निःसन्देह आज हमें देखकर परमात्मा प्रसन्न नहीं होगा। यह बुझा-सा चेहरा, लटके कंधे, झुकी नजरें, माथे पर बल और बोझिल कदम! क्या यही है परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति? हमारा प्रत्येक सहमा-सा स्वर आज हमारी हार का डंका पीट रहा है। हमारे ओजस्वी चेहरे को परेशानियों के ग्रहण ने बदसूरत कर दिया है। हमारी जिन्दगी परिस्थितियों की आंधी में बिखर चुकी है।
लेकिन किसी ने बहुत खूब कहा- आंधियों को दोष मत दो, तूफान पर नाहक गिला मत करो कि उन्होंने हमें उजाड़ दिया। कहीं का नहीं छोड़ा! असल में कुसूर हमारा ही है कि हम तिनके थे, छोटे से कण थे! अगर हम भी विशालकाय पर्वत बन गए होते, तो आंधियों की क्या जुर्रत थी कि हमें हिला पातीं, डिगा पातीं। कहने का भाव कि मुसीबतों से घबराओ नहीं, उनका डटकर सामना करो। अपने जीवन की हर अमावस्या को पूर्णिमा में परिणित करने का जज्बा रखो।
महापुरुषों का आदर्शमयी जीवन भी हमें यही प्रेरणा देता है। उनके हौंसलो की गर्जना के आगे प्रत्येक परेशानी सहम कर लौट जाती थी। उनके संयम और धैर्य की शीतलता से बड़े-बड़े ज्वालामुखी शांत हो जाते थे। उनकी सकारात्मक सोच दुःख की कालिमा में भी सुख का उजाला कर देती थी। जिस दिन श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के अन्तिम दो पुत्र धर्म को बलिदान हुए, उस दिन भी वे दरबार में पधारे। हजारों शोक संतप्त शिष्य, भीगी पलकों से, उन्हें निहारने लगे। तभी गुरु महाराज जी ने शबद-कीर्तन करने का आदेश दिया। सब हैरान व स्तब्ध रह गए। एक सेवक ने हाथ जोड़कर गुरु महाराज जी से पूछा, ‘महाराज जी, जिस घड़ी में रुदन, विलाप होना चाहिए, उसमें ढोलक, छैणों और हारमोनियम के सुर क्या आपको आहत नहीं करेंगे? क्या अपने चार पुत्रों के जुदा होने का आपको कोई ग़म नहीं?’ तब गुरु गोविंद सिंह जी ने संगत की तरफ इशारा करके जो जवाब दिया, उसे किसी शायर ने बड़े सुन्दर लफ्जों में कहा-
इन पुत्रन के सीस पर, वार दिये सुत चार।
चार मुये तो क्या हुआ, जीवित कई हजार।।
द्वापर में भी ऐसे ही एक महान अवतार का प्राकट्य हुआ था, जिन्हें आज संसार भगवान श्री कृष्ण के नाम से पूजता है। उनका सम्पूर्ण जीवन संघर्ष की एक खुली किताब है। जन्म से लेकर देहावसान तक, शायद ही उनके जीवन में कभी सुख-चैन की घड़ियाँ आईं हों। लेकिन अपने बुलंद इरादों से उन्होंने हर विलापमय क्षण को मांगल्य के क्षणों में तब्दील कर दिया। हर ढल चुकी शाम को दोपहर की तरह स्वर्णिम बना दिया। उन्होंने दिखा दिया इस निराश दुनिया को, कि कैसे सर्प के सिर से जहर की जगह मणि की प्राप्ति की जा सकती है! कैसे सागर की उफनती लहरों में डूबने की जगह, उन पर तैरा जा सकता है! आइए, हम भी उनकी जीवन-लीला से अपने लिए प्रेरणा के कुछ रत्न चुनें।
