हम मंदिर में दीप प्रज्वलित क्यों करते है?
हम घंटियाँ क्यों बजाते है?
हम माला क्यों जपते है? नाम-सुमिरन क्या है?
सोचो घट शिवलिंग का, बूँद-बूँद जल नित क्यों बरसाए? चंदामृत क्या है?
इन्हीं सब सवालों के जवाब इस लेख में हम देखेंगे..
श्रीकृष्ण जी गीता में कहते है-
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देश्ऽर्जुन तिष्ठति। (गीता 18:61)
परमेश्वर प्रत्येक जीव के ह्रदय में अन्तःकरण में निवास करता है।
परमात्मा के दर्शन के पश्चात ही भक्त और भगवान में जो भक्ति का सम्बंध स्थापित होगा, उससे हम लाभान्वित न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। उस पूर्ण के साथ हम अपूर्ण का सम्बंध होने पर वह सर्वसमर्थ परमात्मा हम अकिंचन को भी पूर्ण बना देता है। किन्तु उस परब्रह्म ईश्वर को पा कैसे सकते है? उसके बारे में विचार करेंगे..
ब्रह्मज्ञान क्या है?
ब्रह्मज्ञान का तात्पर्य एक ही है। वह है 'ब्रह्म का ज्ञान'। ब्रह्म शब्द 'बृह' धातु से निकला है, जिसका अर्थ होता है- All Pervading अर्थात् सर्वव्यापी, जिसका विस्तार सर्वत्व है। ज्ञान शब्द 'ज्ञा' धातु से निकला है, जिसका अर्थ होता है जानना। अतः उस सर्वव्यापी सत्ता - ब्रह्म को अपने घट के भीतर ही जानना, उसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करना- ब्रह्मज्ञान है।
'ब्रह्मविद्या' या 'ब्रह्मज्ञान'- अंतर्जगत का शिरोमणि विज्ञान है। आर्ष-ग्रंथों में इसे ही 'परा विद्या' कहकर संबोधित किया गया। गीता इसे 'राजयोग' कहती है। इसकी स्तुति में स्वयं योगीराज श्री कृष्ण का कथन है- 'यह राजविद्या है' अर्थात् सभी विद्याओं की राजेश्वरी या साम्राज्ञी है। पातंजल दर्शन ने इसे सर्वविषयक, सर्वथाविषयक, तारक ज्ञान का नाम दिया। वेदों का भी यही कहना है- ब्रह्मविद्याम् सर्वविद्याप्रतिष्ठाम्' अर्थात् ब्रह्मविद्या सभी विद्याओं की आधारशिला है। सभी ज्ञान-सरिताओं की स्त्रोत और पोषण करने वाली है। सभी विद्याएँ इसी में प्रतिष्ठित हैं।
ईश्वर को दिव्य दृष्टि द्वारा अपने भीतर ही देख लेना ब्रह्मज्ञान है। यह ज्ञान सदा से एक असाधारण विषय माना जाता रहा है। निःसंदेह, ब्रह्मज्ञान अथवा ईश्वर-दर्शन असाधारण ही है। परमात्मा को देखना कठिन नहीं है; कठिन है तो ऐसे सच्चे ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु का मिलना, जिसने स्वयं परमात्मा को प्राप्त किया ही हो और जिज्ञासुओं को भी तत्क्षण परमात्मा के दर्शन कराने की सामर्थ्य रखता हो। (गीता 4:34)
दीक्षा के समय , गुरु एक शवप्राय सूक्ष्म देह में शिवत्व का समावेश करते हैं- 'शिवशक्तिकरावेशाद् गुरुः शिष्यप्रबोधकः' - अपने चैतन्य शक्तिमय स्पर्श से शिष्य को जागृत करते हैं। उसके जड़ केन्द्रों में नवचेतना का संचार कर देते हैं। इसी के साथ उसके अंदर ब्रह्मज्ञान के प्रक्रिया का आरम्भ होता है।
जब जिज्ञासु एक पूर्ण गुरु के द्वारा दीक्षित होता है, तो उसे अपने अंतर्जगत में इन्द्रियातीत (इन्द्रियों से परे), दिव्य व अलौकिक अनुभुतियाँ होती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ब्रह्मज्ञान-दीक्षा की विधि व इसके द्वारा प्राप्त ये अनुभुतियाँ शास्त्र सम्मत होनी चाहिए। इन अनुभूतियों के विवरण को चार पदार्थों में बांटा गया है। रामचरित मानस अयोध्या-
श्री गुरु चरन सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायक फल चारि।।
