हिरकणी बुर्ज - कहानी एक माँ के शौर्य की! djjs blog

दुनिया भर में प्रसिद्ध कई बुर्जों के बारे में सुना होगा आपने—ऐसी ऊँची संरचनाएँ जो शक्ति और प्रगति की प्रतीक हैं। एक ऐसा ही उदाहरण है दुबई का प्रसिद्ध बुर्ज ख़लीफा! लेकिन क्या आपने कभी ऐसे बुर्ज के बारे में सुना है, जो केवल एक अद्वितीय संरचना ही नहीं, बल्कि प्रेम, बलिदान और असाधारण साहस का जीवित स्मारक भी हो? महाराष्ट्र के हृदय में स्थित ऐतिहासिक रायगढ़ किले के भीतर एक ऐसा ही बुर्ज (मराठी में बुरुज) खड़ा है—जो राजाओं या योद्धाओं के लिए नहीं बनाया गया, बल्कि एक माँ के अडिग साहस को समर्पित किया गया। प्रस्तुत है ‘बुर्ज हिरकणी' की कहानी— असंभव परिस्थितियों में मातृत्व के अद्वितीय पराक्रम को समर्पित एक अमर श्रद्धांजलि।

अपनी संतान की सुरक्षा में किसी अनहोनी की आशंका भी एक माँ के अंदर न जाने कहाँ से क्षुप्त निडरता, निर्भीकता को जगा देती है। बात है, छत्रपति शिवाजी महाराज के राज के दिनों की। मराठों के अधिकृत रायगढ़ किले को अभेद्य कहा जाता था, मित्र हो या शत्रु किसी का भी उसके अंदर पहुँचना एक कठिन बात थी। किला काफी ऊँची पहाड़ी पर था, और चारों ओर सुरक्षा के लिए ऊँची दीवारों से घिरा हुआ था। एक कड़े नियम के अनुसार, किले का दरवाज़ा, सूर्योदय पर खुलता था और सूर्यास्त पर बंद कर दिया जाता था। किले के दरवाज़े को किसी भी हालत में सुबह से पहले नहीं खोला जाता था— फिर चाहे स्वयं छत्रपति शिवाजी महाराज ही इसे खोलने का आदेश क्यों न दें।

रायगढ़ किले के तलहटी में छोटे-छोटे गाँव थे, जिनमें से एक गाँव में हिरकणी बाई नामक एक महिला रहती थी। उसका एक दूध पीता शिशु था और वह अपनी बुजुर्ग सास के साथ रहती थी। उसके पति, शिवाजी महाराज के एक सिपाही थे, जो अक्सर सैन्य सेवा पर बाहर रहते थे। गाँव के अन्य लोगों की तरह, हिरकणी भी अपनी गाय का दूध बेचने किले में जाती थी।

एक बार, कोजागरी (शरद पूर्णिमा) पर्व के दौरान, सभी को उत्सव मनाने के लिए किले में आमंत्रित किया गया। परंपरा के अनुसार, शरद पूर्णिमा की रात में खीर बनाने के लिए बहुत सारे दूध की आवश्यकता होती थी, और यह योगदान गाँववासी किया करते थे। कोजागरी के दिन, किले में एक सुंदर मेले का आयोजन था। हिरकणी और उसकी सहेलियाँ भी दूध लेकर किले में गईं। लेकिन मेले को देखते देखते मनोरंजन में मस्त उन्हें लौटने में देर हो गयी। सूर्यास्त का समय नजदीक आ रहा था, जिसका ढोल और नगाड़ों से संकेत भी दिया गया कि किले का मुख्य दरवाजा बंद होने वाला है। इस दौरान समूह की कुछ महिलाएं तो किले से बाहर निकल गयी, लेकिन अन्य महिलाएँ, जिनमें हिरकणी भी शामिल थी, किले के अंदर ही रह गईं।

हिरकणी बाई ने पहरेदार (मलवा) से विनती की, "मेरा बेटा बहुत छोटा है; वह भूखा होगा, और घर पर उसे देखने वाला कोई नहीं है। कृपया दरवाजा थोड़ी देर के लिए खोल दें। मुझे अपने बेटे के पास जाना है।" लेकिन पहरेदार ने समझाया, "बहन, मैं समझता हूँ, लेकिन नियम इतने सख्त हैं कि एक बार दरवाजा बंद हो जाने के बाद इसे किसी भी कीमत पर खोला नहीं जा सकता—यहाँ तक कि स्वयं छत्रपति के लिए भी नहीं।"

अपने शिशु के लिए चिंतित हिरकणी ने मदद के लिए सभी से पूछा, लेकिन उसे कोई मदद नहीं मिली। जैसे-जैसे रात गहरी होती गई, उसका दुख बढ़ता गया। अपनी हताशा में, उसने किले के एक सिपाही से बाहर निकलने का रास्ता पूछा, लेकिन उसने भी उसे नकारते हुए कहा कि किले से बाहर जाने के लिए कोई दरवाजा या रास्ता नहीं है—सिवाय एक जगह के, जो न तो दरवाजा है और न कुछ और, क्योंकि वहां से केवल पानी नीचे जा सकता है और केवल हवा ऊपर चढ़ सकती है। यह जगह एक खतरनाक खाई की ओर खुलती है।

