वैष्णो देवी की चढ़ाई आत्मतीर्थ है!
मानव-तन माता रानी का ‘बुलावा’ है!
‘बाण गंगा’ में डुबकी सत्संग-समागमों में नहाना है!
‘चरण पादुका’ गुरु-शरणागति की प्रतीक है!
‘गर्भ-जून’ ब्रह्मज्ञान द्वारा दूसरा जन्म है!
‘हाथी-मत्था’ तक की चढ़ाई अंतर्जगत की साधना है!
गुफा की तीन पिण्डियाँ चेतना की पूर्ण अवस्थाएँ हैं!
माता रानी के प्यारे भक्तो! जरूर आपके जीवन में कभी न कभी माँ वैष्णो के दरबार से चिट्ठी आई होगी। उसे पाते ही आपने शीघ्रतः अटैची बांधी होगी। टिकट खरीदकर जम्मू-स्टेशन पहुँच गए होंगे। फिर कटरा से त्रिकूट पर्वत की 5200 फुट उँची चढ़ाई चढ़ी होगी।
आइए, आज फिर चलते हैं हम वैष्णो देवी की तीर्थ-यात्रा पर! परन्तु आज की यह चढ़ाई साधरण नहीं, विलक्षण है। एकदम अलग! एकदम अलौकिक! जो बाहरी नहीं, भीतरी है। जिसमें हमारा तन नहीं, हमारा मन और आत्मा एक उत्थान के पथ पर चढ़ते हैं। चेतना ऊर्धगामी होती है। मन के विकार धुलते हैं। माता के स्थूल दर्शन नहीं, उनके तत्त्व रूप के पूर्ण दर्शन मिलते हैं। और सबसे बढ़कर इसे चढ़ने वाला (साधक) स्वयं ही मातृस्वरूप उज्ज्वल हो जाता है!
कहिए, चलेंगे न इस अलौकिक यात्रा पर? क्या कहा- बुलावे की चिट्ठी? अरे भई, वह भी तो मिली है आपको! यह मानव-तन! यह मनुष्य-जीवन! ग्रंथों ने कहा है- भई परापति मानुख देहुरीआ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ। यह मानव जीवन प्रभु से मिलन के लिए एक सुनहरा आमंत्रण है! हमारे भीतर समाई परम-सत्ता के घर से बुलावा है। दरअसल, हमें यह मनुष्य-तन मिला ही इस भीतरी चढ़ाई के लिए है।
इसी प्रकार वैष्णो देवी तीर्थ के निर्माण की कथा और उसका चप्पा-चप्पा भी हमें इस अलौकिक यात्रा के लिए प्रेरित करता है। कथा इस प्रकार है। एक बार माँ के एक सच्चे भक्त श्रीधर ने अपनी झोंपड़ी के बाहर एक भंडारा आयोजित किया। माँ एक छोटी सी कन्या का रूप धारण कर स्वयं उसमें भोजन परोसने लगीं। कतार में भैरव नाथ भी बैठा था। उसने भगवती को आजमाने के लिए मांस-मदिरा की मांग की। माँ ने इंकार किया, तो उसने क्रुद्ध होकर हिंसक वार किया। माँ उसी क्षण तीव्रता से चल पड़ीं त्रिकूट पर्वत की ओर।
कथा का यह पात्रा भैरव नाथ प्रतीक है- हमारे मन के विकारों, पाप वासनाओं का! जगदम्बा मैया प्रतीक हैं, हमारी जीवात्मा की! जब हमें मानव तन रूपी चिट्ठी मिलती है, तब हमारे विकार, हमारी वासनात्मक वृत्तियाँ और धारणाएँ ही बाधक बन जाती हैं। हमें तामसिक आहार-व्यवहार के लिए उकसाती हैं। जीवात्मा इनसे त्रस्त होकर एक ऐसे महिमाशाली उँचे मार्ग की तरफ दौड़ना चाहती है, जिस पर चढ़कर वह अपने इन विकारों (भैरव नाथ) से छुटकारा पा सके।
कौन सा है यह महान मार्ग? वैष्णो देवी का बाहरी तीर्थ या यूँ कहें कि त्रिकूट पर्वत की चढ़ाई इसी महान मार्ग की प्रतीक है। इस तीर्थ या चढ़ाई का एक-एक पड़ाव हमें समझाता है कि हम कैसे अपने जीवन में एक आध्यात्मिक चढ़ाई कर सकते हैं।
