वह केवल 7 साल का बच्चा था। पिता ने उसे भारत से दूर इंग्लैंड भेज दिया। इस कड़ी हिदायत के साथ कि इसकी तालीम और लालन-पोषण बिल्कुल फिरंगी तौर-तरीकों से होना चाहिए। भारत या भारतीयता की हल्की-सी हवा तक इसे नहीं छूनी चाहिए। अपनी मातृभूमि, अपने भारत, अपनी जड़ों, संस्कारों और परिवार से कोसों दूर यह बच्चा 14 सालों तक पला-बढ़ा। सिर्फ और सिर्फ पाश्चात्यता के सांचे में ढला और बना। 7-7 विदेशी भाषाओं में माहिर यह भारतीय नौजवान अपने देश की एक भी भाषा बोलना नहीं जानता था। दिल से पक्का नास्तिक, ईश्वर और उसकी सत्ता को सिरे से नकारने वाला- ऐसा पनपा था यह भारतीय अंग्रेज। खुद उसी के शब्द थे- ‘The agnostic was in me, the atheist was in me, the sceptic was in me and I was not absolutely sure that there was a God at all. मेरे अंदर एक अज्ञेयवादी था, एक नास्तिक था, एक संशयवादी था और मुझे हमेशा शक रहता था कि भगवान नाम की कोई चीज इस संसार में है भी कि नहीं!
उपहार की पहली किश्त
लेकिन फिर सन् 1893 की वह शुभ घड़ी आई... बेटा अपनी माँ भारती की गोद में वापिस लौट आया। मुंबई के अपोलो बंदरगाह का वह तट... जहाज ने आखिरी हांफ भरी और उसमें से यह 21 साल का अंग्रेजियत में रंगा भारतीय नौजवान उतरा। जैसे ही उसने इस पुणयभूमि पर कदम रखा, माँ भारती उसके लिए दोनों हाथों में उपहार लिए खड़ी थी। यह उपहार था- दिव्य आभा और शांति का! स्वयं इस नौजवान ने बताया- ‘यूरोप में रहते हुए मुझ पर हमेशा एक भारीपन, काले बादलों की एक चादर ढकी रहती थी। लेकिन जैसे ही भारत के अपोलो बंदर तट पर उतरा, ऐसा लगा कि प्रकाश और शांति की घटाएँ उमड़-घुमड़ कर मुझ पर छाने लगी हैं और उन्होंने मुझे चारों ओर से घेर लिया है।’
यह तो माँ भारती के उपहार की पहली किश्त थी। अभी तो कई अनूठी किश्तें भारत ने उपहारस्वरूप इस नौजवान के लिए संजो कर रखी थीं। जो समय आने पर उसके हाथों में सौंपी जानी थीं। अब आपके लिए कलई खोल ही देते हैं। यह भारतीय अंग्रेज नौजवान कोई और नहीं, ये थे- अरविंद घोष- भारतीय स्वतंत्राता संग्राम के संत-सेनानी।
उपहार की दूसरी किश्त
इसके बाद अरविंद घोष भारत के बड़ोदा नामक शहर में पहुँचे। आँखों पर अब भी यूरोपियन रंग का चश्मा था। एक नौकरी के सिलसिले में यहाँ आए थे। पर नहीं जानते थे कि यहाँ माँ भारती उनके लिए उपहार की दूसरी किश्त लिए खड़ी है। यह किश्त है- उसके आर्ष शास्त्रा-ग्रंथ और साहित्य। श्री अरविंद ने यहाँ हिन्दी, संस्कृत, गुजराती, मराठी और बंगाली- भारतीय भाषाएँ सीखीं और इनके विराट साहित्य में डुबकियाँ लगाने लगे। कहा जाता है, मुंबई के दो किताबघरों से क्रेट भर-भर के उनके लिए भारतीय ग्रंथ आया करते थे। मिट्टी तेल के लालटेन में, डंकदार मच्छरों की कॉलोनी में बैठकर वे रात-रात भर इन ग्रंथों का अध्ययन करते। इस तरह भारत के इस लाल ने अपनी माँ की गोद में छिपे बेशकीमती साहित्य रत्नों- वेद, रामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद, पुराणों की चमक देख ली। थोड़ी बहुत नहीं, भरपूर रूप से देख ली।
