भारत का वह प्रतिनिधि- स्वामी विवेकानंद djjs blog

11 सितम्बर, 1893 ई... प्रातः दस बजे, धर्मसंसद के प्रतिनिधि एक शोभा यात्रा के रूप में प्रकट हुए। अध्यक्ष बॉनी और कार्डिनल गिब्बन्स एक-दूसरे के हाथ पकड़े सबसे आगे थे। उनके पीछे संसद के अधिकारी और प्रबंधक थे। उसके पश्चात् प्रतिनिधि आए। उन लोगों ने हॉल के पिछले द्वार से प्रवेश किया। श्रोताओं के मध्य से मार्ग बनाते हुए, मंच की ओर आए। प्रतिनिधियों की उसी भीड़ में स्वामी विवेकानंद भी थे। वे कुछ घबराए हुए से लग रहे थे। सुखी जिह्वा से अपने सूखे होठों को गीला करने का प्रयत्न कर रहे थे। शोभायात्रा मंच तक आ पहुँची और सब लोग अपने नियत स्थान पर बैठ गए।

मंच के केंद्र में पश्चिमी संसार के रोमन कैथोलिक चर्च के सबसे बड़े धर्माधिकारी, कार्डिनल गिब्बन्स बैठे थे। वे राजसिंहासन सी दिखने वाली कुर्सी पर बैठे थे; और उन्होंने ही प्रार्थना कर सभा का उद्घाटन किया। उनकी दाईं और बाईं ओर पूर्वी देशों के प्रतिनिधि बैठे थे, जिनके भड़कीले रंगों के परिधान कार्डिनल के लोहित रंग के चोगे से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। ब्रह्म, बुद्ध और मुहम्मद के उन अनुयायियों में स्वामी विवेकानंद भी बैठे थे। उनका नयनाभिराम, चटख भगवा परिधान, राजस्थानी पगड़ी, ध्यानाकर्षक नयन नक्श और तांबई वर्ण उस भीड़ में भी छिप नहीं रहा था। आगार और ऊपर का चौबारा लोगों से ठसाठस भरा हुआ था। छह-सात सहस्त्र व्यक्तियों से कम क्या होंगे! स्वामी ने इतने लोगों के सामने कभी भाषण नहीं दिया था। इस प्रकार के धुरंधर धर्माधिकारियों के मध्य भी वे कभी नहीं बैठे थे। वे तो भारत की धूल मिट्टी में घूमने वाले, भिक्षा माँग कर खाने वाले मनमौजी सन्यासी थे।

गिब्बन्स प्रार्थना कर चुके थे। अब मंत्रपाठ, प्रार्थना, आशीर्वाद और परिचय का दौर चल रहा था।

सभा के प्रथम वक्ता ग्रीक चर्च के आर्कबिशप जांटे थे। वे बोले- 'भगवान ने सारे मनुष्यों को जन्म दिया। अतः वह हमारा पिता है। उसको न मानना नास्तिकता है। मैं अपने दोनों हाथ उठाकर हृदयानुभूत प्रेम से आपके महान देश अमरीका एवं यशस्वी अमरीकीयों को आशीर्वाद देता हूँ।'

बॉनी ने तालियाँ बजाते हुए कहा- 'आप वस्तुतः महान हैं।' हॉल में भी तालियों की गड़गड़ाहट बढ़ती ही चली गई। ब्राह्म समाज के प्रतापनारायण मजूमदार का भाषण प्रभावशाली था। उन्होंने अपना भाषण समाप्त कर हार्दिक धन्यवाद दिया। श्रोताओं ने उदार मन से तालियाँ बजाईं। किन्तु विवेकानंद को लग रहा था कि थियोसोफिस्ट चक्रवर्ती का भाषण मजूमदार से भी अधिक महत्त्वपूर्ण था। उन सबके भाषण पूर्वलिखित लगते थे। कम से कम उनकी तैयारी तो पहले से अवश्य ही की गई थी। और एक विवेकानंद थे कि न कुछ लिखकर लाए थे, न कुछ सोचकर आए थे। इस समय भी कुछ निश्चित नहीं कर पा रहे थे कि वे क्या बोलेंगे। धुरंधरों की इस भीड़ में बिना तैयारी के आना उचित नहीं था।

स्वामी तब तक अपने स्थल पर अंतर्मुखी से बैठे थे, जैसे उपासना कर रहे हों।

तभी मंच पर से विवेकानंद का नाम पुकारा गया। 'इस बार भी आप कुछ बोलेंगे या नहीं, डेलीगेट?' डॉक्टर बैरोज़ स्वामी की ओर देख रहे थे, 'अपने इन श्रोताओं को आप दो शब्दों में अपना आशीर्वाद भी नहीं देंगे?' 'आप बोलते क्यों नहीं?' मॉरी बोले, 'आप तीन बार अपनी बारी छोड़ चुके हैं।'

