़ों) के संग आनंद मनाना। सूर ‘पद रत्नाकर’ में लिखते हैं-

बछरा की लै पूँछ कर पकरि भजावत ताहि ।
पाछे-पाछे सखन-संग ताके भाजत जाहिं ।।
नित नूतन क्रीड़ा करत बालक श्री व्रजचंद ।
देत-लेत आनंद नित संचित-आनंद-कंद ।।

एक दिन आनंदकंद ने एक नूतन लीला करने की ठानी। मैया रसोईघर में थी। सखियों सहित दधि बिलो रही थी। नंदबाबा गोशाला में व्यस्त थे। गोपालकों के संग दुग्ध्-दोहन कर रहे थे। अवसर चोखा था। दोनों नन्हे कुमार- कन्हैया और दाऊ नंद भवन से बाहर दौड़ लिए।

बाहरी आँगन में विशाल आम्रवृक्ष था। उसकी शीतल छाया में कोमल-कोमल गोवत्स बैठे थे। दोनों भाइयों ने एक-दूजे की ओर निहारा। आँखें नचाकर-मटकाकर गोपनीय बात की। फिर लगे लीला का पसारा करने।

दाऊ ने एक बछड़े की पूँछ पकड़ी। कन्हैया ने दूसरे बछड़े की। दोनों लगे पूँछों को खींचने। खिंचाव पड़ा, तो गोवत्स विचलित हुए। रंभाए और तुनक कर उचकने लगे। उठ खड़े हुए और इत-उत पैर चलाने लग गए। उनके हो-हल्ले से आसपास भी आपाधपी मच गई। बाकी गोवत्स भी बिगड़ गए। चिड़चिड़ाहट में कोहराम मचाने लगे।

उधर दोनों भाई सहायता के लिए पुकार उठे- ‘मईया! बाबा!... काका!... बचाओ! ... गैया कुचल डालेगी हमें! बचाओ!... रक्षा करो!’

मानो गोकुल उमड़ आया। जिसने भी स्वर सुने, काम-धम छोड़कर भागे आँगन की ओर। यशोदा माँ... नंद बाबा... काका-काकी... गोप-गोपांगनाएँ... सभी घटना स्थल पर पहुँच गए। देखा, गोवत्सों के बीच भगदड़ मची थी।

धूल के गुबार में जूझ रहे थे, दोनों भाई। पूँछ खींचे जा रहे थे। गो-वत्सों द्वारा घसीटे जा रहे थे। उन्मत्त हुए बछड़ों से टक्कर भी खा रहे थे।

यह देख, मईया हाहाकार कर उठी- ‘हाय! मेरे लल्लाओं को बचाओ कोई!’ उधर से नंदबाबा चिल्लाए- ‘दाऊ! कन्नू!... लल्ला, पूँछ छोड़ दो दोनों।... गैया कुछ नहीं कहेगी।... पूँछ छोड़ दो... सब थम जाएँगे।...’

‘हाँ... छोड़ो लल्ला... पूँछ छोड़ो...।’ गोकुल वासी भी गुहारने लगे।

पर नासमझ लल्ला... या फिर समझ जगाने वाला लीलाधरी... पूँछ को जकड़े हुए घसीटे जा रहा था।

अब नंदबाबा के इशारे पर हृष्ट-पुष्ट ग्वाल आगे आए। गो बछड़ों को रोका गया। थमे हुए वत्सों के बीच से राह बनाते हुए नंदबाबा कान्हा के पास पहुँचे। बल प्रयोग कर उससे पूँछ छुड़ाई। एक अन्य प्रौढ ग्वाल ने दाऊ के हाथों से पूँछ को स्वतंत्रा किया। सभी गोवत्सों को हाँककर अन्यत्र ले जाया गया।

इधर मईया कन्हैया को चूम-चूम कर अघाई जा रही थी। गोपांगनाएँ हँसते-हँसते लोट-पोट हो रही थीं। एक ग्वालन पूछ ही बैठी- ‘कान्हा, एक बात बता- तू काहे न पूँछ छाड़ियो?’

‘हाँ! पूँछ छोड़ देतो, तो सारो तमाशो ही मिट जातो। ...बता न, तू काहे न पूँछ छाड़ियो?’- अन्य गोपी भी हँसी-हँसी में कह गई।

नन्हा नटवर नागर भोला सा मुखड़ा बना बैठा। फिर धीरे से बोला- ‘तुम भी तो नहीं छोड़ती। मेरी छोटी-छोटी बातें पकड़ कर कोहराम मचाती रहती हो। मैं भी तो कहता रहता हूँ- ये छोड़ दो, वो छोड़ दो... इसे (मोह) छोड़ दो, उसे (विकार) छोड़ दो... तुम कहाँ सुनती हो?... बोलो, तुम काहे न छाड़ियो?’

जागृत मतियाँ यह सुनकर साधना में उतर गई थीं। बाकी स्थूल बुद्धियाँ ही-ही करके हँस दी थीं। कन्हैया के बालोचित भोलेपन की बलैया ले रही थीं।