इस चमक को देखने के बाद उन्होंने जो निचोड़ निकाला, वह कई महत्त्वपूर्ण सवालों को जन्म दे गया। बेहतरीन तो यह होगा कि यह निचोड़ और ये सवाल शास्त्रा-ग्रंथ पढ़ने वाले हर जिज्ञासु में उठें। श्री अरविंद ने ग्रंथों को पढ़कर यही सोचा कि इसका मतलब इस ब्रह्माण्ड में भगवान या अवतार जैसी कोई सत्ता जरूर है। और ग्रंथों के प्रमाण से यह भी पता चलता है कि इस सत्ता का अनुभव किया जा सकता है। उसका साक्षात्कार पाना संभव है। परन्तु कैसे? किस तरह मैं ईश्वर का दर्शन पाऊँ?- यही अनूठे सवाल श्री अरविंद के जिज्ञासु मन ने उठाए। और केवल सवाल नहीं उठाए, वे पूरी तबीयत, सच्ची लगन और निष्ठा के साथ उनका हल खोजने के लिए भी जुट गए।
मेरे पागलपन
इसका सबूत उनके द्वारा लिखी एक चिट्ठी से भी मिलता है, जो उन्होंने 30 अगस्त, 1905 को अपनी पत्नी को लिखी थी। उन्होंने लिखा था- ‘मेरे तो तीन पागलपन हैं। पहला- मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि जो भी सद्गुण, प्रतिभा, उच्च शिक्षा, ज्ञान और धन ईश्वर ने मुझे दिया है, वह सब उसी का है। दूसरा पागलपन मेरे ऊपर अभी हाल ही में सवार हुआ है। वह है कि मुझे चाहे कोई भी उपाय करना पड़े, पर भगवान की प्रत्यक्ष अनुभूति मैं करूँगा ही करूँगा। मैं देख रहा हूँ कि आज धर्म बस इसमें रह गया है कि जब-तब भगवान का नाम जप लें, सबके सामने उसकी स्तुति-पूजा किया करें, सबको दिखाएँ कि हम भगवान के कितने बड़े भक्त हैं। मुझे यह सब नहीं चाहिए। भगवान यदि है, तो कोई-न-कोई उपाय अवश्य होगा, जिससे उसकी सत्ता की, उसके होने की अनुभूति की जा सके। जिससे उसकी विद्यमानता को प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सके! साक्षात्कार का वह मार्ग कितना भी दुर्लभ क्यों न हो, मैं संकल्प कर चुका हूँ कि उसका अनुसरण मुझे करना ही है। हिन्दू धर्म का दावा है कि वह मार्ग हमें अपने अंदर, अपने ही भीतर मिलेगा।... और वह नियम जिसके सहारे उस तक पहुँचा जा सकता है, मेरे लिए भी खुला है...’
चिंगारी लग चुकी थी। श्री अरविंद उस नियम की खोज में थे, जो उन्हें उनके भीतर ही ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति करा सके। ग्रंथों में उन्होंने जगह-जगह पढ़ा था कि हर साधक या जिज्ञासु को दिव्यता का अनुभव हमेशा किसी दृष्टि, संत या सद्गुरु ने ही कराया है। इसलिए इस समय श्री अरविंद ने एक और बहुत उम्दा बात सोची, जो उनके साहित्य में पढ़ने को मिलती है- ‘आध्यात्मिक और सांसारिक जीवन में अगर परस्पर कहीं विरोध है, तो उस खाई को पाटने, उस विरोध में तालमेल बिठाने के लिए पूर्ण योग के संत यहाँ पृथ्वी पर जरूर उतरते होंगे। अगर इस पृथ्वी पर विषय भोग और असुर का राज्य है, तो इसलिए और भी जरूरी हो जाता है कि धरती पर भगवान का, आत्मा का राज्य स्थापित करने के लिए अमर देवपुत्रा यहाँ मौजूद हों। यह जीवन अगर अज्ञानता से भरा है, तब तो कोटि-कोटि आत्माओं तक दिव्य ज्ञान की ज्योति पहुँचाना बहुत जरूरी हो जाता है और इस दिव्य ज्ञान को देने एक दिव्यात्मा का आना और भी आवश्यक बन जाता है।’
