यान-विमानों की वैदिक इंजीनियरिंग djjs blog

निःसन्देह, वर्तमान वैज्ञानिकों द्वारा किए जा रहे आविष्कार तो हजारों वर्ष पूर्व ही भारतीय ऋषियों द्वारा सम्पन्न कर दिए गए थे। परन्तु इस तथ्य से बुद्धिजीवियों व वैज्ञानिक मस्तिष्कों के भीतर एक दुविधा जन्म ले लेती है- ‘आखिर क्यों हमेशा आधुनिक आविष्कार होने के पश्चात ही वैदिक साहित्यकार वेदों से मन्त्रों को निकालकर जबरन उस आविष्कार से जोड़ देते हैं तथा अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन करते हैं?’ बुद्धिजीवियों की इसी दुविधा को समाप्त करने हेतु इस खंड में हम ऋग्वेद व स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित ऋग्वेदादिभाष्य से वैदिक कालीन यातायात के सूत्र लेकर आए हैं। स्वामी जी के इस ऋग्वेदादिभाष्य में इन उत्कृष्ट विमानों का उद्घाटन उस समय कर दिया गया था, जब ऐसे विमानों का आविष्कार आधुनिक जगत ने नहीं किया था।

आधुनिक जगत में प्रचलित है कि पहला हवाई जहाज अमरीकी ऑरविल राइट ने 17 दिसम्बर, 1903 को उड़ाया था। यह मात्र 12 सैकेण्ड की ही उड़ान थी, जिसे प्रयोग के तौर पर किया गया। उसके बाद, उसी दिन, ऑरविल के भाई विल्बर राइट ने 59 सैकेण्ड की उड़ान भरी। यह भी प्रयोग की तरह ही था। परन्तु यदि प्रथम सफल हैलीकॉप्टर की बात करें, तो वह सन् 1940 में, अमरीका में, वैज्ञानिक आइगर सिकोरस्की द्वारा बनाया गया। इसके भी कई वर्ष उपरान्त ही ऐसा विमान आकार में आ सका, जिसके अंतर्गत सुविधा से यात्रियों तथा सामान को एक स्थान से दूसरे पर ले जाया जा सके।

 

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दूसरी ओर, यदि हम वैदिक काल का अवलोकन करें, तो वहाँ हजारों वर्ष पूर्व ही ऐसे सफल विमान विद्यमान थे। दयानंद सरस्वती जी ने आधुनिक विमान की प्रथम उड़ान से 28 वर्ष पूर्व ही, सन् 1875 में, पूना नगर में, अपने भाषण में, वेदों में निहित विमान विद्या का रहस्योद्घाटन कर दिया था। इसी के एक वर्ष बाद, सन् 1876 में, दयानंद सरस्वती जी ने ऋग्वेद का भाष्य लिखा, जो कि ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के नाम से प्रचलित है। इस भाष्य के अनेक मन्त्रों में उन्होंने यातायात विद्या का पूर्ण विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने इस भाष्य में बताया है कि वैदिक काल में ‘नौविमानादि’ विद्या का प्रचलन था, जिसमें ‘नौ’ का अर्थ है- पानी की सतह पर व पानी में डूबकर चलने वाले जलपोत, पनडुब्बियाँ इत्यादि; ‘विमान’ अर्थात व्योम-आकाश में उड़ने वाले हवाई जहाज इत्यादि; ‘आदि’ का भाव भूमि पर चलने वाली रेलगाड़ी, मोटरगाड़ी, ट्रक, ट्रेक्टर इत्यादि। ‘आदि’ का भाव उन यंत्रों से भी है, जो तेल, गैस, सूर्य-ताप, पानी की भाप से चलते थे। इन त्रिविध प्रकार के यातायात के साधनों का वर्णन वेदों में निहित है और दयानंद सरस्वती जी ने अपने भाष्य के अंतर्गत इनको उजागर किया है।

