महाशिवरात्रि और तत्त्व ज्ञान djjs blog

महाशिवरात्रि का महापर्व एक बार फिर हमारे आस्था के द्वार पर दस्तक देने को है। इस दिन फिर से मंदिरों में जगमग-जगमग सहस्त्रों ज्योतियाँ जलेंगी। अनहद घंटों की ध्वनि गूँजेगी। शिवलिंगों पर जल अर्पित होगा। वातावरण शिवमय होने लगेगा। किन्तु शिव-भक्तों! भोलेनाथ का यह महापर्व हमें केवल बाहरी ज्योतियाँ दिखाने, बाहरी घंटियाँ सुनाने या केवल बाहरी जलाभिषेक अर्पित करने के लिए नहीं आता; बल्कि हमें देवाधिदेव शंकर की शाश्वत ज्योति, अनहद नाद और भीतरी अमृत के अनुभव से जोड़ने आता है। बाहरी मंदिर की पूजा ही नहीं, अंतर्जगत के अलौकिक मंदिर का साधक बनाने भी आता है। शिव की महिमा 'मनाने' ही नहीं; बल्कि शिवत्व को 'जानने' और उसमें स्थित तत्त्वज्ञान का बोध कराने भी आता है। किस प्रकार? यह जानने हेतु सर्वप्रथम शिवपुराण की उमासंहिता को देखते है..

शिवपुराण में अनेकानेक स्थानों पर 'ध्यान योग' की महिमा गाई गई है। पुराण की वायवीय संहिता में वर्णित है- 'पंच यज्ञों में ध्यान और ज्ञान-यज्ञ ही मुख्य है। जिनको ध्यान अथवा ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया है, वे काल के चक्रवातों में नहीं उलझते। वे भव-सिंधु से उत्तीर्ण हो जाते हैं।' यहाँ तत्त्वज्ञान के अंतर्गत सर्वप्रथम प्रकाश की चर्चा करेंगे-          

शिवलिंग - प्रकाश स्तम्भ का घोतक

भगवान शिव के प्रकाश स्वरूप का ध्यान कहाँ हो? कैसे हो? इसके विषय में भी शिवपुराण में उल्लेखित है-

परमात्मा ह्रदिस्थो हि स च सर्वं प्रकाशते।
ह्रत्पद्यपीठिकामध्ये ध्यान यज्ञेन पूजयेत्।।

अर्थात् परब्रह्म परमात्मा सबके ह्रदय में प्रकाशित है। ह्रदय स्थल के मध्य 'ध्यान' द्वारा उसकी आराधना की जाती है।

यदि शिव जी की बात की जाए तो भगवान शिव तत्त्वतः निराकार ब्रह्म हैं। अब ज़रा 'लिंग' शब्द पर भी विचार करते हैं। 'लिंग' का शाब्दिक अर्थ होता है- प्रतीक! तो इस प्रकार 'शिवलिंग' (जो शिव और लिंग के योग से बना है) का अर्थ हुआ- निराकार ब्रह्म का प्रतीकात्मक स्वरूप। माने शिव के अव्यव, अक्षर व देह से रहित रूप का प्रतीकात्मक चिन्ह शिवलिंग है। अब चूँकि शिव के इन लिंगों को 'ज्योतिर्लिंग' कहकर भी महिमामंडित किया गया। इसीलिए शिवलिंग स्थूल रूप में मात्र एक पिण्डी प्रतीत होता है। किंतु यह ब्रह्म के प्रकाश स्वरूप का द्योतक है।

आवश्यकता यह भी है कि शिवलिंग से जुड़ी सभी गलत धारणाओं को खण्ड-खण्ड करने की। ताकि वर्तमान व भविष्य का समाज वास्तविकता से अवगत हो सके। दरअसल, पीठिका पृथ्वी का प्रतीक है- 'पृथ्वी तस्य पीठिका' (स्कन्द पुराण)। उस पर रखा पिण्ड विराट ज्योति स्तंभ का द्योतक है। इस पीठिका और पिण्ड के संबंध को हम एक पवित्र उदाहरण से समझ सकते हैं। मिट्टी का दीपक याने पीठिका और दीपक में प्रज्वलित उर्ध्वगामी ज्योति याने प्रकाश स्तम्भ रूपी परम लिंग! सार रूप में हम कह सकते हैं, शिव के तत्त्व रूप- प्रकाश का प्रतीकात्मक चिन्ह है- शिवलिंग अथवा ज्योतिर्लिंग!