- मैं उस गुरु की चरण रज को धारण करता हूँ, जो मेरे मन रूपी दर्पण को साफ कर दे। तब मैं प्रभु के निर्मल यश का गायन करूँगा, जो मुझे चार फल प्रदान कर देगा।
चारि पदारथ लै जगि जनमिआ सिव सकती घरि वासु धरे। (गुरुवाणी 1014)
जिस समय एक बच्चा माता के उदर में आता है तो उसे चार पदार्थों का ज्ञान होता है किन्तु जन्म के पश्चात् वह ज्ञान भूल जाता है। पूर्ण सद्गुरु की कृपा से उसे पुनः ज्ञान की प्राप्ति होती है।
आइए, अब इन चार पदार्थों पर विचार करते हैं-
ब्रह्मज्ञान का प्रथम चरण - 'प्रकाश'
हम जो दीपक मंदिरों में प्रज्वलित करते है, वह इसी प्रकाश की अभिव्यक्ति है। जिसे कोई बिना आँख वाला व्यक्ति भी देख सकता है। जो दिव्य नेत्र हमें शिव मूर्ति या दैवीय नेत्र के रूप में दिखाई देता है, वह इसी तृतीय दिव्य चक्षु का रूप है, जो प्रत्येक मनुष्य में होता हैं। ब्रह्मज्ञान की दीक्षा की प्रक्रिया में सद्गुरु एक शिष्य की दिव्य दृष्टि को खोलकर उसे अंतर्मुखी बना देते है। यह आंतरिक प्रकाश या दृश्य कोई साधरण नहीं हैं। ये साक्षात् परब्रह्म की बहुविध झांकी हैं। केवल प्रकाश ही नहीं, सकल ब्रह्माण्ड के रंग-बिरंगे नज़ारे भी, अद्भुत छटा लिए, उसके भीतरी पटल पर जगमगा उठते हैं। कबीर दास जी कहते हैं-
उलट समाना आप में, प्रकटी ज्योति अनंत।
स्वामी सेवक एक संग, खेलै सदा बसंत।।
- अंतर्जगत में ऋतुराज बसन्त मुस्कुराता है। सुन्दर-सुन्दर दृश्य खिलखिला कर छटा बिखेरते हैं। ऐसी बासंती बहार में स्वामी और सेवक हिल-मिल कर उत्सव मनाते हैं। आत्मा-परमात्मा एक दूजे में लीन-विलीन होकर आनंद करते हैं।
ऐसा ही गुरूवाणी में कहा है-
कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढि कढीजै।
राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढि लईजै।। (गुरवाणी-1/1323)
जिस प्रकार लकड़ी में आग छिपी हुई है जो युक्ति के द्वारा प्रकट होती है। ठीक उसी प्रकार सभी जीवों में प्रभु के नाम की ज्योति समाई हुई है। जरूरत है गुरु के द्वारा उस युक्ति को जानने की, जिसके हम परम् ज्योति (Divine Light) का दर्शन कर सकें। आज संसार में अनेक स्थानों पर जैसे मंदिर, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों में ज्योति जलाई जाती है क्यों? पंडित जी मंदिर में आरती उतारते हैं। आरती भगवान श्री राम की उतारें या श्री कृष्ण की या फिर माता की, परंतु थाली में एक ही ज्योति होती हैं। घर में भी भगवान की मूर्ति के सामने हम ज्योति जलाते हैं और उसके सामने नतमस्तक होते हैं। दोनों आँखे बंद करके प्रणाम करते हैं। प्रणाम करते समय आँखों का बंद होना मनुष्य के लिए संकेत है कि वह मूर्ति जिसके सामने हम शीश झुका रहे हैं, उसका वास्तविक स्वरूप एक ज्योति है जिसको इन बाह्य आँखों के द्वारा नहीं देखा जाता।
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है-
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्मतस: परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ।।
अर्थात् परमात्मा जो कि ज्योतियों की भी परम् ज्योति है जिसे अंधकार से परे कहा जाता है। वह परमात्मा ज्ञान (Divine Knowledge) के द्वारा ही जानने योग्य है। वह तत्त्व ज्ञान से प्राप्त किया जाता है और सभी के ह्रदय में स्थित है। वह ईश्वर तो सभी के ह्रदय में ही समाया हुआ है। इसीलिए हमें ज़रूरत है ऐसे ही पूर्ण सतगुरु (True Master) की जो हमारी अज्ञानता का अंधेरा ज्ञान से मिटाकर हमारे अन्तर्घट में उस परम प्रकाश को प्रकट कर दे।