बाहरी तीर्थ का पहला पड़ाव है- बाण गंगा। कथा बताती है कि जब माँ त्रिकूट की ओर दौड़ीं, तो वीर और लंगूर नामक दो अंगरक्षक भी उनके संग हो लिए। राह में इन अंगरक्षकों को प्यास लगी, तब माँ ने धरा पर एक बाण मारा। उससे गंगा समान पवित्र धराएँ फूट पडीं। वीर और लंगूर ने इस सरिता में प्यास बुझाई और पुनः पूर्ण जोश के साथ माँ के संग चल पड़े। आज लाखों तीर्थ-यात्री इस बाण गंगा में स्नान करते हैं। मान्यता है कि इसके द्वारा हमारे पाप-मल धुल जाएँगे। बाण गंगा, पानी ठंडा! जो नहावे, सो होवे चंगा! यह कहावत रटते-रटते श्रद्धालुगण खूब छक के उसमें डुबकियाँ लगाते हैं। परन्तु बंधुओ, वास्तव में, यह बाण गंगा केवल एक नदी नहीं है, जिसमें हमें बाहरी तौर पर डुबकियाँ लगानी थीं। यह तो प्रतीक है- सत्संग समागमों की। रामचरितमानस में कहा गया-
मज्जन पफल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला।।
सुनि आचरज करे जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई।।
अर्थात् सत्संग रूपी सरिता में स्नान करने पर जीव का रूपांतरण हो जाता है। सत्संग के सद्विचार हमारे मन के संशयों और कुविचारों को धे डालते हैं। संकल्प और विवेक, जो कि इस मार्ग पर हमारे सहायक और रक्षक हैं, उनको सबल करते हैं। इसलिए, माँ के भक्तो, अगर सच में माँ की ओर एक सच्ची चढ़ाई चढ़नी है, तो सबसे पहले आपको इसी पड़ाव से गुजरना होगा यानी संतों से सत्संग सुनना होगा।
वैष्णो देवी का अगला पड़ाव है- चरण पादुका। कहते हैं कि यहाँ माँ ने दो क्षण ठहर कर विश्राम किया था। अतः इस स्थान पर उनके चरण अंकित हैं। ये चरण चिर शरणागति के प्रतीक हैं। इशारा करते हैं कि सत्संग सुनने के बाद एक जिज्ञासु को किसी पूर्ण गुरु की शरणागति में जाना होगा। देवी पुराण में जब राजा हिमालय माँ भगवती से परमकल्याण की प्रार्थना करते हैं, तो माता रानी स्वयं कहती हैं- गृहीत्वा मम मन्त्रान्वै सद्गुरोः सुसमाहितः अर्थात् सद्गुरु द्वारा मन नियंत्रित करने वाला मेरा उपासना मार्ग प्राप्त करो। मतलब कि एक पूर्ण सतगुरु का सान्निध्य हासिल करो- यही आंतरिक चढ़ाई का दूसरा चरण है।
तीसरा पड़ाव है- आदकुंवारी मंदिर तथा गर्भजून गुफा। कथा बताती है कि चरण पादुका स्थल से दौड़ते-दौड़ते माँ ने इस संकरी-सी गुफा में प्रवेश किया। यहाँ उन्होंने नौ महीने साधना-उपासना की। उन्हें खोजते-खोजते जब विवाहाभिलाषी भैरव नाथ गुफा के समीप पहुँचा, तो कहते हैं कि एक संत ने उसे झकझोरा था- ‘अरे मूर्ख, देवी भगवती तो आदिकाल से कुंवारी हैं। केवल उस परम पुरुष द्वारा वरण किए जाने की प्रतीक्षा में त्रिकूट पर आई हैं। इसलिए तू उनका पीछा करना छोड़ दे।’ इसी कारण उस स्थल पर आदकुंवारी नामक मंदिर की स्थापना हुई। पर भैरवनाथ अविचल रहा। जबरन उस गुफा में प्रवेश कर गया। तब माँ ने अपने त्रिशूल से गुफा के दूसरे छोर पर वार किया। अपने लिए मार्ग बनाया और वहाँ से आगे बढ़ गईं।