सबसे पहले, हम उनके जन्म का समय देखें। रात्रि बारह बजे! यह ऐसा समय है, जब विराट सूर्य भी अंधकार की गहरी खाई में खो जाता है। कहीं कोई चिड़ियों की चहचहाहट नहीं होती। अगर होती है तो मात्र उल्लू और चमगादड़ों के उड़ने की फड़फड़ाहट या कुत्तों के भौंकने और रोने की आवाजें। यह ऐसा अपवित्र समय है, जब पवित्र धर्मिक स्थलों के दीये भी थककर बुझ जाते हैं। अगर कहीं कोई महफिल जगमगाती है, तो वह है शराबखाना या फिर वेश्या का कोठा। कहीं कोई जागता है, तो वे हैं चोर और लुटेरे। यह समय देवताओं के रमण का नहीं, अपितु भूत-प्रेतों के नग्न तांडव का होता है। चंद शब्दों में समेटें तो, रात्रि के बारह बजे संसार की प्रत्येक क्रिया काली होती है।
लेकिन भगवान कृष्ण ने यह कालिमा नहीं देखी। अगर कुछ देखा तो वह थी चंद्रमा की उज्जवल रोशनी! चोर-लुटेरों की वासना उनको नजर नहीं आई। लेकिन हाँ! चकोर का शुद्ध प्रेम भा गया। कमल का फूल भले ही सूर्यास्त के साथ मुरझा गया था, लेकिन उनकी दृष्टि ने रात की रानी नामक फूल को खिले देखा। भगवान कृष्ण को मानो दिन में अकेला-तन्हां भटकता सूर्य पसंद नहीं था। तभी असंख्य तारों से जगमगाते आसमां को तरजीह दी। उन्होंने घोर रात्रि को अपने जन्म का लगन चुनकर, यह दिखा दिया कि इंसान की सोच ही समय को अनुकूल या प्रतिकूल बनाती है। हम समय के गुलाम नहीं, बल्कि वह ही हमारा गुलाम है।
भगवान कृष्ण का जन्म स्थल भी क्या था? कारागार! अत्यंत अशोभनीय स्थान! ऐसा स्थान जहाँ केवल आहें और सिसकियाँ गूँजती हैं, किसी शिशु की किलकारियाँ नहीं! जहाँ प्रभु की कथा नहीं बांची जाती बल्कि कत्ल, डकैती और अपहरण के षड़यंत्रा रचे जाते हैं। एक बार यदि सूर्य की उजली किरणें भी यहाँ चली आएँ तो शायद दागदार हो जाएँ। यहाँ आकर कोई भी सज्जन व्यक्ति उम्र भर सिर उठाने के काबिल नहीं रहता। लेकिन प्रभु कृष्ण ने अद्भुत कार्य किया। यहीं पर जन्म लेकर उन्होंने सारी दुनिया को दिखा दिया कि जन्म-स्थान के कारण कोई महान नहीं होता। महान होता है तो अपने कर्मों से! आप संसार के कैदखाने में जन्म लेकर भी कैदी की तरह नहीं, एक जेलर की तरह जी सकते हैं। जो कारागार में होते हुए भी बंधन में नहीं है, मुक्त है।
बांस का एक और अवगुण है- खोखलापन। खोखला अर्थात् खाली होना। संसार में लोग खाली चीज को अच्छा नहीं मानते। जैसे अगर रास्ते मे कोई खाली घड़ा लेकर आता दिख जाए, तो अपशकुन माना जाता है। लेकिन हमारे कृष्ण तो उलट ही हैं। उन्हें भरे हुए मटके पसंद नहीं। वे अकसर अपनी गुलेल से भरे घडे़ फोड़ दिया करते थे। कारण? ये भरे घडे़ अहं का प्रतीक थे। और कृष्ण को अहं पसंद नहीं। वह अपने भक्त में खालीपन ही चाहता है। उसमें ‘कुछ होने’ का अहंकार नहीं।
इसके बाद जब वसुदेव प्रभु को लेकर यमुना पार करने लगे, तो भयंकर तूफान और बारिश होने लगी। प्रभु ने एक विशालकाय सर्प द्वारा अपने पर छाया करवाई। सर्प काल का प्रतीक माना जाता है। उसका कार्य ही मृत्यु देना है। लेकिन भगवान कृष्ण ने उसे अपना रक्षक बनाया। इस लीला द्वारा उन्होंने समाज के समक्ष एक बहुत विस्फोटक विचार रखा कि, यदि काल से भागना चाहोगे, तो नहीं भाग पाओगे। इसलिए उसे अपना मित्र बना लो। जब दुश्मन को ही दोस्त बना लिया, तो उससे भय कैसा? बल्कि अब दुश्मन ही तुम्हारी रक्षा करेगा। जिसका काल ही रक्षक हो जाये, उसे भला कैसे कोई हरा सकता है? उसकी जीत तो निश्चित ही है।
