हाथ में जल-पात्र, बेल पत्र इत्यादि लिए ‘रावत’ जी के कदम मंदिर की ओर बढ़े जा रहे थे। आज फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के उपलक्ष्य पर उन्होंने महाशिवरात्रि का व्रत जो रखा था। सो शिवलिंग का अभिषेक करने हेतु ही वे घर से निकले थे। पर मंदिर पहुँचने पर उनको श्रद्धालुओं की लंबी कतार देखने को मिली। उनकी बारी आते-आते लगभग डेढ़ घंटा बीत गया। शिवलिंग के निकट पहुँचकर उन्होंने भी बाकी सब की तरह उस पर बेल पत्र रखे और जल से अभिषेक किया। पर मन में प्रश्न कौंध उठे, आखिर यह सब क्यों? यह बेल-पत्र, जल, दूध इत्यादि से अभिषेक... ऐसा क्यों? खैर, सवालों को किनारे करके वे सरपट घर की ओर मुड़ गए। रास्ते में उन्होंने दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा आयोजित शिव-कथा का एक बैनर देखा। कथा पास ही के एक परिसर में चल रही थी। सो, उन्होंने सोचा कि क्यों न कथा का रसपान किया जाए! कथा-स्थल पर पहुँचकर वे पंडाल में जा बैठे। वहाँ महाशिवरात्रि की व्रत-कथा का प्रसंग चल रहा था। मंच पर अध्यासीन कथा-वाचक ने प्रसंग सुनाना आरम्भ किया....
एक पौराणिक कथा के अनुसार... हज़ारों वर्ष पूर्व ईक्ष्वाकु वंश के एक राजा हुए। उनका नाम था- ‘चित्राभानु’। महाशिवरात्रि के दिन उनके दरबार में ब्रह्मर्षि अष्टावक्र जी का आगमन हुआ। राजा और रानी को शिवरात्रि का व्रत रखता देख उन्होंने पूछ लिया- ‘राजन्! इस व्रत का उद्देश्य क्या है?’
‘ट्टषिवर, दैवी कृपा से मुझे अपना पिछला जन्म याद आ गया है। सो उसमें निहित दैवी प्रेरणा के कारण मैंने और मेरी भार्या ने यह व्रत रखा है।’- राजा ने उत्तर में कहा।
असल में राजा चित्राभानु पिछले जन्म में एक शिकारी थे। उनका नाम था- ‘सुस्वर’। एक बार वे शिकार करने के लिए जंगल में गए। जंगल में अपने श्वान के संग शिकार को ढूँढ़ते हुए उनको शाम हो गई। सो, उन्होंने उसी जंगल में रात्रि बिताने की सोची। रात के अंधियारे में जंगली जानवरों से अपनी सुरक्षा के लिए उन्होंने एक वृक्ष के ऊपर चढ़ने की सोची। वे अपने श्वान को नीचे छोड़कर पास ही के बेल-वृक्ष के ऊपर चढ़कर बैठ गए। पूरे दिन की भूख से तो वे बेहाल थे ही। साथ ही, उन्हें आज शिकार न मिलने की चिंता भी सता रही थी। खैर, रात गहराती गई। समय काटने के लिए वे वृक्ष की पत्तियों को तोड़कर नीचे ज़मीन पर फेंकते गए। साथ ही, अनजाने में, उनकी मशक से भी पानी बूँद-बूँद टपक कर नीचे गिरता गया। ऐसा करते हुए कब रात्रि बीत गई, उन्हें मालूम ही न चला। सुबह होते ही, वे अपने घर वापिस लौट चले।
कहानी आगे बताती है कि ज़िन्दगी के आखिरी पलों में जब वे मृत्यु-शैया पर थे, तब दो शिव-दूत उनकी आत्मा को शिवधाम ले गए। वहाँ पहुँचकर सुस्वर को पता चला कि उस रात्रि बेल-वृक्ष के नीचे एक शिवलिंग स्थापित था, जिस पर अनजाने में ही उनके द्वारा बेल-पत्र और जल से अभिषेक हो गया था। पूरी रात्रि खाली पेट उपवास रखकर जागने की वजह से वे शिव की उपासना कर बैठे थे। इसी के फलस्वरूप उनको शिवधाम की प्राप्ति हुई। फिर अगला जन्म उनको ‘चित्राभानु’ के रूप में उस उपासना को पूर्ण करने के लिए मिला।
