शाही स्नान बाह्यजगत एवं अंतर्जगत में djjs blog

कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा आध्यात्मिक आयोजन है और सनातन धर्म में विशेष महत्व रखता है। इस मेले का मुख्य आकर्षण है शाही स्नान, जो न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि आध्यात्मिक साधना और शुद्धि का प्रतीक भी है। यह बाह्यजगत और अंतर्जगत—दोनों के गहन अर्थों को उजागर करता है।

बाह्यजगत में शाही स्नान का महत्व

बाह्य दृष्टिकोण से, शाही स्नान का महत्व पवित्र नदियों में स्नान करने से जुड़ा है। ऐसा माना जाता है कि कुंभ मेले के दौरान पवित्र नदियों में स्नान करने से व्यक्ति के सभी पाप धुल जाते हैं, और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। लाखों श्रद्धालु हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक, और उज्जैन जैसे स्थानों पर एकत्र होते हैं और शाही स्नान का लाभ उठाते हैं।

शाही स्नान में साधु-संतों और तपस्वियों का स्नान करना विशेष महत्व रखता है। परंपरागत रूप से सबसे पहले संत इन पवित्र नदियों में स्नान करते हैं, जिसे 'शाही स्नान' कहा जाता है। इसके बाद आम लोग इस पुण्य स्नान में भाग लेते हैं। साधु-संतों की साधना और तपस्या का ओज इस अनुष्ठान को दिव्यता से भर देता है। उनका आभामंडल और ऊर्जा क्षेत्र आसपास की पवित्रता और सकारात्मकता को बढ़ाते हैं। समर्पण और आस्था का प्रतीक यह शाही स्नान, बाहरी शुद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है।

अंतर्जगत में शाही स्नान का महत्व

शाही स्नान का बाहरी रूप जितना महत्वपूर्ण है, उसका आंतरिक अर्थ उतना ही गहरा है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, शाही स्नान मन की शुद्धि का प्रतीक है। यह मन के भीतर छिपी अशुद्धियों को धोने और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में कदम बढ़ाने का मार्ग दिखाता है। जिस प्रकार शाही स्नान से बाहरी शरीर शुद्ध होता है, उसी प्रकार ध्यान, साधना और आत्मचिंतन से अंतर्मन शुद्ध होता है। यह स्नान हमें इस भौतिक संसार से ऊपर उठकर आत्मा के गहन अनुभव की ओर ले जाता है।

जिस प्रकार बाह्य शाही स्नान का आरंभ साधु-संतों से होता है, उसी प्रकार अंतर्जगत में शाही स्नान के लिए भी पूर्ण तत्ववेत्ता  गुरु की अनिवार्यता होती है। पूर्ण गुरु ही वह शक्ति होते हैं जो हमारी आत्मा को अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाते हैं। उनके बिना अन्तःकरण की शुद्धि संभव नहीं है, क्योंकि वे ही हमें आत्म-स्वरूप का बोध कराते हैं।

पूर्ण गुरु ही हमें आत्म साक्षात्कार के सनातन विज्ञान ब्रह्मज्ञान की दीक्षा प्रदान करते हैं, जिससे हमारी आत्मिक विकास यात्रा आरम्भ होती हैं। इस दिव्य ज्ञान से सुषुम्ना नाड़ी जागृत होती है। इसके जागृत होते ही गुरु की दिव्य कृपा से मूलाधार में सुषुप्त दैवी शक्ति उर्ध्वगामी हो जाती है। जैसे गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम में स्नान से पवित्रता प्राप्त होती है, वैसे ही पूर्ण गुरु की कृपा से इड़ा (चंद्र नाड़ी), पिंगला (सूर्य नाड़ी), और सुषुम्ना (मध्य नाड़ी) का संगम हमारे भीतर स्थापित होता है। यह त्रिवेणी संगम हमारे माथे के बीच, तिलक स्थान पर होता है, जिसे तृतीय नेत्र स्थल या आज्ञा चक्र कहा जाता है। ब्रह्मज्ञान की ध्यान साधना द्वारा इस आंतरिक त्रिवेणी संगम में स्नान ही आंतरिक शुद्धि और कर्म-संस्कारों से मुक्ति का मार्ग है, जो हमें असीम आनंद और शांति की ओर ले जाता है।

इसलिए दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान का आवाहन है इस कुम्भ बाहरी त्रिवेणी के साथ-साथ आज्ञा चक्र की त्रिवेणी में भी करें संगम स्नान!