ब्रह्मज्ञान का दूसरा चरण - 'अनहद नाद'
जो हम मंदिरों में घंटियाँ बजाते है, वह इसी अनहद नाद की अभिव्यक्ति है। जिसे कोई बहरा व्यक्ति भी सुन सकता है। जब आदिनाम सुषुम्ना में प्रवेश कर ऊपर की ओर उठता है, तो इस प्रक्रिया में अनहद नाद का प्रकटीकरण होता है। इससे पहले साधक इस नाद को सुन या प्राप्त नहीं कर सकता।
यह नाद वास्तव में दिव्यकोटी की ध्वनि-तरंगें (Sound Vibration) हैं। एक विशेष प्रकार की ध्वनि-ऊर्जा। इस नाद के प्रकट होते ही नाना सुर-लहरियाँ, राग-रागनियाँ शिष्य के अंतर्जगत में गूँजने लगती हैं-
बाजत अनहद बाँसुरी.... राग छत्तीसों होइ रहे, गरजत गगन गंभीर।
-मेघों की सी गड़गड़ाहट! घुँघरुओं और घंटियों की सी रूनन-झुनन! समुद्र की सी गर्जना! मृदंग, ढोल, नक्कारों का महानाद! बाँसुरी की सुरीली धुनें! वीणा की झंकारें! ये ध्वनियाँ तब ही सुनती हैं, जब सुषुम्ना नाड़ी में नाम-तरंग प्रवेश कर जाती है। निरंतर शुभ भावों से अभ्यास करने से उसे अग्निप्रेरित शब्द सुनाई देता है। यह बिना कानों के ही श्रवणीय है। कारण कि यह बाहरी नहीं, आंतरिक ध्वनि (Eternal Sound) है। अलौकिक नाद (Cosmic Brahmanad) को केवल Brahmgyan के इस वैज्ञानिक क्रम से ही अनुभव या श्रवण किया जा सकता है।
संगीत पद्धति चाहे कोई भी हो लेकिन आनंद संगीत में ही आता है। परंतु संसार में चाहे किसी भी पद्धति द्वारा संगीत सुनें उसकी एक सीमा है। कहीं न कहीं वह संगीत खत्म हो जाता है। संगीत दो प्रकार का बताया गया है। एक को 'आहत' नाद कहा जाता है और दूसरा 'अनहद' कहा जाता है। आहत नाद जो हमारे करताल अथवा फूँक आदि के द्वारा पैदा होता है जिसे हम घंटे, शंख, नगाड़े, मृदंग, बांसुरी इत्यादि के द्वारा प्रकट करते हैं। परंतु एक ऐसा संगीत भी है जिसे अनाहत कहा गया है। जिसे बजाया नहीं जाता, जो स्वतः अपने आप ही बजता है। लेकिन उस संगीत की प्राप्ति गुरु के द्वारा ही सम्भव है। उसके लिए गुरूवाणी में कहा गया है-
निरभउ कै घरि बजावहि तुर। अनहद बजहि सदा भरपूर। (गुरूवाणी-971)
उस प्रभु के घर में अर्थात् इस मानव शरीर में वह संगीत बज रहा है जो अनहद है। जिसकी कोई सीमा नहीं है, वही अनहद है।
ऋग्वेद में इस आवाज के बारे में कहा है कि-
ऋतस्य श्लोको बधिराततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः।। (ऋ.-4/23/8)
सत्य को जगाने वाली देदीप्यमान आवाज़ बहरे मनुष्य को भी सुनाई देती है। इसी प्रकार जैसे हम शिव के हाथों में डमरू देखते हैं, बिष्णु के हाथ में शंख और सरस्वती के हाथ में वीणा है। ये सब अंतर्जगत की ही वाणी का प्रतीक हैं जिसे अनहद नाद कहते हैं, अनहद वाणी कहते हैं। जरूरत है कि किस प्रकार हम भी उस वाणी को श्रवण कर अंतर्नाद को जान कर जीवन के संगीतमय आनंद में डूबकर परमानंद को जानें।
ब्रह्मज्ञान का तीसरा चरण - 'आदिनाम'
शास्त्रों में कहा गया है- जब एक शिशु माँ के गर्भ में होता है तो वह ईश्वर नाम सुमिरन का जाप करता है। तो विचार करने की बात यह है कि शिशु ने गर्भ में कौनसी भाषा सीख ली! या भीतर माला जाप करने के लिए भला कैसे पहुँच सकती है! और अगर सिर्फ बाहरी माला जपना ही ईश्वर का नाम जपना होता तो जिस व्यक्ति के पास हाथ नहीं है वह कैसे जपे!