भगवद् प्रेमियों, आपमें से भी लगभग हर श्रद्धालु ने यह कथा सुनी होगी। पर क्या मात्रा खाली पेट रहने से शिवलिंग पर बेल पत्र, जल, दूध इत्यादि का अभिषेक करने से भगवान शिव की सच्ची उपासना हो जाती है? आज का युवा एवं बुद्धिजीवी वर्ग तो ऐसी कहानियों को कपोल-कल्पित ही मानता है। क्योंकि जब वे इस कथा के पीछे मर्म को पूछना या जानना चाहते हैं, तो उन्हें सामने से यही उत्तर सुनने को मिलता है- ‘ऐसा ही दादा-परदादाओं के समय से होता आया है।’ स्पष्ट और संतोषजनक जवाब के अभाव में वे इन सब कहानियों को ‘मनगढ़ंत’ ही मान लेते हैं।
गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी अक्सर कहते हैं- ‘हमारे आर्ष-ग्रंथों में वर्णित प्रसंग किसी मानुष की कोरी-कल्पनाएँ न होकर, ब्रह्मज्ञानी ऋषियों के अंतःकरण से उद्धृत साक्षात् ब्रह्म-वाक्य हैं। इनमें निहित गूढ़ भाव को बड़े ही अलंकारिक रूप से प्रस्तुत किया गया है। अतः इन प्रसंगों के मर्म को समझने के लिए आत्म-चिन्तन की गहराइयों में गोता लगाने की आवश्यकता है।’
ठीक ऐसे ही, महाशिवरात्रि की इस व्रत कथा का मर्म गूढ़ के साथ-साथ प्रेरणादायी भी है। भक्तगणों आइए, इस कथा में निहित सार को पंक्ति-दर-पंक्ति समझने का प्रयास करते हैं।
अज्ञानता की घोर रात्रि!
कथा प्रसंग में आपने सुना कि सुस्वर को शिकार ढूँढ़ते हुए रात्रि हो जाती है। यह रात्रि मात्र सूर्यास्त होने का संकेत नहीं है। अपितु यह तो अज्ञानता के घोर अंधकार- ‘अज्ञानतिमिरान्ध्स्य’ का प्रतीक है। ऐसी अज्ञानता, जो मानुष में व्याप्त दिव्यता पर पर्दा डाल देती है, जिसके कारण वह अपने और दूसरों के भीतर विद्यमान ईश्वर के प्रकाश को नहीं देख पाता है। जीवन भर इस माया-रूपी जंगल में ही भटकता रहता है।
पाश्विकता से दिव्यता की ओर!
कथा आगे बताती है कि जंगली जानवरों से बचने के लिए सुस्वर किसी वृक्ष पर आश्रय लेने का निर्णय लेता हैऔर अपने श्वान को नीचे छोड़कर नजदीकी बेल वृक्ष पर चढ़ बैठता है। सुस्वर के इस कृत्य के पीछे गूढ़ संदेश छिपा है। यहाँ श्वान मानव की पाश्विक वृत्तियों को दर्शाता है। उसको नीचे छोड़कर पेड़ पर चढ़ना उर्ध्वगामी होना है। यानी दिव्यता की ओर कदम बढ़ाना है। विशेषकर बेल के पेड़ पर चढ़ने का भी अपना महत्त्व है। ऋग्वेद के श्री सूक्तम (6) में लिखा है-
आदित्यवर्णे तपसोऽध्जिातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाहया अलक्ष्मीः।।
सरल शब्दों में कहें तो, बिल्व वृक्ष ताप का परिचायक है। इस सूक्ति में बिल्व वृक्ष से आर्त प्रार्थना की गई है कि वह अपने तपो-फल से आध्यात्मिक दरिद्रता को मिटाए; उपासक को ‘श्री’ (आत्मिक और व्यावहारिक समृद्धि की प्राप्ति कराए।
फल ही नहीं, इस वृक्ष की डालियाँ और पत्ते भी महिमावान हैं। इसके विषय में हमारे आर्ष-ग्रंथों में वर्णित है-