तत्पश्चात् भगवान कृष्ण नंद बाबा के घर पहुँचे। अब यहाँ, पूरा-का-पूरा गाँव उनके दर्शन करने के लिए उमड़ पड़ा। सब उनके रूप-रंग पर मंत्रमुग्ध हो गए। कृष्ण शब्द का अर्थ ही होता है- आकर्षित करने वाला। लेकिन अगर गौर करें, तो भगवान कृष्ण का रंग कैसा था? काला! उनकी त्वचा श्याम रंग की थी। और यह तो जगजाहिर है, कि काला रंग अच्छा नहीं माना जाता। यह सब रंगों में सबसे अशुभ और उपेक्षित रंग है। लेकिन श्री कृष्ण ने यही रंग अपने लिए चुना। न केवल चुना, बल्कि अपने महान दृष्टिकोण से इस रंग में भी गुण ढूँढ़ निकाले।
उन्होंने मानो समाज को यह समझाना चाहा कि काला रंग निन्दनीय नहीं, पूजनीय है। इसमें बहुत सी विशेषताएँ हैं। जैसे कि यह एक पूर्ण रंग है। यही एकमात्र ऐसा रंग है, जिस पर कभी कोई और रंग नहीं चढ़ता। अन्य सभी रंग तो किसी भी रंग में रंगे जा सकते हैं। पर श्याम, श्याम ही रहेगा। बल्कि अपने संसर्ग में आने वाले हर रंग को भी अपने जैसा ही कर लेगा। इसलिए मीराबाई जी ने भी कहा-
लाल न रंगाउँ मैं हरी न रंगाउँ।
श्याम रंग में मोहे रंग दे सांवरिया।।
ऐसी और भी अनेक लीलाएँ हैं, जैसे छठी के दिन ही राक्षसी पूतना का वध, मात्र सात साल की आयु में गोवर्धन पर्वत उठाना, महाभारत युद्ध आदि- जो भगवान कृष्ण के बुलंद हौंसलों और स्वस्थ सोच को प्रदर्शित करती हैं। पर सभी का यहाँ विवरण देना न तो संभव है, और न ही शायद आवश्यक! जिस प्रकार किसी पेड़ के मात्र एक फल को चखने पर हमें पूरे पेड़ की जानकारी हो जाती है। उसी प्रकार भगवान कृष्ण के जीवन से प्रेरणा लेने के लिए मात्र कुछेक घटनाओं का अध्ययन ही पर्याप्त है। सभी लीलाओं के द्वारा भगवान कृष्ण ने यही आदर्श रखा कि हर परिस्थिति में हम हौंसला रखते हुए, सकारात्मक सोच रखते हुए फतह हासिल करें।
लेकिन यह हौंसला और सकारात्मक सोच इंसान के भीतर तभी जन्म लेती है, जब उसका अंतस् प्रकाशित होता है। जब उसकी जाग्रत आत्मा से उसे आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त होती है। यह सम्भव है मात्र ब्रह्मज्ञान से! एक पूर्ण सतगुरु हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान कर परमात्मा के दिव्य प्रकाश रूप से जोड़ देते हैं। फलतः हमारा अंतस् आलोकित होता है और हम भगवान कृष्ण की तरह जीने की कला सीख पाते हैं।
जय श्री कृष्ण
जीवन का दूसरा नाम संघष है।
Awesome, nobody dislike
GREAT THOUGHT
Very great
Hey maharaj ji hm bhi aapko puri tarah samarpit ho jaye taki aap jaisa chahe vaisa hame banaa de . Jai shri ram. Ashu baba ki jay.
sach main bahut prerana mili padhke
Very encouraging and enriching. jmjk.
Very inspirational column........
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nice.
very inspirational ... jai shri Krishna ... jai maharaj ji ki .
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Thank आज यह बुक पढकर हमे बहु आचछा लगा Subhash Kumar ( Bihar Saharsa 852101)
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bahut hi achha