विद्या के बासंती फूल! djjs blog

विद्या, कला व ज्ञान की दैवी - माँ सरस्वती की वंदना के स्वर पूरी प्रकृति में गुंजायमान हो जाते हैं... जब माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचम तिथि पर बसंत पंचमी का पर्व आता है। इसी दिन से बसंत ऋतु का आरंभ हो जाता है। परंतु जहाँ प्रकृति बसंत के आरंभ को दर्शाती है कि इस 'बसंत' करो 'बस अंत' बुराइयों का, अंत हो संस्कार रहित शिक्षा का।

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में उद्घोषित किया-

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।  (गीता 10/35)

अर्थात् मैं महीनों में मार्गशीर्ष-अगहन हूँ और ऋतुओं में ऋतुराज बसंत हूँ।

यह ऋतुराज या बसंत का मौसम इस माह उत्साह के साथ झूम उठा है। बसंत पंचमी को 'श्री पंचमी' भी कहा गया। इसका मतलब इस पर्व में भारत के ऋषियों का कोई ओजस्वी तत्त्व ज़रूर निहित होगा। क्या है यह ओजस्वी तत्त्व?

इसे समझना है, तो बसंत पंचमी के एक अन्य नाम पर भी गौर करें- 'विद्या जयंती'। विद्या की देवी 'सरस्वती' के जन्म अथवा प्राकट्य का दिन!

कहते हैं, सृष्टि के आरंभिक काल में ब्रह्मा जी ने अद्भुत सृजन कार्य किया। परंतु इसके बावजूद वे अपनी सर्जना से संतुष्ट नहीं थे। कारण? निर्मित सृष्टि निःशब्द थी। हर ओर मौन था। सन्नाटा पसरा हुआ था। ऐसे में ब्रह्मा जी ने विष्णु जी की अनुमति से एक दैवी शक्ति की रचना की- देवी सरस्वती। यह दैवीय शक्ति ब्रह्मा जी के श्री मुख से प्रकट हुईं, इसीलिए 'वाग् दैवी' भी कहलाईं।

वाग् देवी माँ सरस्वती वीणा-वादिनी थीं। उनके प्रकटीकरण के साथ ही सकल सृष्टि संगीतमय हो गई। कण-कण से मधुर नाद झंकृत हो उठा। जल-धाराएँ 'कल-कल' ध्वनि में गुनगुना उठीं। पवन की चाल में सरसराहट भर आई। हर कंठ में वाणी समा गई। जड़- चेतनमय जगत, जो निःशब्द था, शब्दमय बन गया। 'सरस्वती' नाम में निहितार्थ भी तो यही है- सरस+मतुप् अर्थात् जो रस प्रवाह से युक्त हैं, सरस हैं, प्रवाह अथवा गति वाली हैं। संगीत व शब्दमय वाणी को प्रवाहशील करके ज्ञान अथवा विद्या भरती हैं।

ऋग्वेद की यह ऋचा माँ सरस्वती की उपासना करते हुए उद्घोष करती है-

अम्बितमे, नदीतमे, देवीतमे सरस्वती।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि।  (ऋग्वेद 2.8.14)

हे सरस्वती आप सब माताओं में सर्वश्रेष्ठ माँ हैं; सब नदियों में सर्वश्रेष्ठ नदी हैं; सब देवियों में सर्वश्रेष्ठ देवी हैं। हे माँ, आप ज्ञान की सर्वोत्तम प्रतिमूर्ति हैं।

माँ सरस्वती का स्वरूप चतुर्भुजी दर्शाया गया है। इन हाथों में सुशोभित चार अलंकार माँ शारदा की विद्या दात्री महिमा को ही बतलाते है। ये अलंकार हैं- अक्षमाला, वीणा, पुस्तक तथा वरद- मुद्रा। ये चारों अलंकार प्रत्यक्ष तौर पर विद्या के ही साधन हैं। वीणा 'संगीत विद्या' की प्रतीक है। पुस्तक 'साहित्यिक या शास्त्रीय विद्या' की प्रतीक है। अक्षमाला 'अक्षरों या वर्णों' की श्रृंखलाबद्ध लड़ी है।

इस अक्षमाला की अद्भुतता पर ऋषियों ने एक सम्पूर्ण उपनिषद् की रचना की है। यह है- 'अक्षमालिकोपनिषद्'। उपनिषद् के प्रारंभ में 'प्रजापति' 'भगवान कार्तिकेय' से प्रश्न करते हैं- 'सा किं लक्षणा' - अक्षमाला का लक्षण क्या है? 'का प्रतिष्ठा...किं फलं चेति' - अक्षमाला की क्या प्रतिष्ठा है? क्या फल है?

