ताकि हम आज़ाद भारत में साँस ले सकें! djjs blog

प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त को, हम भारतीय पूरे जोश व उल्लास से स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। यही वह तारीख है, जब सन् 1947 में अंग्रेजी हुकूमत से हम सभी को आजादी मिली थी। इतिहास की एक ऐसी उज्ज्वल सुबह, जब भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की कड़ी तपस्या रंग लाई थी। तब हर भारतीय के होठों पर गुंजायमान था, सिर्फ एक ही तराना- ‘अब हम आजाद हैं!’

पर हाँ, यह युग सत्य है कि इस आजादी को पाना आसान न था। इसके लिए स्वतंत्रता सेनानियों को शूलों से भरे लम्बे रास्तों पर नंगे पाँव चलना पड़ा था। बेइंतहां जुल्म और पीड़ा के दरिया को पूरी दिलेरी से पार करना पड़ा था। इस स्वतंत्रता के महासंग्राम में कई दिल दहला देने वाली घटनाएँ घटीं... जिनको सुनकर कभी नयन नम, तो कभी मस्तक गौरवांनित हो उठता है। तो पढ़ते हैं, वीर-रस से ओतप्रोत भारतीय सपूतों के कुछ ऐसे ही बलिदानों को!

क्रांतिकारी अनशन...

जिसने ब्रिटिश हुकूमत से सुकून के निवाले छीन लिए!

बात सन् 1929 की है। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को केन्द्रीय विधान सभा में बम विस्पफोट करने के दोष में गिरफ्तार कर लिया गया था। बंदीगृह में मौजूद भारतीय कैदियों की दयनीय दशा से वे भलीभाँति परिचित थे। उन्हें न खाने के लिए ढंग का आहार,  न शौच की सुविधा और न ही दैनिकचर्या की जरूरी चीजें मुहैया कराई जाती थी। आखिर बुनियादी सुविधाएँ तो हर इंसान का हक हैं। पर जेल में ये स्वतंत्रता सेनानी पशुओं से भी बदतर जिन्दगी जी रहे थे।

इसी के चलते भगत और बटुकेश्वर ने जेल जाने से पूर्व ही एक योजना बनाई। उन्होंने ठान लिया था, किसी भी तरह अंग्रेजी हुकूमत को बंदीगृह सुधार के लिए मजबूर करके रहेंगे। इसके लिए वे जेल में पहुँचने के पश्चात् भूख हड़ताल शुरु कर देंगे। और हुआ भी योजना के मुताबिक ही!

जल्द ही, यह योजना उनके साथियों के कानों में पड़ी। वे सब भी बड़ी तादाद में इस हड़ताल में सहभागी बन गए। हालांकि शुरुआती दिनों में जेल-अधकारियों ने इस हड़ताल को नजरअंदाज किया। पर कैदियों की बिगड़ती हालत को वे ज्यादा देर अनदेखा न कर सके। उनकी रातों की नींद उड़ने लगी। आखिरकार उन्होंने दसवें दिन कैदियों की भूख हड़ताल जबरन खत्म कराने की कोशिश शुरु कर दी।

हड़ताल को रोकने के लिए जेल अधिकारियों ने कई हथकंडे अपनाए। पर अफसोस, वे क्रांतिकारियों के अडोल जुनून के आगे नाकाम रहे। अधिकारियों ने फिर कुछ डॉक्टरों को नियुक्त किया। वे कैदियों के नाक में रबड़ की नली डालकर उन्हें जबरदस्ती दूध पिलाने लगे। लेकिन इसके तीसरे ही दिन क्रांतिकारी जतिन दास को शबरन दूध पिलाते वक्त कुछ अनहोनी हो गई। इस कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया। हालांकि जतिन की हालत नाजुक थी, पर जेल में जबरन दूध पिलाना जारी रहा।

