ध्यान=ध्याता+ध्येय (भाग-1/2) djjs blog

'मैं सम्पूर्ण सृष्टि को अँगुली पर उठा सकता हूँ, अगर मुझे उस स्थिर-बिंदु (Stand Point) का पता चल जाए!' यह बात बरसों पहले गणित के विलक्षण सूत्रों के खोजकर्ता 'आर्कमिडीज' ने कही थी। यदि हम इस कथन को सतही तौर पर समझने की कोशिश करेंगे, तो निश्चय ही भ्रम में पड़ जाएँगे। भला केवल एक बिंदु के आधार पर कोई सम्पूर्ण सृष्टि को कैसे नियंत्रित कर सकता है? जैसे एक गाड़ी के पहिए की भी स्थिर धुरी है, तभी गाड़ी सुचारू ढंग से गति पकड़ती है। इसी प्रकार सकल चलायमान सृष्टि के केंद्र में भी कोई तो आधारभूत स्थिर बिंदु होना चाहिए। वे जानते थे कि इस स्थिर सत्ता को खोजकर सारी सृष्टि पर स्वामित्व पाया जा सकता है। लेकिन अफसोस! खोज की दिशा सही नहीं रही। आर्कमिडीज उस स्थिर बिंदु को अंतरिक्ष मंडल अर्थात् बाहरी अस्थिर जगत में खोजते रहे। इसलिए सदा असफल रहे।

ठीक यही आज के एक इंसान की कहानी है। दौड़-भाग, आपाधापी से पूर्ण ज़िन्दगी! हर पल में प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता! जीवन के हर पक्ष में गति! कर्म में गति! मन के विचारों में गति! जीवन की इस गति के पीछे कोई तो ऐसी स्थिर सत्ता होनी चाहिए, जो हमारे अस्तित्व का आधार भी हो परंतु इस 'स्थिर सत्ता' के सम्बंध में इतनी जानकारी ही काफी नहीं। इस सत्ता को खोजकर उससे जुड़ाव होना उससे भी अधिक ज़रूरी है। कारण कि केवल गति 'अस्थिरता' को जन्म देती है। अस्थिरता से तनाव और व्याकुलता की स्थिति बनती है। तंत्रिक विज्ञान कहता है, हमारा मस्तिष्क प्रति सैकण्ड 400 बिलियन सूचनाओं पर काम करता है। मस्तिष्क की यह लगातार गति (Continuous Brain Processing) ही उसकी तंत्रिकाओं में अकसर खिंचाव और तनाव पैदा कर देती है। इसी तरह मन में विचारों की अक्षुण्ण गति इंसान को विकल बनाए रखती है। अगर हम मन में प्रति सैकण्ड उठते विचारों को कह दें- 'Thoughts Per Second (TPS)', तो कई सर्वेक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि-

 TPS is directly proportional to Unrest

अर्थात् जितना-जितना आपके मन में विचारों का झंझावात उठेगा, उतना ही आप अस्थिर और तनावयुक्त होते जाएँगे।

इस विकलता से उबरने का एक ही उपाय है। वह यह कि हम अपने अस्तित्व के उस आधारभूत स्थिर-बिंदु को खोजें और उससे जुड़ने की कला सीख लें। क्या है यह कला? हमारे आर्य ग्रंथों में स्थिर-जीवन की इस पद्धति को कहा गया- 'ध्यान'। आज की प्रचलित भाषा में इसे कहा जाता है- 'Meditation' (यद्यपि 'मेडिटेशन' शब्द 'ध्यान' की गरिमा को पूर्णतः सम्बोधित नहीं करता)। सच यह है कि आज मेडिटेशन करना एक ट्रेंड या स्टेटस सिंबल बन गया है। यही कारण है कि आज तनावमुक्त शांति पाने के लिए अर्थात् उस स्थिर बिंदु की खोज में लोग अमूमन तौर पर विभिन्न ध्यान-केंद्रों पर जा रहे है। विभिन्न तरह की Meditation Technique अर्थात् ध्यान पद्धतियों पर प्रयोग कर रहे हैं।

आज की कुछ प्रचलित मेडिटेशन तकनीक-

1.Mindful Meditation

2. Transcendental Meditation

3.Walking Meditation

4.Journey Meditation

5. Vibration Meditation

6. Objective Meditation

7. Movement Meditation

8. Breathing Meditation

निःसंदेह, इनके द्वारा एक व्यक्ति को अपने तनावग्रस्त जीवन में कुछ स्वस्थ पल मिलते हैं। तन-मन में शांति और अमन का अनुभव होता है। परंतु कितने समय के लिए और किस हद तक? यह सफल जीवन के प्रभावशाली सूत्र कही जा सकती है। परंतु 'ध्यान' के जिस उच्चतम उद्देश्य को हम लेकर चल रहे हैं अर्थात् उस परम स्थिर-बिंदु से संयोग - क्या इनके द्वारा यह लक्ष्य सध पाता है? थोड़ा भी चिंतन करने पर हम पाएँगे कि इनमें से अनेक ध्यान-पद्धतियाँ पदार्थ या क्रिया विषयक हैं।

किसी पदार्थ, शब्द या क्रिया पर एकाग्रता- 'ध्यान' नहीं है!