उत्तरस्वरूप भगवान कार्तिकेय बताते हैं कि अक्षमाला के एक-एक अक्ष (मनके) या वर्ण में दैवीय गुण समाए हुए हैं। एक-एक वर्ण दिव्य गुणों से परिपूर्ण है। अक्षमालिकोपनिषद् में प्रत्येक वर्ण में समाई दिव्यता को उजागर किया गया है। आगे भगवान कार्तिकेय ने यहाँ तक कहते हैं कि पृथ्वी, अंतरिक्ष व स्वर्ग आदि के देवगण (दैवी शक्तियाँ) इस अक्षमाला में समाहित हैं-

ये देवाः पृथिवीपदस्तेभ्यो...अन्तरिक्षसदस्तेभ्य...
दिविषदस्तेभ्यो...नमो भगवन्तोऽनुमदन्तु...।

अर्थात् जो देवगण पृथिवी में, अंतरिक्ष में और स्वर्ग में निवास करते हैं- वे सभी मेरी इस अक्षमाला में प्रतिष्ठित हों।

इसके आगे के मंत्रों में कार्तिकेय जी ने कहा कि समस्त विद्याओ और कलाओं की स्त्रोत यह अक्षमाला ही हैं- 'ये मंत्रा या विद्यास्तेभ्यो नमस्ताभ्य...' अर्थात् इस लोक में जो सारे मंत्र और सारी विद्याएँ व कलाएँ हैं- उन्हें नमन है। इनकी शक्तियाँ मेरी इस अक्षमाला में प्रतिष्ठित हों। अतः अक्षमालिकोपनिषद् के अनुसार समस्त विद्याओं और कलाओं का उद्भव स्त्रोत है, यह अक्षमाला।

माँ सरस्वती का वरद-मुद्रा में उठा हुआ चौथा हाथ इस दिव्य गुणवती विद्या का ही आशीष देता है।    

भारतीय संस्कृति में विद्या और विद्या दैवी

हम देखें कि हमारी संस्कृति में विद्या और विद्या दैवी सरस्वती का स्वरूप कितना सकारात्मक, शुद्ध, सत्य एवं दिव्य दर्शाया गया है। इसके विपरीत हम आज के पढ़े-लिखे वर्ग को देखें। ऐसा लगता है, पढ़ाई ने उन्हें अहंकारी बना दिया। अकडू और तानाशाह बना डाला, जिनकी नाक की नोंक पर गुस्सा सजा रहता है! भौंहे तनी और दिमाग गर्म रहता है! यह पढ़ा-लिखा वर्ग तर्कशील बाणों से भरा तुनीर पीठ पर लादे रखता है। आग्नेय अस्त्र उसकी वाणी से यूँ ही छूटा करते हैं। स्वार्थ की मय और आत्मप्रशंसा का मद उसे मदहोश रखता है।

एकाग्रचित्त हो चिंतन करके देखिए... क्या यही विद्या के अर्थी की पहचान है? माँ सरस्वती का वरद इतना विकृत परिणाम नहीं दे सकता! शास्त्रों के अनुसार यह 'विद्या' नहीं, मात्र 'कोरी शिक्षा' है। हमारे 'विद्या के आलय' केवल कागज़ों पर वर्णों को उकेर कर उन्हें रटना सिखा रहे हैं। अक्षमाला के मनकों का साक्षात्कार नहीं करा रहे। मतलब विद्या के दिव्य गुणों को विद्यार्थियों में नहीं भर रहे।

 

गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी ने अपने विद्वान शिष्यों से अक्सर कहते हैं- 'केवल पढ़ना-लिखना या शब्दों का ज्ञान होना काफी नहीं। ऋषियों ने कहा है- 'विद्या ददाति विनयं' -विद्या तुम्हें विनयशील या विनम्र बनाती है। प्लेटो ने भी कहा है- 'Knowledge is Virtue' - ज्ञान सद्गुण है। इसलिए विद्वता के साथ सद्वृत्तियों को भी धारण करो।'