इस पड़ाव का यह पूरा प्रसंग बहुत ही सौन्दर्यपूर्ण और संकेतात्मक है। सतगुरु के सान्निध्य में पहुँचकर जीवात्मा को शीघ्र ही यह एहसास होता है कि वह भी ‘आदकुंवारी’ है। आदि काल से परम-आत्मा से योग करने के लिए भटक रही है। तब साधक व्याकुल होकर इस योग को प्राप्त करने के लिए सतगुरु से ‘ब्रह्मज्ञान’ की प्रार्थना करता है। दरअसल, यह ब्रह्मज्ञान की दीक्षा जीव का दूसरा जन्म है। आप देखें, गर्भजून गुफा का आकार संकरा सा और रपटीला, बिल्कुल एक गर्भ की तरह होता है। कथानुसार माँ ने इसमें नौ महीने साधना की थी। देवी पुराण के हिसाब से एक जीव भी इतने ही काल तक अपनी माँ के गर्भ में प्रार्थनारत रहता है- यद्यस्मान्निष्कृतिर्मे स्याद्गर्भदुःखात्तदा पुनः। आपने यह भी देखा होगा कि इस गुफा में प्रवेश करते ही सब एक साथ जपते हैं- जय माता दी! जय माता दी! पंडित जी कहते हैं कि जो जाप नहीं करेगा, वह बीच रास्ते में ही अटक जाएगा। इसी प्रकार एक शिशु भी गर्भ के भीतर प्रभु-सुमिरन से एक-तार जुड़ा रहता है- गरभ कुंट महि उरध् तप करते।। सासि सासि सिमरत प्रभु रहते।। कहने का भाव कि गर्भजून गुफा प्रतीक है गर्भ की और उससे गुजरना दूसरे जन्म का! सद्गुरु हमें ब्रह्मज्ञान देकर यही दूसरा आध्यात्मिक जन्म प्रदान करते हैं। इसलिए सतगुरु से ब्रह्मज्ञान की दीक्षा पाना- यही आत्मा की आध्यात्मिक चढ़ाई का तीसरा चरण है।
इस चरण अर्थात् ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के बाद ही शुरु होती है, साधना की संघर्षमय चढ़ाई। आप जानते हैं कि हाथी मत्था तक की चार किलोमीटर की चढ़ाई एकदम खड़ी है। मानो लटकी सूंड के जरिए हाथी के माथे तक पहुँचने जैसी! यह खड़ी चढ़ाई साधना-पथ की दुर्गमता की प्रतीक है। मीरा बाई जी ने इसी भीतरी साधना मार्ग के अनुभव को हमसे सांझा किया- ऊँची-नीची राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराए। सोच-सोच पग धरूँ यतन से, बार-बार डिग जाए...।
जानते हैं, इस साधना-मार्ग को इतना ऊँचा और चढ़ाई युक्त क्यों कहा गया? दरअसल, हमारी सारी वृत्तियाँ नीचे की इन्द्रियों में फंसी और उलझी पड़ी हैं। यही कारण है कि वे वासनात्मक हैं। साधना द्वारा साधक को इन्हीं वृत्तियों को नीचे से समेटकर ऊँचा उठाना है। जैसा कि पड़ाव के नाम से ही जाहिर है- ‘हाथी मत्था’। हमें अपनी वृत्तियों को भी अपने माथे पर स्थित दशम-द्वार तक उठाकर उपर लाना है यानी केन्द्रित करना है। इसलिए ब्रह्मज्ञान पाकर दृढ़ता से ध्यान-साधना-सेवा करना- यही आध्यात्मिक यात्रा का चौथा चरण है।
परन्तु यात्रा यहाँ भी पूरी नहीं होती। कथानुसार माता रानी भैरव से बचते हुए उस गुफा पर आती हैं, जहाँ आज भवन निर्मित है। यहाँ गुफा के द्वार पर वे सहसा शेर पर सवार होकर, अपनी अष्टभुजाओं में अस्त्र-शस्त्र लेकर, अपने पूर्ण दिव्य स्वरूप में प्रकट होती हैं। फिर अपनी खड्ग के एक ही वार से भैरव का सिर धड़ से अलग कर देती हैं। अंत में, गुफा में प्रवेश कर तीन पिण्डियों के रूप में बदल जाती हैं। यहीं यात्रा का अंत होता है।