...पतरैर्वेदस्वरूपिण स्कंधे वेदांतरुपया
तरुराजया ते नमः।
अर्थात् बेल वृक्ष के पत्ते वेदों की ऋचाओं के सार हैं, उसकी डालियाँ उपनिषदों में निहित ज्ञान की निचोड़ हैं। इसलिए ऐसे वृक्षों के राजा बेल को शत-शत नमन है। व्याध का बेल वृक्ष पर चढ़कर बैठना, वेद-वेदांत के मर्म यानी तत्त्वज्ञान या ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति का प्रतीक है। अंतर्घट में शिव-तत्त्व को जानने की ओर संकेत है। इसकी प्राप्ति या ऐसी जिज्ञासा का अंत एक श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर ही संभव हो पाता है। पूर्ण गुरु ही जिज्ञासु को अलौकिक ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं-
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्
समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।।
(मुंडकोपनिषद् 1/2/12)
सद्गुरु प्रदत्त ब्रह्मज्ञान के द्वारा सनातन शिव-तत्त्व की प्राप्ति होती है और अज्ञान रूपी महाग्रंथि का उन्मूलन होता है- ‘छ्रित्त्वाऽविद्यामहाग्रन्थिं शिवं गच्छेत्सनातनं।।’ (रुद्रहृदयोपनिषद् 37)। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि जब एक पूर्ण गुरु दीक्षा के समय शिष्य को ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं, उसी क्षण जिज्ञासु का तृतीय नेत्रा सक्रिय हो जाता है और वह शिव-तत्त्व का साक्षात् दर्शन अपनी हृदय-गुहा में कर लेता है। फिर आरम्भ होती है, ध्यान की शाश्वत प्रक्रिया।
बेल-पत्र और शिवलिंग का रहस्य!
आगे प्रसंग में सुस्वर समय काटने हेतु बेल-पत्तियों को नीचे फेंकता रहता है। संयोगवश ये पत्तियाँ नीचे स्थापित शिवलिंग पर अर्पित होती जाती हैं। ये बेल पत्र और शिवलिंग एक प्रगाढ़ रहस्य समेटे हुए हैं। क्या कभी आपने बेल की पत्तियों पर ध्यान दिया है? एक डांठ पर तीन पत्तियाँ उगती हैं और ये त्राय पत्तियाँ मानवीय शरीर की 72,000 सूक्ष्म नाड़ियों में से प्रमुख तीन नाड़ियों की ओर इंगित करती हैं-
प्रधनाः प्राणवाहिन्यो भूयास्तासु दशस्मृताः।
इडा च पिड्गला चैव सुषुम्ना च तृतीयगा।।
(योग चूड़ामणि उपनिषद् 16)
इनको इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना के नाम से जाना जाता है। बेल-पत्र प्रतीक है- इन तीन नाड़ियों के मिलन का। यह मिलन कहाँ पर घटता है? हमारे ऋषिगण इसे ‘आज्ञाचक्र’ से संबोधित करते हैं। यह आज्ञाचक्र हमारे मस्तिष्क की पिंडी में, जो शिवलिंग के समान आकार वाली है, स्थित होता है। जब शिष्य अपनी भौहों के बीच स्थित इस आज्ञाचक्र पर ध्यान केन्द्रित करता है- ‘आज्ञा नाम भुवोर्मध्ये द्विदलं चक्रमुत्तमम्।...’ (योगशिखोपनिषद् 175)- तब इस स्थल पर तीनों नाड़ियों का मिलन होता है। अतः व्याध द्वारा शिवलिंग पर बेल पत्र अर्पित करना ध्यान की प्रक्रिया के दौरान आज्ञाचक्र में तीन नाड़ियों के मिलन को दर्शाता है।
बूँद-बूँद जल का टपकना!