वास्तव में, यही विद्या का पूर्ण और यथार्थ स्वरूप है। इसी सुविद्या की प्रतीक है, देवी माँ सरस्वती। आप देखिए, माँ शारदा की रूप-सज्जा में बहुतायत में 'श्वेत' रंग का ही वर्णन मिलता है। वेद कहते हैं-

या कुन्देन्दु तुषार हार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणा वर दण्डमण्डित करा या श्वेत पद्मासना।...
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा।

अर्थात् देवी सरस्वती शीतल चंद्रमा की किरणों से गिरती हुई ओस-बूँदों के श्वेत हार से सुसज्जित हैं। शुभ्र वस्त्रों से आवृत हैं। वीणा धारिणी वर मुद्रा में अति धवल (सफेद) कमल रूपी आसन पर विराजमान हैं।... ऐसी देवी सरस्वती हमारी बुद्धि की जड़ता को नष्ट करें। हमें प्रकाशित बुध्दि और सुंदर मेधा से युक्त करें।

'श्वेत' वर्ण उजाले की ओर संकेत करता है। पवित्रता और शुध्दता का पर्याय है। शुभ और श्री का सम्बोधन है। माँ शारदा का वाहन हंस भी दूध के समान अति धवल है, जो 'नीर-क्षीर विवेक' को दर्शाता है; ऐसी सुबुद्धि को, जो सही-गलत का ठीक तरह से निर्णय करना जानती है।  

भारतीय पर्वों का विज्ञान भी- बसंत पंचमी

बसंत पंचमी के पर्व को माँ सरस्वती के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। सरस्वती का प्राकट्य माने जीवन में पूर्ण सुविद्या का प्रकटीकरण। इसी बसंत पंचमी के बाद ऋतुराज बसंत का मनमोहक मौसम शुरू होता है। खेतों में गेहूँ की बालियाँ लहलहा उठती हैं। सरसों के बसंती फूल ह्रदय को हर्षाने लगते है। आमों पर बौर... कोयल का मधुर स्वर... नवगात, नवपल्लव, नवकुसुम नवगंध के संग... प्रकृति को आनंदयुक्त बना देते हैं-

चंचल पग दीप से धर-शिखा,
गृह, मग, वन में आया वसन्त।
सुलगा फाल्गुन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनन्त!
पल्लव-पल्लव में नवल
रुधिर-पत्रों में मांसलरंग खिला-
आया नीलीपीली लौ से,
पुष्पों के चित्रित दीप जला।

बसंत के इस सौंदर्य में 'सौम्यता' सबसे बड़ा गुण होता है। न ठंड की ठिठुरन होती है, न गर्मी का ताप। हवा शीतल और सुहावनी हो जाती है। पंच तत्त्व- जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि अपना प्रकोप छोड़कर सौम्यता धारण कर लेते हैं। सुन्दर, स्वच्छ और सुखदाता बन जाते हैं। मौसम अपने पावन रूप में प्रकट होता है।

इस पूरी प्रक्रिया में कितना दिव्य संकेत है! बसंत पंचमी के दिन, विद्या की देवी सरस्वती प्रकट हुई; उनके प्रकट होते ही प्रकृति ने अपनी उग्रता छोड़ दी। पवन शीतल बनकर सबको अपने सौम्य-स्पर्श से सहलाने लगी।

इसमें प्रेरणादायक शिक्षा है। जब हमारे भीतर विद्या जागृत हो, तो हमारी प्रकृति और प्रवृत्ति भी सौम्य हो जानी चाहिए। विनयशीलता की सुहावनी बयार हमारे व्यवहार से बहनी चाहिए। यही 'विद्या' का रहस्य है। विद्या केवल मस्तिष्क को नहीं जगाती। हमारी चेतना में परिवर्तन को भी जागृत करती है। तभी ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं-
   
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनांवित्र्यवतुः।

अर्थात् माँ सरस्वती परम चेतना हैं, जो हमारी बुद्धि प्रज्ञा और मनोवृत्तियों को सन्मार्ग दिखाती हैं। यदि ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ प्राप्त करके भी यह सद्चेतना भीतर नहीं जागी, तो समझ लेना चाहिए कि सच्ची विद्या हासिल नहीं हुई। माँ सरस्वती का आशीर्वाद नहीं मिला। जीवन में न तो आंतरिक बसंत पंचमी आई, न माँ शारदा का प्रकटीकरण हुआ और न ही ऋतुराज बसंत का!

TAGS lifestyle