उपहार की तीसरी किश्त
श्री अरविंद में इस दिव्य ज्ञान और दिव्यात्मा संतपुरुष के बारे में मंथन चल ही रहा था कि... भारत ने अपने उपहार की तीसरी किश्त उनके सामने रखी। माँ भारती ने अपना एक योगी रत्न उन्हें उपलब्ध् कराया। उन योगी श्री का नाम था- विष्णु प्रभाकर लेले। दिसम्बर, 1907 के वे तीन अलौकिक दिन सचमुच ऐतिहासिक थे, जिनमें श्री अरविंद परमयोगी लेले जी के साथ एक कक्ष में बंद रहे। योगी श्री ने अरविंद जी को अंतर्जगत की योग-साधना में दीक्षित किया। उनके भीतर का कपाट खोल दिया और उनसे माथे के बीचोंबीच- ‘आज्ञाचक्र’ पर ध्यान एकाग्र करने को कहा। श्री अरविंद ने तर्क रखा- ‘भीतर विचारों का झंझावात है। यहाँ ध्यान कैसे लगाऊँ?’ तब योगी श्री लेले ने एक कांच का नुकीला टुकड़ा उठाया और अरविंद जी की त्रिकुटी पर टिका दिया। फिर बोले- ‘जैसा कहता हूँ, वैसा करो। कहा न, यहाँ ध्यान लगाओ। अब तुम्हारी अंतर्दृष्टि खुल चुकी है। इसलिए ध्यान लगाने पर तुम पाओगे कि ये तमाम विचार, जो तुम्हें अपने भीतर से उठते लगते हैं, दरअसल कहीं बाहर से प्रवेश कर रहे हैं। तब तुम इन्हें अंदर आने से पहले ही बाहर झटक पाओगे।’ श्री अरविंद ने निर्देश का पालन किया और ऐसा ही पाया। ध्यान एकाग्र करते ही, वे एक परम शांत, अचंचल, निर्विचार अंतर्जगत में प्रवेश कर गए।
श्री अरविंद स्वयं बताते हैं- ‘मेरे अंदर बहुत शक्तिशाली और ओजस्वी अनुभूतियों की एक शृंखला शुरु हो गई। मेरी चेतना में अपूर्व प्रकाश भर गया। वे ऐसी अनुभूतियाँ थीं, जिनकी मैंने कभी कल्पना भी न की थी... और जो मेरे निजी विचारों से भी बिल्कुल हटके थीं। मुझे अपनी आत्मा के विराट मंडल में अपना शरीर एक घूमती हुई सीपी जैसा अनुभव हो रहा था। अनेक-अनेक अलौकिक दृश्य भी प्रकट और अप्रकट हो रहे थे... इन सभी अनुभूतियों ने मुझे स्पष्ट दिखा दिया कि यह संसार परब्रह्म की सर्वव्यापकता में चलचित्रा की आकृतियों जैसा है... मेरे अंदर ही उस सत्यपुरुष सत्ता का भरपूर निवास है।’
सर्वोत्तम उपहार
इस तरह उन तीन दिनों में योगी श्री लेले जी ने श्री अरविंद को ब्रह्मज्ञान में दीक्षित कर अंतर्जगत का प्रकट दर्शन करा दिया। विदाई लेते हुए लेले जी ने कहा- ‘अरविंद, अब इस बोधनुभूति को तुम्हें चरम और पूर्णता तक अपने पुरुषार्थ, अपनी साधना से ही पहुँचाना है।’ भारत ने अपना सर्वोत्तम उपहार श्री अरविंद को सौंप दिया था। वह था- ईश्वर की प्रत्यक्ष-अनुभूति! साक्षात् दर्शन! समय-समय पर ये अनुभूतियाँ श्री अरविंद को भारत में हुईं। कुछ उदाहरण उन्हीं की भाषा में-
‘उन दिनों मैं चंदोद के पास कर्नाली गया हुआ था। वहाँ देवी-देवताओं के अनेक मंदिर और तीर्थ-स्थल हैं। एक मंदिर माँ काली का भी है। सच कहूँ तो, तब भी मेरे मन-बुद्धि पर बहुत से यूरोपियन प्रभाव बने हुए थे। इसलिए देवी-देवताओं पर मुझे ज्यादा आस्था-वास्था नहीं थी। काली मंदिर में मैं माँ की भव्य मूर्ति, उसकी निर्माण कला देखने गया था। लेकिन यह क्या! ...सहसा मैं हतप्रभ रह गया। क्योंकि मेरे सामने मूर्ति नहीं, साक्षात् जीती-जागती माँ भगवती प्रकट दशा में खड़ी थीं और वे सीध मेरी आँखों में देख रही थीं। ...सच! यह अनुभूति बहुत ही भव्य और बहुत ही साकार थी।’