हमारे भीतर तीन प्रमुख नाडियाँ होती हैं- इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। सुषुम्ना सबसे अधिक महिमावान व शिरोभाग (सिर के सबसे ऊँचे भाग) में स्थित ब्रह्मरंध्र से लेकर मेरुदण्ड के नुकीले अंत तक जाती है। सद्गुरु दीक्षा क्रम में इसी सुषुप्त नाड़ी सुषुम्ना ब्रह्मनाड़ी के आध्यात्मिक अन्तर्पथ को खोल जीवंत कर देते हैं। इसी क्रम में जागृत सुषुम्ना में ऊर्जा प्रविष्ट होती है। इसे ऋषियों ने 'आदिनाम' या 'वाक' कहा। गुरु साहिबानों ने इसे 'शब्द' या 'नाम' कहा, तो सूफी फकीरों ने 'कलमे इलाही' कहा। बाइबल ने इसे 'word' की संज्ञा दी, तो यूनानी तत्त्ववेत्ताओं ने 'लोगास' की। वही हिब्रू भाषा में 'मैमरा', अरिमीनी में 'एमर', चीनी में 'ताओ' कहलाया।
यह आदिनाम अव्यक्त है। जिव्हा से पुकारा नहीं जा सकता है। अध्यात्म जगत से संबंध रखने वाले अधिकतर लोग किसी विशेष मंत्र या प्रभु के किसी गुणवाचक नाम को ही 'शाश्वत नाम' समझ लेते है। पर लिखित और जीवित शास्त्रों (संत-सद्गुरुओं) के अनुसार प्रभु का असल नाम शब्दों से परे है। ईश्वर का सनातन नाम संसार की किसी भी वर्णमाला में नहीं गुंथा जा सकता। एक आदि कंपन है! अविनाशी स्पंदन है, जो हमारे प्राणों में सूक्ष्म रूप से समाया हुआ है। वेदों ने इसे 'प्राणस्य प्राणः' प्राणों का प्राण कहा है। शिवजी के हाथों में जो माला दिखाई पड़ती है, वह इसी आदिनाम सुमिरन की अभिव्यक्ति है।
संत चरणदास जी कहते है-
'घट में ऊँचा ध्यान शब्द का सोहं सोहं माला।'
अर्थात् अन्तर्घट में, श्वासों की माला में वह अव्यक्त नाम या शब्द समाया है।
जिसका न तो हम जाप करें, जिसका न हम जुबान के द्वारा उच्चारण करें बल्कि श्वास पर श्वास के साथ एक गमन करने वाली शक्ति मंत्र है, वही अजपा है वही नाम है। इन्हीं महापुरुषों की वाणी को जब हम समझ नहीं पाते है, तब उन्हें कहना पड़ता है; कबीरदास जी ने कहा-
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
मनुवा तो चहुँदिसि फिरै, ये तो सुमिरन नाहीं।।
मनुष्य हाथ में माला फेरते हुए जीभ से परमात्मा का नाम लेता है किंतु उसका मन चारों दिशाओं में भागता है। माला तो मन को नियंत्रित करने के लिए कर रहे थे पर वह तो सभी जगह भाग रहा है। वो कहाँ वश में है? ये सुमिरन नहीं हैं। यह नाम नहीं है। फिर क्या है नाम-सुमिरन? जिससे मन वश में आए। संतों की वाणी है-
सुमिरन सूरत लगाई कै, मुखते कछु न बोल।
बाहर के पट बंद कर, भीतर के पट खोल।।
तेरे बाहर के पट बंद हो जाए, तू सुमिरन ऐसा कर।
कबीर दास जी कहते है-
सतगुरु ऐसा कीजिए पड़े निशाने चोट।
सुमिरन ऐसा कीजिए जीभ हिले न होठ।।
सुमिरन वही करना है जिसे करने के लिए न जुबान हिलानी पड़े न ही होंठ।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।
भए नाम जपि जीव बिसोका।
(रा.च.मा.-1/27/1)