बाहर (लौकिक) जिसे हम ज्योतिर्लिंग कहते हैं वह हमारे अंदर के ज्योतिर्लिंग का प्रतीक है। इस काया रूपी मंदिर के भीतर है। जो इस आंतरिक लिंग देव की पूजा करता है, उसके जन्म-जन्म के पाप कट जाते है। पर इस परम ज्योति को प्राप्त कैसे किया जाए। इसके लिए एक और प्रश्न आता है। क्या केवल भगवान शिव ही त्रिनेत्रधारी हैं? नहीं! उनके स्वरूप का यह पहलू हमको गूढ़ संकेत देता है। वह यह कि हम सब भी तीन नेत्रों वाले हैं। हम सबके आज्ञा चक्र पर एक तीसरा नेत्र स्थित है। पर यह नेत्र जन्म से बंद रहता है। इसलिए भगवान शिव का जागृत तीसरा नेत्र प्रेरित करता है कि हम भी पूर्ण गुरु की शरण प्राप्त कर अपना यह शिव-नेत्र जागृत कराएँ। जैसे ही हमारा यह नेत्र खुलेगा, हम अपने भीतर समाई ब्रह्म-सत्ता जो कि प्रकाश स्वरूप में विद्यमान है का साक्षात्कार करेंगे।

भगवान शिव के बाहरी पूजन से कई गुणा महिमाशाली है- अंतर्जगत में ज्योतिर्लिंग रूप में उनका दर्शन कर साधना करना। इसलिए शिव को तत्त्व रूप में जानकर वास्तविक शिवरात्रि मनाएँ।         

डमरू/घंटे- भीतरी अनहद नाद का प्रतीक

क्या भगवान शिव के डमरू से भी कोई प्रेरणा मिलती है? अवश्य मिलती है! हमारे महापुरुषों व शास्त्रों के अनुसार मस्तक के ऊपरी भाग में ब्रह्मनाद की दिव्य धुनें निरंतर गूँजती रहती हैं। शिव जी का डमरू इस भीतरी नाद का ही प्रतीक है। भगवान शिव इस डमरू को धारण कर समाज को इसी नाद पर एकाग्र होने की प्रेरणा दे रहें हैं। और मंदिरों में जो घंटे बजते है वह इसी भीतरी अनहद नाद का प्रतीक है। उठो और पूर्ण तत्त्ववेत्ता गुरु से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर इस नाद को जागृत कराओ! क्योंकि यह ब्रह्मनाद अनियंत्रित मन को ईश्वर में लय करने की उत्तम युक्ति है- न नादसदृशो लयः (शिवसंहिता)।

शिवपुराण के अंतर्गत भगवान शिव और माँ पार्वती के मध्य संवाद आता है-

भगवान शिव- साधक को चाहिए कि वह प्रतिदिन सुखद आसन में बैठकर ध्यान-साधना करें। ध्यान के प्रगाढ़ होते ही उसे भिन्न-भिन्न प्रकार के शब्द या नाद सुनाई देंगे। जैसे कि बाँसुरी, घोष, कांस्य, श्रृंग, घंटा, वीणा, दुंदुभि, शंख, मेघ-गर्जन इत्यादि।

माँ पार्वती- भगवन्, क्या यह नाद ओंकार है या किसी प्रकार का मंत्र, अक्षर आदि है?

भगवान शिव- नहीं देवी! यह शब्दब्रह्म न ओंकार है, न मंत्र है, न बीज है, न अक्षर है। यह अनाहत नाद (बिना आघात के प्रकट होने वाला) है। यह अनहद है अर्थात् निरंतर बजता रहता है। इसका उच्चारण किए बिना ही चिंतन होता है। हे प्रिये! जो साधक इसका अनुसंधान करते हैं, वे काम और मृत्यु को जीतकर इस जगत में स्वच्छंद विचरण करते हैं। जो संसारी इस अनहद नाद का ज्ञान नहीं रखते, वे सदा मृत्यु के पाश में बंधे रहते हैं।