‘मैं कश्मीर की यात्रा पर था। वहाँ एक दिन मैं शंकराचार्य जी की पहाड़ी पर पहुँचा, जिसे ‘तख्त-ए-सुलेमान’ भी कहा जाता है। पहाड़ी पर पहुँचते ही मुझे अनंत प्रकाश और उसमें शून्यता के आनंद का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ।’ अपने इस अनूठे अनुभव को श्री अरविंद ने अपनी ‘अद्वैत’ नाम की कविता में लिखा भी है-
मैं चला विचरा ऊँचे चढ़ता सुलेमान के तख्त पर
जहाँ खड़ा टक बांधे शंकराचार्य का वह लघु मंदिर
काल-छोर से पसरी अनन्तता सम्मुख, वह एकाकी
धरती के निष्फल प्रण्य-साक्ष्य उस उत्थान शून्य शिखर पर
था चतुर्दिक व्याप्त मेरे परम एकान्त अरूप अकाम
बन गया सब दृश्यमान विलक्षण नामहीन एक अनाम।
कालकोठरी बनी ऋषि की गुफा
श्री अरविंद की अंतर्जगत की साधना बढ़ती गई। जैसा कि उनके गुरुदेव श्री लेले जी ने कहा था कि तुम्हें अपने पुरुषार्थ के बल पर अपनी अनुभूतियों को पूर्णता की ओर ले जाना है, श्री अरविंद पूरे मनोयोग से उसी लक्ष्य के लिए जुट गए। इन्हीं दिनों, स्वतंत्राता संग्रामी होने के नाते उन पर अलीपुर बम कांड का केस चलाया गया, जिसके तहत उन्हें अलीपुर जेल में एक साल के लिए बंद कर दिया गया। नीरव सी, एकांत कोने में बनी एक कोठरी थी वह, जहाँ श्री अरविंद को अकेले कैद किया गया था। पास में कोई नहीं था। करने को भी कुछ नहीं था। देखने को सिर्फ पथरीली, आड़ी-टेढ़ी काली दीवारें थीं। सलाखों से बाहर झांकने पर भी वही पथरीली दीवारें और बस एक पेड़ दिखाई देता था। इस घोर अकेलेपन का भी अरविंद ने भरपूर लाभ उठाया। उनके भीतर का साधक विचलित नहीं हुआ। उसने इस जेल की काल-कोठरी को एक ऋषि की गुफा बना दिया। अपने गुरु की आज्ञानुसार उन्होंने यहाँ प्रचण्ड साधना की। पूरे-पूरे दिन ध्यान किया। सिर्फ शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए उठते। बाकी का सारा समय उन्होंने आंतरिक संधान को समर्पित कर दिया।
जब साधक इतनी तेज गति से चल रहा हो, तो साध्य पीछे कैसे रह सकते थे? परिणाम यह निकला कि श्री अरविंद को अपने बंदीकाल में अनुपम से भी अनुपम दिव्यानुभूतियाँ हुईं। प्रभु अपने वैभव और ऐश्वर्य को उनसे छिपा नहीं पाए। उनके लिए जर्रे-जर्रे में प्रकट हो गए! सुनिए, श्री अरविंद के अनुभव उन्हीं के शब्दों में- ‘उस दिन मेरा मन थोड़ा सा विचलित हो गया था। मुझ पर हत्याओं और आतंककारी घटनाओं के कई अभियोग चला दिए गए थे। मैं मन-ही-मन अपनी आंतरिक परम-सत्ता से सवाल पूछ रहा था कि- मालिक, आखिर तेरी मर्जी क्या है? इसी सवाल को लिए हुए मैं पुलिस की नाकाबंदी में जेल से अदालत पहुँचा। मुझे जज के सामने एक लौह कठघरे में बंद कर दिया गया। तभी... एकाएक मेरी दृष्टि गहरी होती चली गई। एक अंतरानुभूति मुझ पर छाने लगी। साथ ही, अंदर से एक दिव्य आवाज गूँजी, जिसने मुझसे