चारों युगों में, तीनों लोकों में और तीनों कालों में केवल नाम का सुमिरन करने से ही जीव शोक से रहित हो गए।
जब पूर्ण सतगुरु मिलते हैं तो उस अव्यक्त अक्षर को बता देते हैं जो मनुष्य के ह्रदय में पहले से ही रमा हुआ है। जब तक कण-कण में रमण करने वाले आदिनाम को नहीं जाना, तब तक चाहे कितने भी प्रयत्न कर लें हमारे लिए परमात्मा की प्राप्ति असंभव है। यह सूक्ष्म क्रिया भी केवल गुरु की कृपा से ही प्रकट होती है। अतः हमें जरूरत है ऐसे गुरु की जो हमें उस शाश्वत नाम का सुमिरन करवा दे।
ब्रह्मज्ञान का चौथा चरण-'अमृत'
सभी शास्त्रों में अमृत की चर्चा की गई है। जब भी हम धार्मिक स्थलों पर जाते हैं तो हमें अमृत की चर्चा मिलती है परंतु विचारणीय है कि किस प्रकार हम अमृत की प्राप्ति कर सकते हैं। आज संसार में अनेक प्रकार से अमृत पिलाया जा रहा है। मंदिर में पंडित जी चरणामृत देते हैं। गुरुद्वारों में अमृत छकाया जाता है आदि। परंतु जो अमृत हमारी जिह्वा से छूते ही अपवित्र हो जाए वह अमृत हमारे मन को पवित्र क्या करेगा? वास्तव में अमृत तो प्रत्येक प्राणी के हृदय में पहले से ही समाया हुआ है।
शिवलिंग पर कलश से बूँद-बूँद जल निरंतर बरसता रहता है। यह एक गूढ़ आध्यात्मिक मर्म को समेटे हुए है। हमारे सूक्ष्म जगत में सिर के ऊपरी भाग याने शिरोभाग में एक स्थल है, जिसे सहस्त्रार चक्र, ब्रह्मरंध्र या सहस्त्रदल कमल कहते हैं। अलग-अलग ग्रंथों में इसके लिए विभिन्न उपमाओं का प्रयोग किया गया है। कहीं पर इसे अमृत का कुँआ, उल्टा कमल, उल्टा घड़ा भी कहा गया है। जिसमें से एक धार या बूँद-बूँद कर अमृत टपकता है। कबीरदास जी कहते है-
गगन मंडल अमृत का कुआ तहाँ ब्रह्मा का वासा।
सगुरा होवे भर भर पीवे निगुरा मरत प्यासा।।
गगन में उल्टा कुँआ है, जहाँ वह परमात्मा स्वयं विराजमान है। अब यदि हम आकाश में खोजने लग जाएँ तो सारी जिंदगी नहीं मिलेगा कुँआ क्योंकि यहाँ सांसारिक कुएँ की नहीं बल्कि उस 'कुएँ' की बात की गई है जो शरीर के अंदर ही है। जो मनुष्य गुरु से ब्रह्मज्ञान की युक्ति लेते हैं, केवल वही जानते हैं कि किस प्रकार हम इस शरीर में ही अमृत की प्राप्ति कर सकते हैं। कबीर जी ने केवल इतना ही नहीं कहा कि वहाँ अमृत का कुँआ है वरन यह भी कहा है कि वहाँ ब्रह्म का वास भी है अर्थात् प्रभु के दर्शनों की भी प्राप्ति होगी।
उपनिषद् में इस स्थल की स्पष्ट व्याख्या की गई है-
अब्जपत्रमधः पुष्पमुर्ध्वनालमधोमुखम्।
अर्थात् ऊपर की ओर नाल वाला तथा अधोभाग (नीचे) की ओर मुख किए पुष्पित एक कमल ब्रह्मरंध्र में स्थित है।
एक अन्य सरस वाणी में संत दरिया ने गाया- 'बुन्द अखंडा सो ब्रह्मंडा' - हमारे सिर में व्याप्त अन्तर्गगन या ब्रह्माण्ड से निरंतर, अखण्ड रूप में अमृत की बूँदे टपकती रहती हैं।
पर इस अमृत की अनुभूति केवल ब्रह्मज्ञान की दीक्षा और उसकी साधना के द्वारा ही की जा सकती है। अमृत का यह रसमय पान ही जीवात्मा की जन्म,-जन्मांतर की प्यास बुझाता है।