ऋग्वेदादि के भाष्यों में उन्नत विमानों का वर्णन पढ़कर ऐसा लगता है, मानो आधुनिक विज्ञान उन्नति की पहली सीढ़ी ही चढ़ पाया है। ऋग्वेद के वर्णनानुसार अश्विनी देवों के पास एक ऐसा यान था जो द्युलोक और पृथ्वी दोनों जगह, चारों ओर भ्रमण कर सकता था- रथो ह वाम्... परि द्यावापृथिवी याति सद्यः। (3-58-8) इसी अद्भुत विमान में बैठकर उन्होंने एक बार एक व्यापारी का उद्धार किया था। ऋग्वेद के कई मन्त्रों में इस कथा का उल्लेख मिलता है। एक बार एक व्यापारी का बेड़ा गहरे समुद्र के बीच टूट गया। वह असहाय होकर अश्विनी देवों से अपने प्राणों की रक्षा हेतु प्रार्थना करने लगा। तब अश्विनी कुमार तीव्र गति से उड़ने वाले विमानों में यात्रा करके उस दुर्घटना स्थल पर पहुँचे और व्यापारी को डूबने से बचा लिया। इनके द्वारा प्रयोग किए गए विमानों का बड़ा ही सुन्दर एवं विस्तृत वर्णन मन्त्रों में मिलता है। इनमें छह अश्व शक्ति (षड्अश्वैः - Horse Power) वाले इन्जन लगे हुए थे। इन आकाशगामी विमानों पर पानी का कोई असर नहीं होता था- अपोदकाभिः। इनमें सौ-सौ पहिये (शतपद्भिः) लगे हुए थे।

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केवल यही नहीं, उस समय के आकाश मण्डल में तो अनेक प्रकार के अद्वितीय विमान विचरण किया करते थे। यह तथ्य प्राचीन ग्रन्थों के अनेक पृष्ठों में झलकता दिखाई देता है। उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद के इन मन्त्रों को ही लें- त्रिबन्धुरेण त्रिवृता रथेन, त्रिचक्रेण… (1-118-2), अनेनो वो मरुतो चामो अस्तु… (6-66-7)। अब ज़रा इनके शब्दार्थों पर ध्यान दें। त्रिबन्धुरेण- तीन सीट वाला, त्रिवृता- त्रिकोण आकार का, त्रिचक्रेण-तीन पहियों वाला। इनमें कोई घोड़ा नहीं होता था; अरथी- कोई चालक भी नहीं होता था; अनवस्- बिना रुके चलता था; रजस्तुः - आकाश में उड़ा करता था। क्या इस रूपरेखा से साफ जाहिर नहीं होता कि यहाँ एक स्वचालित वायुयान की चर्चा हो रही है? ऋग्वेद के मधुवाहनः’ और कुछ नहीं, आज की विशेष सुविधा सम्पन्न Deluxe Airbuses हैं। मरुतदेवों के स्वचालित अन्तरिक्षगामी यान’ Automatic  Airbuses हैं तो दिव्य रथ’ आधुनिक जगत के Airships हैं। ऋषि भारद्वाज ने अपनी पुस्तक ‘अंशु बोधिनी’ में विमान सम्बन्धी और भी अनेक रोचक तथ्यों को उजागर किया है। वे बताते हैं कि उस काल में विमान-चालन के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के ईंधन प्रयोग में लाए जाते थे। जहाँ शुक्तुद्गम यान’- बिजली से चला करता था; वहीं अंशुवाह यान’- सौर ऊर्जा से उड़ने वाला एक Solar विमान था। ‘तारामुख यान’ चुम्बकीय आकर्षण से उड़ा करता था, तो भूतवाह’ का ईंधन अग्नि, वायु और जल हुआ करता था। धूमयान’ वाष्प के बल पर उड़ता था, तो शिखोदग्म’ की उड़ान का आधार पंचशिखी का तेल था।

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विमानों की इस अद्भुत श्रृंखला का अन्त यहाँ ही नहीं होता। इन सभी विमानों का सिरमौर और उस काल का उत्तम आकर्षण तो एक ऐसा विमान था जो मन द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता था - यो मर्त्यस्य मनसो जवीयान्। (ऋग्वेद 1-118-1) यह विमान इतना संवेदनशील होता था कि मन की सूक्ष्मतम विचार-तरंगों के आधार पर अपनी दिशा व गति बदल सकता था। त्रेता युग का पुष्पक विमान’ इसी की एक मिसाल है। प्रभु श्रीराम माता जानकी, लक्ष्मण व वानरों सहित इसी विमान में बैठकर, मन की गति से अयोध्या वापिस लौटे थे। राम-रावण युद्ध के दौरान भी अनेक विमानों का प्रयोग किया गया था। लंकाकाण्ड (80/1) के बहुत से दोहे इस तथ्य का प्रमाण देते हैं।

सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना।
देखत रन नभ चढे़ बिमाना।।

अर्थात् ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि सभी विमानों पर चढ़कर नभ से सम्पूर्ण युद्ध का दृश्य देख रहे थे। ऐसा था हमारा महिमावान अतीत!