जलाभिषेक- भीतरी अमृत

शिवालय में शिवलिंग के ऊपर टंगा वह पात्र। उससे शिवलिंग पर बूँद-बूँद टपकता जल। यह दृश्य आपने सामान्यतः भगवान शिव से संबंधित मंदिर और पूजा स्थल पर देखा होगा। आध्यात्मिक शैली में इसे 'जलाभिषेक' कहा जाता है। किंतु यह इसका पूरा पहलू नहीं है।

शिवलिंग के ऊपर लटका जल-पात्र एक प्रकार की जल घड़ी (Water Clock) है। इसका आविष्कार वराहमिहिर ने किया था। उज्जैन में जन्म लेने वाले वराहमिहिर एक महान दार्शनिक, गणितज्ञ व खगोलज्ञ थे। जब वराहमिहिर ने इस अद्वितीय जल घड़ी का आविष्कार किया, तो पहली भेंट उन्होंने काशी स्थित शिव मंदिर में जाकर अपनी इस उपलब्धि को भगवान शिव के चरणों में समर्पित कर दिया। वहाँ के पंडित जी ने उनकी भेंट को शिवलिंग के ऊपर कुछ ऊँचाई पर स्थापित कर दिया। इसके पीछे उनकी यही पवित्र भावना रही होगी कि इस जल-पात्र से बूँद-बूँद करके जल शिवलिंग पर टपकता रहेगा और भगवान शिव का जलाभिषेक होता रहेगा। ऐसी मान्यता है कि तभी से यह जल घड़ी शिवालयों का सुशोभित अलंकार बन गई।

क्या वराहमिहिर के इस आविष्कार को काशी के पंडित द्वारा शिवलिंग के ऊपर स्थापित करना मात्र एक संयोग था?... तत्त्वज्ञान की दृष्टि से देखें, तो सच्चाई कुछ और ही दिखती है। कारण कि जल घड़ी का यह नायाब नमूना, उसकी विशेष बनावट स्वयं में एक गूढ़ आध्यात्मिक मर्म को समेटे हुए है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे पुजारी अवश्य ही तत्त्व का ज्ञान रखने वाले पुजारी रहे होंगे। सूक्ष्म जगत के ज्ञाता और अंतर्जगत की दिव्य अनुभूतियों के साक्षी होंगे।

वास्तव में, यह घटिका यंत्र अंतर्जगत के अतीन्द्रिय अनुभव का चित्रण है। हमारे सूक्ष्म जगत में सिर के ऊपरी भाग याने शिरोभाग में एक स्थल है, जिसे सहस्त्रार चक्र, ब्रह्मरंध्र या सहस्त्रदल कमल कहते हैं। अलग-अलग ग्रंथों में इसके लिए विभिन्न उपमाओं का प्रयोग किया गया है। कहीं पर इसे अमृत का कुँआ, तो कहीं उल्टा कमल कहा गया है। ब्रह्मज्ञानी द्रष्टाओं ने इसे 'उल्टा घड़ा' भी कहा है, जिसमें से एक धार या बूँद,-बूँद कर अमृत टपकता है।

ब्रह्मज्ञान की विधि से ही इसका रसपान किया जा सकता है। ब्रह्मानंद जी ने कहा है-

गगन बीच अमृत का कुँआ, सदा झरे सुखकारी रे।

अर्थात् आंतरिक गगन मण्डल (सिर के सबसे ऊँचे भाग) में एक अमृतकुंड है, जिससे लगातार आनंदमयी अमृत झरता रहता है। यह अंतर्जगत का एक गूढ़ रहस्य है। यह केवल सद्गुरु द्वारा ब्रह्मज्ञान में दीक्षित एक तत्त्वज्ञानी गुरमुख ही जान सकता है।

अतः पूर्ण गुरु से ब्रह्मज्ञान की दीक्षा प्राप्त कर तत्त्वज्ञानी बन शाश्वत ज्योति का साक्षात्कार करें, अनहद नाद का अलौकिक संगीत सुने तथा अमृत का पान करें। सिर्फ बहिर्मुखी रहकर बाहरी अभिव्यक्ति में ही न अटके रहें। ईश्वर को तत्त्वज्ञान से जानकर सही मायने में महाशिवरात्रि का पर्व मनाएँ। बाहरी संकेत हमें वास्तविक लक्ष्य की ओर अग्रसर करने के लिए है। तभी काल से छुटकारा है; नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय - और कोई अन्य मार्ग है ही नहीं!