इस वर्ग में वे सारी ध्यान-पद्धतियाँ आती हैं, जो व्यक्ति को किसी वस्तुविशेष या कोई शाब्दिक मंत्र या कोई क्रिया/नर्तन मुद्रा पर फोकस करना सिखाती हैं। ये साधन व्यक्ति के मन के प्रवाह को थोड़े पलों के लिए बदल देते हैं और शांति का एहसास कराते हैं। परंतु इन सब विधियों का प्रभाव जल पर खींची रेखा की तरह क्षणिक और सतही होता है। सर्वप्रथम - अनित्य पदार्थों से कभी नित्य पदार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती - न हृध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी हमें अनित्य पदार्थों की बड़ी सटीक परिभाषा देते हैं- 'गो गोचर जहँ लग मन जाई, सो सब माया जानो भाई' - अर्थात् जहाँ-जहाँ हमारी इन्द्रियाँ जाती हैं और जिस-जिस दृश्य या पदार्थ का वे अनुभव करती हैं, वह सब मायास्वरूप है, परिवर्तनशील और अनित्य है। इसलिए सोचने की बात है कि फिर इन अनित्य पदार्थों (मोमबत्ती, बल्ब, फूल, शब्द/मन्त्र आदि) या क्रियाओं पर ध्यान केंद्रित कर हम कैसे नित्य शांति का अनुभव कर सकते है?

ये सभी ध्यान की विधियाँ इन्द्रियों की सहायता से क्रियान्वित की जाती हैं। शास्त्र कहते है मन को वश में करना बहुत कठिन है-

इन्द्रिन के बस मन रहै, मन के बस रहै बुद्ध।
कहो ध्यान कैसे लगै,
ऐसा जहां विरुद्ध।।

इन्द्रियों ने मन को अपने अधीन कर लिया और मन ने बुद्धि को अपने अधीन कर लिया जबकि चाहिये यह था कि बुद्धि मन को अपने अधीन रखती और मन इन्द्रिर्यों को अपने अधीन रखते।

हमारी आँख जिस शक्ति से देखती है, उसी आँख के ज़रिए उस शक्ति को कैसे देखा जा सकता है? समग्र तौर पर कहें, तो हमारी इन्द्रियाँ जिस शक्ति से संचालित हैं, वे पलट कर उसी को साक्षात्कार कैसे करें? दार्शनिक शोपनहॉवर ने भी उपनिषदों के अध्ययन के बाद यही प्रश्न उठाया था- 'How to hold the hand with that fork which the hand itself holds? With whom we know the universe, with what to know Him?' - अर्थात् हाथ को उस चिमटे से कैसे पकड़ा जाए, जिस हाथ ने स्वयं चिमटे को थामा हुआ है? उसका साक्षात्कार किस साधन, किस इन्द्रिय से करें, जिसके द्वारा हमारी ये सब इन्द्रियाँ ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार करती है?

केनोपनिषद् के ऋषि स्पष्ट कहते है- न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो... -हे जिज्ञासु, उस परम बिंदु तक न आँख पहुँचती है, न वाणी और न ही मन आदि।

किसी कल्पना पर एकाग्रता 'ध्यान' नहीं है!

ठीक यही गणित 'Journey Meditation' या उन ध्यान-पध्दतियों के लिए बैठता है, जो कल्पना की उड़ान पर टिकी हैं। मनोविज्ञान कहता है- 'Imagination is the faculty of Mind'- कल्पना मन की क्रिया है। काल्पनिक दृश्य 'Mind's eye' (मन की आँख) से गढ़े जाते हैं। और मन के सम्बंध में भी केनोपनिषदीय ऋषिवर का यही कहना है-

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम।
तदेव ब्रम्हा त्वं विध्दि नेदं यदिदमुपासते।।

जिसका मन से मनन या कल्पना नहीं की जा सकती, पर जिसके द्वारा मन मनन (कल्पना) करता है, वही एक परम-स्थिर बिंदु है। कहने का आशय कि वह कल्पनातीत है। इसलिए कल्पनाधारित साधना के साधन भी उसकी थाह नहीं पा सकते।

श्वास-प्रश्वास क्रियाएँ 'ध्यान' नहीं हैं!

यदि हम गौर करें, तो पाएँगे कि आजकल की सर्वाधिक प्रचलित ध्यान-तकनीक Breathing Techniques (श्वास-प्रश्वास क्रियाओं) पर आधारित हैं। परंतु श्वासों का नियंत्रण या शोधन ध्यान नहीं, 'प्राणायाम' कहलाता है। 'प्राणायाम' अर्थात् 'प्राणों का आयाम' - प्राण संबंधित व्यायाम। पातंजलि अष्टांग योग के अनुसार-

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधियोऽष्टावग्डानि (पा.यो.सू.2/29)

योग के आठ अंग हैं। कर्मानुसार 'प्राणायाम' चौथे स्तर पर और 'ध्यान' सातवें स्तर पर आता है। अतः जिन श्वास-प्रश्वास क्रियाओं को हम 'ध्यान-पद्धति' मान बैठे हैं, वे केवल विशेष प्राणायाम की विधियाँ ही हैं; और कुछ नहीं!

यही कारण है कि इन उक्त ध्यान-क्रियाओं के साधक भी आर्कमिडीज की ही तरह उस परम स्थिर-बिंदु को खोजने में असफल ही रह जाते है। केवल थोड़ी क्षणिक स्थिरता या मन बहलाव को ही ध्यान-फल मानकर संतुष्ट हो जाते हैं।

(फिर क्या है 'ध्यान' की सनातन सटीक परिभाषा? वह स्थिर-बिंदु कहाँ है व कैसे प्राप्त होगा? ये गूढ़ प्रश्न हैं, जिनका रहस्योद्घाटन अगले भाग में किया जाएगा)

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