भारत माँ के सेनानी सपूतों ने इसका तोड़ बहुत ही अनूठे व साहसी ढंग से निकाला। किसी वीर ने तो लाल मिर्च के साथ उबलता हुआ पानी पी लिया। इसके कारण उसके गले की नली सूज गई और रबर-नली को भीतर डालना लगभग असंभव हो गया। किसी ने जबरन दूध पिलाने की प्रक्रिया के बाद ढूँढ़-ढूँढ़ कर मक्खियाँ खा लीं... और उल्टी करके सारा दूध् बाहर निकाल फेंका!! इस तरह अंग्रेजों की जल्लादनुमा करतूतों को बार-बार युवा-क्रांतिकारियों के निर्भीक हौसलों के सामने मुँह की खानी पड़ रही थी।

अब अंग्रेजों के शैतानी दिमाग में एक और खुराफाती योजना आई। प्रत्येक कक्ष में कैदियों के लिए घड़ों में पानी की जगह, दूध रखा जाने लगा। उनके मनसूबे ये थे कि पानी की कमी से जब सेनानी दम तोड़ने लगेंगे, तो अपने आप दूध पीने को विवश हो जाएँगे। लेकिन अधिकारी यह नहीं जानते थे कि उनके जुल्म ऐसी आग हैं, जिनमें पककर इन सपूतों के इरादे ज्यादा फौलादी हो जाते हैं। ब्यौरे बताते हैं कि एक-एक करके जेल-कोठरियों से घड़ों के फूटने की आवाजें सुनाई देने लगीं। ये आवाजें ब्रिटिश हुकूमत के सिंहासन के चकनाचूर होने के भावी स्वर थे। 

कई दिन इसी भूख हड़ताल के चलते जतिन दास की हालत बेहद खराब हो गई। जल्द ही, उन्होंने अपने सभी युवा-साथियों के बीच अपनी आखिरी साँसें लीं।

इस मृत्यु के साथ ही, भूख हड़ताल की गूँज सम्पूर्ण भारत में फैल गई। कई शहरों की जेलों में मौजूद क्रांतिकारी कैदी इसमें सहभागी बन गए। परिणामस्वरूप इस घटना ने पूरे विश्व को अपनी तरफ आकर्षित कर लिया। इस खबर ने इंग्लैंड के अधकारियों के मन-मस्तिष्क में भी उथल-पुथल मचा दी।

आखिर में, शासन प्रणाली ने कैदियों की माँगें माने जाने का झूठा आश्वासन देकर हड़ताल को रोका। इससे हड़ताल कुछ दिन के लिए तो रुकी, पर व्यवस्थाओं में कोई सुधार न पाकर क्रांतिकारियों ने हड़ताल फिर से शुरु कर दी। यह भूख हड़ताल 64 दिनों तक चली। 

आज हम एक वक्त भी मनपसंद खाना न मिले, तो आसमान सिर पर उठा लेते हैं। पर सोचिए, उन युवाओं के बारे में, जिन्होंने आजादी की शमा में अपनी भूख तक को स्वाहा कर दिया! इन आजादी के परवानों के हौसलों की बुलंदियों को मापना मुश्किल है। और यह कहना भी बड़बोल नहीं होगा कि यह थल और नभ के बीच की दूरी को मापने से भी अध्कि दुष्कर है।

भारत का सूर्य पुत्र...

जिसने आज़ादी का स्वप्न देखा!

सूर्य सेन बंगाल के क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे। खासकर चटगाँव में जो ‘ब्रिटिश विरोधी आंदोलन’ हुआ, उसके ये मुख्य नायक भी थे। 18 अप्रैल, 1930 को सूर्य सेन के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने चटगाँव में स्थित ब्रिटिश शास्त्रागार को लूट लिया था और चटगाँव कुछ दिनों के लिए अंग्रेजी शासन से मुक्त हो गया था। बंगाल भर में क्रांति की अलख सूर्य ने बड़ी तेजी से जगाई थी।

