जहाँ एक ओर अंग्रेजी हुकूमत साधनों से सम्पन्न थी वहीं हमारे क्रांतिकारियों के पास मात्रा मुट्ठी भर संसाधन थे। एक समय क्रांतिकारियों को माउजर नामक पिस्तौल की अत्यधित जरूरत महसूस होने लगी। जर्मनी में निर्मित इस पिस्तौल का कोई जवाब नहीं था। इस कारण इसकी कीमत भी अधिक थी। उस समय जहाँ एक तोला सोना 18-19 रुपयों में मिलता था वहीं इस छोटी सी पिस्तौल (माउजर) की कीमत 75 रुपये थी। लेकिन चोरी से खरीदने पर इसी माउजर के 300 रुपये चुकाने पड़ते थे। जो उस समय बहुत बड़ी राशि थी।
पर मुख्य प्रश्न था कि जर्मनी में मिलने वाली इस पिस्तौल को प्राप्त कैसे किया जाए! इस हेतु एक योजना बनाई गई, जिसे क्रियान्वित करने का भार विशेष रूप से दो क्रांतिकारियों को सौंपा गया- शचीन्द्रनाथ बख्शी, जो कि तैराकी संघ के मंत्री थे; दूसरे- केशव चक्रवर्ती। केशव भी कुशल तैराक थे।
योजना के अनुसार केशव चक्रवर्ती को तैराकी प्रतियोगिता में भाग लेने के बहाने जर्मनी भेजा गया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने माउजर पिस्तौल को जर्मन कार्गो से भेजने की उचित व्यवस्था की। तत्पश्चात् वे जर्मनी से वापिस लौट आए। इधर भारत में शचीन्द्रनाथ बख्शी का काम था- भारत आने वाले जहाजों की जानकारी एकत्र करना। इसके लिए वे अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समैन’ के शिपिंग इंटेलिजेन्स स्तम्भ में प्रकाशित जहाजों के ब्यौरे पर नजर रखते थे। पूरी सतर्कता से वे इस स्तम्भ को पढ़ते थे, ताकि उन्हें माउजर लाने वाले जहाज के समय एवं तिथि का अंदाजा हो सके।
एक दिन उन्हें जानकारी मिली कि वह जहाज भारत पहुँचने वाला है। यह सूचना मिलने और जहाज के पहुँचने के बीच एक माह का समय था। इसी एक महीने में क्रांतिकारियों को माउजर खरीदने हेतु धन-राशि का इंतजाम करना था। इसके अतिरिक्त एक और जरूरी व्यवस्था करनी थी, जिससे अंतर्राष्ट्रीय समुद्री नियमों व कानूनों से बचाकर सुरक्षित रूप से माउजर को जहाज से छुड़वाया जा सके। इसके लिए मात्र एक ही विकल्प था- भारत की समुद्री-सीमा से तैरकर तीन मील भीतर जाना और इस पिस्तौल को प्राप्त करना! क्योंकि यदि कोलकाता बंदरगाह पर जहाज से पिस्तौल का पार्सल लिया जाता, तो ‘सी और लैण्ड कस्टम विभागों’ द्वारा अनेक प्रकार की छानबीन व पूछताछ होती। इससे सामान के पकड़े जाने का भी खतरा था। अतः सावधनी बरतते हुए यही फैसला किया गया कि लम्बी तैराकी में निपुण शचीन्द्रनाथ बख्शी समुद्र में तीन मील तैरकर प्रेषित माल को छुड़वाएँगे।
अब योजना के पहले चरण पर कार्य आरम्भ किया गया। धन-राशि के इंतजाम हेतु सरकारी खजाने को लूटने की व्यवस्था बनाई गई। इसके अंतर्गत क्रांतिकारियों के एक दल ने उसी रेलगाड़ी से सफर किया, जिसमें सरकारी खजाना लेकर जाया जा रहा था। काकोरी के निकट पहुँचते ही क्रांतिकारियों के दल ने इसी खजाने पर सेंध लगाई। पूरी होशियारी से उन्होंने 4601 रुपये 15 आने 6 पाई लूट लिए। इस धन-राशि का मुख्य भाग दल का कर्ज चुकाने में प्रयोग किया गया। शेष राशि लेकर शचीन्द्रनाथ बख्शी और राजेन्द्र लाहिड़ी माउजर लेने कोलकाता रवाना हो गए। वहाँ पहुँचकर शचीन्द्रनाथ बंगाल की खाड़ी में तैरकर तीन मील तक गए। वहाँ खड़े जहाज से माउजर प्राप्त की और राशि का भुगतान किया। फिर रात्रि के उसी गहन अंधकार में शचीन्द्रनाथ तैरकर वापिस तट पर लौट आए।
अंततः क्रांतिकारियों की योजना सफल हुई। इतनी लम्बी और संघर्षपूर्ण प्रक्रिया से गुजरने के बाद आखिर वो माउजर उनके हाथों में पहुँची। इसी माउजर से 17 दिसम्बर, 1928 को लाहौर में राजगुरु ने असिसटेंट सुपरिटेन्डेंट ऑफ पुलिस जॉन साण्डर्स को उसके पापों का दंड दिया था। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के कमाण्डर इन चीफ- चन्द्रशेखर आजाद ने अपनी आजाद रहने की प्रतिज्ञा को भी इसी पिस्तौल से पूरा किया था। अंग्रेजों द्वारा चारों ओर से घिरने के बाद अंतिम गोली उन्होंने स्वयं को मार ली थी।
Bahut achhi jankari he Jay hind Vande mataram
nice infomation for us
Informative & inspirational.....should be shared with all.......many thanks for this insightful facts of our freedom struggles.
Very good knowledge