कहा- जब तुझ पर अभियोग चले, तब तेरा दिल बैठ गया था न और तूने मुझे पुकारा था कि हे प्रभु, कहाँ गई तेरी रक्षा? अब देख- और तभी मैंने देखा कि मेरे सामने मजिस्ट्रेट नहीं थे। उनके स्थान पर स्वयं प्रभु वासुदेव बैठे थे। नारायण स्वयं न्यायासन पर आसीन थे। फिर मैंने सरकारी वकील की तरफ निगाह घुमाई। पर दावा ठोकने वाला वकील भी वहाँ दिखा ही नहीं। वहाँ तो श्री कृष्ण बैठे मुस्कुरा रहे थे... और अचानक फिर से वही आवाज गूँजी- अब भी तुझे डर लगता है? मेरी सत्ता हर मनुष्य के अंदर मौजूद है। उनके हर कार्य और उनकी वाणी पर मेरा पूरा अधिकार है। यह सच्ची वाणी थी, क्योंकि सचमुच ही भगवान अपनी दुनिया से बाहर नहीं है। उसने दुनिया ‘बनाई’ नहीं, वह स्वयं दुनिया बन गया...
...इस अंतर्दृष्टि का चमत्कार मैंने जेल के अंदर भी देखा। मेरी नजर जब भी जेल में कैद चोर, डाकुओं, ठगों या हत्यारों पर जाती, तो उनमें भी मुझे साक्षात् भगवान वासुदेव के दर्शन होते! हाँ, अंधेरे में सड़ती हुई उन जीवात्माओं में भी नारायण का ही साक्षात्कार होता।’
जेल का वह एक साल, अनवरत साधना और ईश्वरानुभूतियाँ- इन सबका परिणाम यह हुआ कि श्री अरविंद योगिराज महर्षि अरविंद बन गए। जेल से रिहा होने के बाद श्री अरविंद ने हँसते हुए कहा था- 'I have spoken of a year's imprisonment. The only result of the wrath of the British Government was that I found God.’ मैंने आपको बंदीकाल के उस एक साल के बारे में बताया। अंग्रेजी सरकार के उस अत्याचार का यह परिणाम निकला कि मुझे भगवान मिल गए।
इस तरह अपने अद्वितीय उपहार की एक-एक किश्त देकर भारत ने श्री अरविंद को भगवान से पूर्णरूपेण मिला दिया। आज समाज की अक्सर यह धरणा है कि ईश्वर सिर्फ मानने और अहसास करने का विषय है। उसका दर्शन या साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन यह सोच सरासर गलत है। यह सोच दर्शाती है कि हमें भारत की सनातन परम्परा के बारे में कुछ नहीं पता। भारत ने हमेशा हर सच्चे जिज्ञासु को शाश्वत उपहार के रूप में यही दिया- साक्षात् ईश्वर! उनका प्रत्यक्ष दर्शन या अनुभूति! माँ भारती ने ईश्वर-पिपासुओं को कभी ईश्वर की कथा-कहानियों, कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ या मान्यताओं तक सीमित नहीं रखा। उसने सदा ईश्वर को ‘देखने’, ‘जानने’, उनकी प्रत्यक्ष दर्शनानुभूति करने के लिए प्रोत्साहित किया और उसका साधन ‘आत्मज्ञान’ या ‘ब्रह्मज्ञान’ अपने संत-सद्गुरुओं के जरिए साधकों को प्रदान किया।
आज घोर कलिकाल में भी भारत अपने इस दायित्व से पीछे नहीं हटा है। श्री गुरु आशुतोष महाराज जी भारत की उसी परम्परा का वहन कर रहे हैं। उनके पावन सान्निध्य में पहुँचकर विश्व के लाखों जिज्ञासुओं ने ‘ब्रह्मज्ञान’- भारत का शाश्वत उपहार पाया है। ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन और अंतर्जगत की अनुपम अनुभूतियाँ प्राप्त की हैं। यह उपहार आपके लिए, सबके लिए है। जिज्ञासु बनकर हाथ बढ़ाइए और ले लीजिए, यह ‘भारत का उपहार!’