चार पदार्थों का वर्णन हमें कई स्थानों पर मिलता है परंतु वे चार पदार्थ कौन-से हैं इससे हम अनभिज्ञ हैं। चार पदार्थों के बारे में कहा है-
चारि पदारथ लै जगि जनमिया सिव सकती घरि वासु धरे। (गुरूवाणी-1/1013)
संसार में जब जन्म लिया तो चारों पदार्थों को साथ लेकर आए तो विचार करना है कि क्या धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को साथ लाए हैं? वे कौन से चार पदार्थ हैं जिन्हें लेकर संसार में जन्म लिया है। और यदि धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष को ही हम चार पदार्थ मान लें तो इसका भाव है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हमारे साथ ही आए हैं। लेकिन फिर इनकी प्राप्ति के लिए क्यों कहा है कि-
सतिगुरु कै वसि चारि पदारथ। तीनि समाए एक क्रितारथ। (गुरूवाणी-1/1345)
चारों पदार्थ सतगुरु के वश में हैं। जब यदि हम चारों पदार्थ साथ लेकर आए हैं तो वे सतगुरु के पास कैसे हैं? यही जानना है कि वे चारों पदार्थ वास्तव में कौन से हैं जिन्हें मीरा ने कहा-
गली तो चारों बंद हुई, मैं हरि से मिलु कैसे जाय।
गलियाँ तो चारों ही बंद पड़ी हैं, मैं प्रभु से कैसे मिलूँ?
वास्तव में, ये तो- अभिव्यक्तिकराणि योगे - पूर्ण योग (ब्रह्मज्ञान) के सूचक और लक्षण हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि वहाँ प्रभु प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी को 'चतुष्पदी भागवत' का ज्ञान प्रदान किया। बौद्ध धर्म में महात्मा गौतम बुद्ध ने जिन्हें 'चार आर्य सत्य' कहा है एवं महावीर ने जिन्हें 'चार घाट' कहा है इस प्रकार ये कौन-सी चार उपलब्धियाँ हैं जिनकी चर्चा संत, महापुरुषों, ऋषि, गुरु, अवतारों ने अपनी वाणी में की है। ज़रूरत है इन्हें जानने की और इन चारों क्रियाओं का बोध करने के लिए जरूरत है सतगुरु की शरण में जाने की। सभी धार्मिक ग्रंथ भी चार पदार्थों की महिमा गाते है। इन मुक्ति प्रदान करने वाले चारों पदार्थों को भक्त गुरु कृपा से ही प्राप्त कर पाते हैं इसलिए हमें ज़रूरत है ऐसे सतगुरु की जो हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान कर चार पदार्थों का बोध करवा दें।
This article has provided some spiritual contents. In the present society, we can find numerous spiritual masters. All of them like to declare themselves as "Sadguru" or "Purna Guru". They, without any hesitation, claim that only she/he has copyright to initiate "Brahma Gyan" (Remaining others are cheaters). How doe we layman know the form of "Brahma Gyan" and recognize "Purna Guru"? Please, clear me.
The best article representing True-Defination of Real Bhakti.I really feel good after reading it.