पहले पेड़ पर चढ़ना, फिर बेल पत्तों को गिराना और फिर व्याध की मशक से शिवलिंग के ऊपर पानी का टपकना। भक्तजनों! यह शृंखला मात्रा संयोग नहीं है। यह स्पष्ट और सूक्ष्म संकेत है, प्रभु शिव की शाश्वत भक्ति अर्थात् ब्रह्मज्ञान की ध्यान-प्रक्रिया का जो एक साधक के अंतस् में चलती है। जैसे कि मंदिरों में कलश से बूँद-बूँद करके शिवलिंग पर जल टपकता है; ठीक इसी तरह कबीर जी कहते हैं-
‘गगन मंडल अमृत का कुआँ, जहाँ ब्रह्म का वासा’- हमारे ब्रह्मरंध्र या सहस्रार चक्र में अमृत का एक सूक्ष्म व शाश्वत स्रोत मौजूद है। जब एक साधक सद्गुरु द्वारा दिए गए ब्रह्मज्ञान की ध्यान पद्धति को अपनाकर ध्यान करता है, तब उसके ब्रह्मरंध्र से भी बूँद-बूँद अमृत रस झरता है। ध्यान की गहराई में पहुँचने पर वह इस अमृत का पान कर पाता है-
सगुरा होई सो भर-भर पीवै, निगुरा मरत प्यासा।
ब्रह्मानंद जी ने भी जब अपने गुरुदेव की अनुकंपा से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति की, तो वे अपने भीतर ही इस अमृत को झरता हुआ अनुभव कर पाए-
अचरज देखा भारी रे साधे, अचरज देखा भारी रे।
गगन बीच अमृत का कुआँ, सदा झरे सुखकारी रे।।
अतः व्याध द्वारा शिवलिंग पर जल को बूँद-बूँद गिराना, ब्रह्मज्ञान की अमृत पान की प्रक्रिया को ही दर्शाता है।
उपवास से उपासना!
यह मात्रा संयोग नहीं था कि पूरी रात्रि सुस्वर क्षुध से बेहाल था। इस अलंकारिक भाषा के पीछे झाँकने से ज्ञात होता है कि यह स्थिति ‘उपवास’ की प्रतीक है। इसमें ‘उप’ का अर्थ है, ‘निकट’ और ‘वास’ का अर्थ है- ‘रहना’। किसके निकट? ईश्वर के! अतः उपवास का अर्थ हुआ- ‘ईश्वर के निकट वास करना।’ यही तो ध्यान की शाश्वत पद्धति है, जो हमें ईश्वर के प्रकाश स्वरूप का साक्षात् दर्शन कराती है और उस पर एकाग्र होने की युक्ति है। वास्तव में, ब्रह्मज्ञान की ध्यान-प्रक्रिया ही सच्चा उपवास है, प्रभु की सच्ची उपासना है। ‘उपासना’ शब्द का अर्थ भी ईश्वर के नज़दीक बैठना है।
भगवद् प्रेमियों, यही था शिवरात्रि-व्रत कथा का गूढ़ मर्म। इसी के साथ दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान आप सभी भक्तजनों को महाशिवरात्रि के उपलक्ष्य पर हार्दिक बधइयाँ देता है। आशा करते हैं कि आप भी शिव-तत्त्व की शाश्वत उपासना करने के इच्छुक हुए होंगे और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की ओर अग्रसर होंगे। ऊँ नमः शिवाय।
कथा-प्रसंग समाप्त होने पर रावत जी के मन के प्रश्न भी आज समाप्त हो गए। अब वे संतुष्ट हैं। सिर्फ इसलिए नहीं कि उनको अपने मन में कौंधे प्रश्नों के उत्तर मिल गए, बल्कि इसलिए कि उनको वह शाश्वत रहस्य पता चल गया जिसके द्वारा भगवान शिव की सच्ची उपासना की जाती है; इसके लिए उन्होंने भी ब्रह्मज्ञान की ओर अपने कदम बढ़ा दिए।
शब्दों का ज्ञान जानकर निशब्द हो गया
Very nise happy mahashivratri Jay bholenath mere shiv pita Jmjiki my all djjs family
Sateek meaning of Mahashivratri.
Nice motivational thoughts about our inner living (GOD) all the related "शिवतत्त्व"
atisundar vastivikta shivratri ki.....
This is really a very short, concise and informative article revealing the quintessence of maha shivratri :) Shree Ashutosh Bhagwan ki jai :)
श्री अशुतोश महाराज जी की जय। आज हमें भी पता चला कि शिव उपासना का अर्थ. jmjk कोटि कोटि चरण बनधना। ? किरपय करवा चौथ वर्त का अर्थ बताये jmjk
Now we understand practical meaning of Mahashivratri!!! Thanks djjs