इसी वजह से अंग्रेजी हुकूमत सूर्य को धर दबोचने के लिए लगातार प्रयासरत थी। पर उनसे बचने के लिए सूर्य निरन्तर अपने निवास-स्थान बदलते रहते। एक बार उन्होंने ‘नेत्र सेन’ नामक एक व्यक्ति के घर में शरण ली। सूर्य सेन के ऊपर अंग्रेजों ने 10,000 रुपये का ईनाम रखा हुआ था। इसी लालच में आकर नेत्र सेन विश्वासघात कर बैठा। उसने ब्रिटिश अधिकारियों को सूचना दे दी। इस जानकारी को प्राप्त करते ही उन्होंने सूर्य को नेत्र सेन के घर से गिरफ्तार कर लिया।

सूर्य के पकड़े जाने के कुछ दिनों बाद ही एक अज्ञात व्यक्ति नेत्र सेन के घर में घुसा और ‘डा’ (बड़े चाकू) के एक ही वार से उसकी हत्या कर दी। नेत्र सेन की पत्नी ने यह सारी घटना अपनी आँखों के सामने देखी थी। पर जब पुलिस विभाग के लोग उसके घर आए, तो उसने उस हत्यारे का हुलिया व नाम बताने से बिल्कुल इन्कार कर दिया। उसने कहा- ‘मैं यह जानते हुए भी कि वह हत्यारा कौन है, आपको कुछ नहीं बताऊँगी। मेरा मन, मेरी आत्मा इस बात की कतई गवाही नहीं देती। और मुझे इस बात का कोई गम भी नहीं है। है तो बस आत्मग्लानि कि मैं इनके जैसे देशद्रोही, अधर्मी इंसान की पत्नी थी। मेरे पति भारत माता के आँचल के ध्ब्बे थे। धन्य है वह सपूत, जिसने उसे पोंछ डाला! ...मैं जानती हूँ कि अब सूर्य दादा (भाई) को फाँसी लग जाएगी। पर इस देश की आजादी के वे अमर सुर बनकर गूँजते रहेंगे। वे चटगाँव के सूर्य-पुत्र बनकर दमकेंगे... हम सबके सूर्य-दादा रहेंगे!’

कहा जाता है, फाँसी देने से पहले सूर्य सेन पर बर्बरतापूर्ण अत्याचार किया गया था। हथौड़े से उनके सारे दाँत तोड़े गए। हाथों और पाँवों के नाखूनों को एक-एक करके उखाड़ा गया। क्रूरता के मनसूबे फिर भी न थमे। अंग्रेजों ने सूर्य के सारे अंगों और जोड़ों को भी तोड़ डाला। फिर अचेत अवस्था में ही उन्हें फाँसी दे दी गई। मृत्यु के बाद उनकी देह का संस्कार तक नहीं किया गया। उनके शव को एक पिंजरे में डालकर बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया।

फाँसी से एक दिन पूर्व, 11 जनवरी को, उन्होंने अपने एक मित्र को आखिरी खत में लिखा था-

‘मित्र, मौत मेरे द्वार पर दस्तक दे रही है। मेरा मन अनंत की ओर उड़ान भर रहा है। इन आनंदमयी, गंभीर और महान पलों में... मैं सोच रहा हूँ कि तुम्हारे लिए पीछे क्या छोड़कर जाउँ!... सिर्फ एक ही वस्तु- वह है मेरा स्वप्न- मेरा स्वर्णिम स्वप्न- भारत की आजादी का स्वप्न!...’

सूर्य सेन द्वारा लिखा गया यह खत उनकी आजादी की तड़प को साफ बयां करता है। उनके जीवन में कितनी ही पीड़ाएँ आईं, यहाँ तक कि उनको अपनों का धोखा भी सहना पड़ा लेकिन फिर भी उन्होंने अपने जज्बे को कभी ठंडा नहीं होने दिया।

यह क्रांतिवीर निरन्तर सूर्य के समान धधकता रहा... आजादी की गर्जना करता रहा। ताकि आप और हम आज आजाद भारत में साँस ले सकें।

जय हिन्द!

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