चट्टान अत्यंत ऊँची थी, चारों ओर कांटेदार झाड़ियाँ फैली हुई थीं, और वहाँ साँप, बिच्छू और कई अन्य खतरे भी थे! लेकिन, अपने शिशु की चिंता में त्रस्त, इस माँ के भीतर न जाने कहाँ से अद्भुत हिम्मत का संचार हुआ और वह बिना अपनी चिंता किए उस चट्टान से उतरकर अपने घर, अपने बेटे के पास पहुँच गई।

जब वह घर पहुँची और उसने अपने शरीर पर पड़े घावों और अपने कपड़ों की हालत को देखा, तब उसे एहसास हुआ कि उससे क्या हो गया है। उसे यह डर भी सताने लगा कि जब अगले दिन छत्रपति शिवाजी महाराज को इस बात का पता चलेगा, तो वे निश्चित रूप से उसे दंड देंगे।

अगली सुबह, किले में जब हिरकणी की सहेलियाँ उसे नहीं ढूँढ़ पाईं, तो वे अत्यधिक चिंतित हो गईं। किले में हर जगह उसकी तलाश की गई, लेकिन हिरकणी का कोई पता नहीं चला। तब एक सिपाही ने बताया, "मैंने उसे एक जगह के बारे में बताया तो था जो एक खाई में जाकर खुलती है..." और जब किले के बाहर खोजबीन की गई, तो यह पता चला कि हिरकणी गाँव लौट आई थी।

जब यह मामला शिवाजी महाराज तक पहुंचा, तो उन्होंने आदेश दिया कि हिरकणी बाई को दरबार में लाया जाए। हिरकणी अपने बच्चे के साथ वहाँ पहुँची। छत्रपति ने उसकी पूरी कहानी क्रोध, आश्चर्य और अपार गर्व से मिश्रित भावनाओं के साथ सुनी। फिर शिवाजी महाराज ने कहा, "नियमों के अनुसार, तुम्हें दंड देना तो अनिवार्य है। अभी हमारे साथ उस स्थान पर चलो और हमें फिर से दिखाओ कि तुम कैसे नीचे उतरीं”।

सभी उस स्थान तक गए। जैसे ही हिरकणी ने उस खाई को देखा तो वो सन्न रह गई, उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। उसने कहा “कल रात जब मैं यहाँ से उतर रही थी तब मेरी आँखों के सामने सिर्फ मेरे बच्चे का रोता हुआ बेबस चेहरा आ रहा था। मुझे और किसी बात का होश नहीं था, लेकिन अभी वह मेरे पास है, यह चट्टान को पार कर नीचे उतरना तो मेरी कल्पना से भी परे है”।

इस माँ के साहस और प्रेम की शक्ति से प्रेरित होकर, शिवाजी महाराज ने उस दिन एक ऐतिहासिक निर्णय लिया। हिरकणी को दंडित करने के बजाय, उन्होंने उसे सम्मानित किया। उन्होंने आदेश दिया कि खाई के स्थान पर एक ऊंची दीवार अर्थात एक बुर्ज निर्मित किया जाए, ताकि भविष्य में कोई अन्य माँ कभी ऐसी खतरनाक स्थिति का सामना न करे।

यह दीवार, जिसे हिरकणी बुर्ज के नाम से जाना जाता है, आज भी महाराष्ट्र के रायगढ़ किले पर खड़ी है। यह बुर्ज हर माँ में बसे अद्वितीय साहस और निस्वार्थ प्रेम का एक शाश्वत स्मारक है।

लेकिन यहाँ छत्रपति शिवाजी महाराज को भी श्रद्धांजलि अर्पित करना उचुत होगा—जो सम्मान, सच्चाई, और महिलाओं की गरिमा के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के प्रतीक हैं।

जब यह पता चला कि माँ हिरकणी ने कड़े नियम को तोड़ा है, तो शिवाजी महाराज आसानी से उन्हें दंडित कर सकते थे। या माँ हिरकणी की गाथा को सुनकर, शिवाजी महाराज के अंदर का पुरुष उस महिला के साहस को नजरअंदाज कर सकता था। लेकिन शिवाजी महाराज ने ऐसा कुछ भी नहीं किया बल्कि उन्होंने माँ हिरकणी के साहसिक कार्य की सराहना की, और एक ऐतिहासिक बुर्ज बनाने का आदेश पारित किया। माँ हिरकणी के बलिदान को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, शिवजी महाराज ने उनकी बहादुरी को अमर कर दिया।

जैसा कि कहा जाता है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला होती है, वैसे ही हर सफल महिला के पीछे भी कुछ पुरुष अवश्य होते होंगे। आज के समाज को छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे पुरुषों की आवश्यकता है, जो सिर्फ एक शासक ही नहीं, बल्कि न्याय, समानता, सम्मान और महिलाओं के सशक्तिकरण के सच्चे पुरोधा हैं!

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