विवेकानंद क्या बताते कि बुलाए जाने पर भी वे क्यों नहीं बोल रहे। उन्होंने अपनी घबराहट को समेटा। मन ही मन अपने गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस जी को नमन किया। गुरुदेव का अन्तर्घट में दर्शन और आशीर्वाद प्राप्त हुआ। स्वामी ने आँखे खोली वे उठकर व्यासपीठ पर आ गए। डॉ. बैरोज़ ने उनका परिचय दिया।

उनका चेहरा आवेश से धधक रहा था। उन्होंने सामने बैठे उन श्रोताओं के सिंहावलोकन किया। लोगों की दृष्टि जैसे बंध गई। ऐसा सन्नाटा छाया, जैसे आँधी आने वाली हो। सारा हॉल निस्पंद था।

'अमरीकी बहनों और भाइयों!'

उनका यह संबोधन हॉल में जैसे विद्युत की धारा के समान बह गया। सारा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। लोग अपने स्थानों पर उठकर खड़े हो गए। सुंदर युवतियाँ बेंचों पर चलती हुई स्वामी की ओर बढ़ती दिखाई दीं।

अध्यक्ष बॉनी और कार्डिनल चकित होकर एक-दूसरे की ओर देखते रह गए.. आखिर यह हुआ क्या है?

विवेकानंद भी अकबका से गए। वे दो मिनटों तक आगे बोलने का प्रयत्न करते रहे। किन्तु उस कोलाहल में कुछ भी बोलना संभव नहीं था। क्रमशः तालियाँ कुछ धीमी पड़ी, तो स्वामी जी ने बोलना आरम्भ किया।

भाषण पूरा हुआ, तो सभा में फिर से तालियों का झंझावात उत्पन्न हो गया। स्वामी अपने स्थान पर आ बैठे। वे एक प्रकार की क्लांति का अनुभव कर रहे थे। शायद भावनाओं के आवेग ने उन्हें थका दिया था।

कोलंबस आगार में एक प्रकार की भगदड़ मची हुई थी। लोग उठकर बाहर की ओर भाग रहे थे- स्त्रियाँ और पुरूष सब। उस भगदड़ में धक्कामुक्की भी हो रही थी। किसी महिला की टोपी गिर गई थी, किसी के बाल उलझ गए थे। किसी ने आगे बढ़ने की आतुरता में अपने अगले व्यक्ति के कंधे पर हाथ रख दिया था और अगला व्यक्ति उसे हटाने का प्रयास कर रहा था। किसी का पैर दूसरे के पैर पर पड़ गया था। इतनी अराजक अफरातफरी पहले तो कभी नहीं हुई थी।

मंच पर बैठे लोग भी उत्सुकता से उस ओर देख रहे थे। एक प्रतिनिधि घबराकर उठने लगा- 'कोई दुर्घटना हो गई लगता है!'

साथ बैठे प्रतिनिधि ने उसकी बाँह पकड़कर उसे बैठा लिया, 'बैठे रहिए। घबराहट का कोई कारण नहीं है।'

पहला प्रतिनिधि बौखलाए हुए स्वर में बोला- 'तो ये सब लोग पागल हो गए हैं क्या?' 'हाँ! ये सब उस स्वामी विवेकानंद से हाथ मिलाने के लिए भाग रहे हैं। इस स्थिति में वह बेचारा आवश्यक होने पर प्रसाधन तक भी नहीं पहुँच पाएगा।' वह हँसा।

पहला प्रतिनिधि अवाक्-सा मुँह खोले, अपने साथी का चेहरा ताकता रह गया।

श्रीमती ब्लाडजेट अपने स्थान पर बैठे-बैठे गीली आँखों से यह सब देख रहीं थीं। अमरीकी सुंदरियों का सारा यौवन जैसे स्वामी जी के लिए निवेदित हो रहा था। इस प्रस्ताव के लिए तो स्वर्गलोक के देवता भी तड़पते होंगे। उनके होंठ कांपे। वे जैसे अपने आप से ही बोली- 'इस प्रलोभन का संवरण कर सको मेरे बच्चे! तो तुम मनुष्य नहीं, सचमुच देवता हो।'

'शिकागो टाइम्स' के कार्यलय में बड़ी चहलपहल थी।

'इन पादरियों ने यह सोचकर शिकागो में एक अखाड़ा बनाया था कि संसार के सारे धर्मों के लोगों को यहाँ बुलाकर पटकनी दे देंगे। उन्होंने कभी यह कल्पना भी नहीं की थी कि भारत से एक ऐसा मल्ल आ जाएगा, जो इन्हें इनके घर में घुसकर ऐसा चित करेगा कि ये आकाश ताकते रह जाएँगे।' एक पत्रकार ने कहा।

'अरे ऐसा क्या कर दिया उसने?' दूसरे ने पूछा।

'तुमने देखा नहीं, उसके शब्द सुनकर लोग कैसे पागल हो गए थे! हमारे पास एक भी ऐसा ज्ञानी वक्ता है?'