Jmj ki all of you Really great .....
मुझे तो ये ही कहना Jmjk Ashutoshmaha Raj ji Great सभी दीक्षा लेनी चाहिए Mandir Gurdwara Church Masjid मैं हर जगह को मानता था ? लेकिन Djjs से मिला तो अब मैं जान गया हूँ जै श्री आशुतोष महाराज जी की
mai bhagyasali hu ki bharat bhoomi ki is pavan dhra par maine gurudev shri ashutosh maharaj ji ki dya se usi bhramgyan ko prapt kiya , aur us isvaar ke darshan kiye...........thanks maharaj ji
jmjk..... shri Ashutosh Maharaj ji is my 'GOD';
Dur ho jatte hai Hr gaam nit nitranter dhyaan Se , Jakhm Hr bhr hi jatta nit Puran Guru ke Gyan Se
सर्व श्री आशुतोष महाराज जी ने मुझे २४/११/१९९८ को ज्ञान-दिक्षा प्रदान कर , मुझ अबोध को अपना लिया। पारिवारिक संस्कारों,एवं प्रारबध के कारण मन में भगवान के प्रति आकर्षण तो था परन्तु धार्मिक आडंबरों एवं पुजा के अवैज्ञानिक तौरतरिको को देख, अध्यात्म के प्रति वितृषक्षा थी ।दया करके गुरुदेव ने ज्ञानदीक्षा प्रदान की और परमात्मा के प्रकाश का प्रत्यक्ष दर्शन करवा दीये ।गुरुदेव के दिशानिर्देश में आगे की यात्रा उन ही के मार्ग दर्शन में अनवरत चलती रहेगी । ओऊम श्री आशुतोषाए नमः
Jmjk.... Woh janay daya karke to hum jaan sakte h anyatha humara bas ka to kuch nhi hai. Patra bhi wohi banaya h , parakhta bhi wohi , sav kuch wohi karta h hume to keval apne aap samarpit karna h antaratma se, par woh bhi humse nhi hota ....prarthna yehi ki , hamare ander WO bhav bhi aap hi ko jagana h + mera sare responsibility sada sada ke liye aap hi grahan Karen. Mera sob kuch aap hi ho Guruvar ... Jmjk.
Sarv shri ashutosh maharaj ji se gyan diksha mili..antarghat mein ishwar ke darsan hue...sadhna ke path par chalte hue antarjagat ki jo yatra suru hui hai vah jari hai..
Dhan hai esse mahapurkh...... Kudh b payea ... Hameh b dikhayea ..... Jai maharaj ji Ki......
It is rightly said... JIN KHOJA TIN PAIYAN.
param sat guru shri ashutosh maharaj ji se mujhe brahmgayan mila or mujhe apne ghat ke andar hi bhagwan ke darshan hue ... 1.1.2o15 duniya bhar ke log jab new year bana rahe the hum maharaj ji ki kirpa se hari katha mein night seva mein tha mein bhut khush tha ki meri new year seva mein raha maharaj ji ki seva mein ....... seva khatam hone ke bad mein jab sadna mein beta to mujhe bhut tej parkash dikhai dia or vo parkash kbhi tej hota or kbhi kam fir us parkash se dur maharaj ji earth ke bahar bhut jada sundar sihasan mein bethe hai , mein jab maharaj ji ke darshan kiye to maharaj ji ki kirpa se mera new year 2o16 aesa raha .. ashutosh maharaj ji bhagwan hai ...................Ashutosh Maharaj ji jay sache darbar ki jay.................
Miss u maharaj ji.
Shri Ashutosh Maharaj Ji is the God's Face on Earth. They are really 'GOD'.
No words to express the divinity of god. Only to request those who havn't moved ahead. please dont waist time or else u'll regret & Be the blessed one n get the most precious gem 'Brahmgayan' from Shri Ashutosh Maharaj ji.
ऐसा ही अनुभव मेरा है शंकराचार्य पहाडी का । 27अप्रैल 2008 को आशुतोष महाराज जी से ज्ञान दीक्षा के बाद ,जब हम कश्मीर घूमने गए थे। और उसके बाद तो अन्नत कृपा ...