यह आखिरी प्रकरण हमें आध्यात्मिक यात्रा के आखिरी पड़ाव के बारे में बताता है। वेदांत के हिसाब से एक साधक ध्यानाभ्यास करते हुए आज्ञा-चक्र (मस्तक) से सहस्रदलकमल (शीर्ष भाग) तक की यात्रा करता है। यह वास्तव में अंतर्जगत की विकास यात्रा है। इसे करते हुए अंत में एक ऐसा पड़ाव आता है, जब उसकी चेतना पूरी तरह विकसित होकर, अपनी सम्पूर्ण अलौकिकता को प्राप्त हो जाती है। इसी पड़ाव पर वह अनंत शक्ति से सम्पन्न होकर अपने सारे विकारों-वासनाओं का संहार कर डालता है। पाप मुक्त शुद्ध-बुद्ध-चैतन्य हो उठता है। इस अवस्था पर साधक की देवमय आदिशक्ति चेतना भी एक परम-अलौकिक गुफा में प्रवेश करती है। यह गुफा उसके अंतर्जगत- सहस्रदल कमल में ही स्थित है। इस गुफा को वेदों में ‘हृदय गुहा’ कहा गया। मान्यता है कि वैष्णो देवी की गुफा में 33 करोड़ देवी-देवताओं का निवास है। इसी प्रकार वेदों का कहना है कि हमारी इस आंतरिक गुफा में भी सकल ब्रह्माण्ड, स्वयं ब्रह्माण्डनायक ;परब्रह्मद्ध और उसकी समस्त शक्तियाँ ;देवतागणद्ध विराजमान हैं। इसी तरह जैसा कि हम देखते हैं कि बाहरी गुफा में अमृत-कुंडों से चरण-गंगा प्रवाहित होती है, वैसे ही- ब्रह्मस्थान सरोजपालसिता ब्राह्मण- तृप्तिप्रदा- इस ब्रह्मस्थान ;यानी भीतरी गुफाद्ध से साधक को तृप्त करने वाली शुद्ध अमृत धराएँ बहती हैं। जैसे माँ इस गुफा में प्रवेश कर हमेशा के लिए स्थित हो गईं, वैसे ही साधना की अंतिम अवस्था में एक साधक भी इसी गुफा में प्रवेश कर सदा के लिए स्थित हो जाता है- गुहां प्रविश्य तिष्ठन्ति।
महामाई की तीन पिण्डियाँ प्रतीक हैं त्रिदेवियों की- माँ सरस्वती, माँ लक्ष्मी और माँ काली अर्थात् पूर्ण ज्ञान, पूर्ण वैभव और पूर्ण शक्ति। साधक भी इन तीनों तत्त्वों से सम्पन्न होकर ब्रह्म में एकचित्त हो जाता है। इसी के साथ माँ वैष्णो का आत्मतीर्थ सम्पूर्ण होता है।
बंधुओ, अवतारों और महापुरुषों द्वारा रचित तीर्थ हमें भीतरी परमानंद से जोड़ने के लिए बनाए गए थे। ये स्थल मार्गदर्शक नक्शे हैं। इनमें आध्यात्मिक यात्रा के लिए प्रतीकात्मक संकेत या इशारे छिपे हुए हैं। इनकी लकीरों या इशारों को पकड़कर अगर हम एक सच्ची आध्यात्मिक यात्रा करें, तो मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता है। हर बार के नवरात्रों भी हमें माँ वैष्णो की यही आंतरिक यात्रा करने की प्रेरणा देते हैं। इसी आत्मतीर्थ पर पहुँचने के लिए माता रानी का बुलावा भी आता है।
Jai mata di
Sarv Shri Ashutosh Maharaj Ji means saakshaat Bhagwan Shri Ram and he showed me this story two days ago. JAI SHRI RAM.
Chalo bulaba aaya hai Mata me bulaya hai jai Mata di
Maa vaishno devi yatra ka ek anokha sa hi varnan hai adhyatmikta se jod ker