'ज्ञानी वक्ता! माई फुट! अरे ये महिलाएँ तो होती ही पागल हैं। कोई मेधावी व्यक्ति तो उससे प्रभावित हुआ नहीं। इन औरतों ने उसका रंग-बिरंगा परिधान देखा और उस पर मर मिटी। कौन सुनता है तर्क को और कौन देखता है ज्ञान को?' दूसरे पत्रकार ने कहा।

'केवल परिधान?'

'नहीं, केवल परिधान नहीं। वह युवा भी है और असाधारण रूप से सुदर्शन भी। हमारा कोई वक्ता उतना युवा नहीं है। सब बुड्ढ़े खूसट बैठा दिए वहाँ।'

'मैं जानता हूँ कि तुम अपनी रपट में यही लिखोगे कि उसके आकर्षक नारंगी रंग के कोट, उसके लाखे रंग के कमरबंद और केसरिया पगड़ी ने अमरीकी महिलाओं का मन मोह लिया है, किन्तु सत्य यह नहीं है।'

'क्या है सत्य?' दूसरे पत्रकार ने चुनौती दी।

'अमरीकियों ने आज से पहले, कभी ऐसा कोई पुरुष देखा ही नहीं था, जिसने आध्यात्मिक सच्चाइयों का इस प्रकार साक्षात् अनुभव किया हो।'

'आध्यात्मिक सच्चाइयाँ! माई फुट।'

'तुम चाहे न मानो, किन्तु सत्य यही है।' तीसरे पत्रकार ने हस्तक्षेप किया, 'आज तक हमने माना कि उनके धर्म जैसे प्राचीन छायाएँ मात्र हैं जो ईसाई मत के प्रकाश के पड़ते ही शून्य में विलीन हो जाएँगी। किन्तु वे और विशेष रूप से हिन्दू धर्म का वह प्रतिनिधि- साधारण लोग नहीं हैं। उनकी आँखों से ईसाइयों ने भी पहली बार उनके धर्मों की गरिमा और गंभीरता को देखा है।'

'अरे, क्या गहराई है उनके धर्म में?' दूसरा पत्रकार वितृष्णा से बोला।

'ईसाइयों ने पहली बार सीखा है कि अन्य धर्मों का भी यही लक्ष्य है, जो हमारे धर्म का है। वे धर्म भी मानवता के परिष्कार का काम कर रहे हैं। नैतिकता और उच्च आदर्शों के प्रचार में वे हमारे सहयोगी हैं, विरोधी नहीं हैं। ऐसे ही तो सहस्त्रों अमरीकी वहाँ घंटों नहीं बैठे रहते।' तीसरे पत्रकार ने कहा।

'तुम यह क्यों मानते हो कि वे उस हिन्दू सन्यासी को ही सुनने बैठे रहते हैं? वे ईसाई वक्ताओं को भी तो सुनते हैं।' दूसरा बोला।

'हाँ! लोग गर्मी में घंटों बैठे तुम्हारे ईसाई विद्वानों के उबाऊ और नीरस वक्तव्य इस आशा में सुनते रहते हैं कि हिन्दू सन्यासी पंद्रह मिनट तो बोलेगा।' तीसरे ने कहा- 'जिस दिन स्वामी विवेकानंद का नाम वक्ताओं में होता है, उस दिन सत्र आरम्भ होने से घंटा भर पहले ही भर जाता है। भीड़ से हॉल के दरवाज़े टूटने लगते हैं। अध्यक्ष स्वामी को अंत तक बैठाए रखता है, ताकि श्रोता उठकर घर न चले जाएँ। तुम जानते नहीं हो कि स्वामी का भाषण समाप्त होने पर एक तिहाई श्रोता उठकर हॉल से चले जाते हैं।'

'बेकार की बात। हमारे वक्ताओं ने भी तो खूब खरी-खरी सुनाई है।' दूसरा बोला।

'सुनाई है तो सुनी भी है।' पहला पत्रकार निश्चयात्मक स्वर में बोला, 'स्वामी विवेकानंद ने उनकी प्रत्येक बात का उत्तर दिया।'

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