ध्यान=ध्याता+ध्येय (भाग-2/2) djjs blog

विगत प्रथम भाग में हमने जाना कि हमारे जीवन के तनाव और व्याकुलता का केवल एक ही कारण है। वह है - अस्थिरता और इससे उबरने के लिए एक ही उपाय है कि हम अपने अस्तित्व के आधारभूत स्थिर-बिंदु को खोजें और उससे जुड़ने की कला सीख लें। हमारे आर्य-ग्रंथों के अनुसार इस कला अथवा स्थिर जीवन की पद्धति को 'ध्यान' कहा गया। ऐसा नहीं कि आज का समाज इस पद्धति की महत्ता से बेखबर है। आज कुकुरमुत्तों की तरह स्थान-स्थान पर ध्यान केंद्र खुल गए हैं, जिनमें तरह-तरह की मेडिटेशन तकनीकें सिखाई जाती हैं। इन ध्यान तकनीकों ने हमें निःसंदेह सहारा अवश्य दिया, परन्तु इतना अधूरा कि हम पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाए। अतः इस स्थिति में हमें एक ऐसे अनुभवी डॉक्टर अर्थात् पूर्ण सद्गुरु की दीक्षा खोजनी होगी, जो ध्यान-साधना की सटीक और उपयुक्त विधा प्रदान करने की सामर्थ्य रखते हों। ध्यान की शर्त क्या है-

बिन गुरु दिख्या कैसे ज्ञान, बिन पैखे कहो कैसो ध्यान।

जब तक गुरु के द्वारा दीक्षा प्राप्त नहीं होती तब तक कैसे जानेंगे क्या ज्ञान, देखा ही नहीं तो ध्यान कैसा!

एक है दीक्षा दूसरा है शिक्षा। दीक्षा का मतलब है दिखाना शिक्षा का मतलब समझाना। शिक्षा करने वाले तो बहुत है बचपन से शिक्षा मिल रही है किन्तु दीक्षा कहाँ है! दिखने का ढंग भी हमारे शास्त्र ग्रंथों में बताया गया है कि शरीर 9 द्वार संसार को देखने में सक्षम है लेकिन एक और द्वार है जिससे परमात्मा को देखा जाता है दिव्य चक्षु-दशम द्वार- Divine eye. आज्ञा चक्र जिस स्थान पर माताएं-बहनें बिंदी का प्रयोग करती है, भाई लोग तिलक का प्रयोग करते है। श्रीकृष्ण जी गीता में कहते है-

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्।।

-परन्तु मुझको तू इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में नि:संदेह समर्थ नहीं है; इसी में मैं तुझे दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु देता हूँ; उससे तू मेरी ईश्वरीय योग शक्ति को देख।

रामचरित मानस में कहा गया-

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के।
मिटहीं दोष दुख भव रजनी के।
सूझहिं राम चरित मनि मानिक।
गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक।।

- जब दिव्य चक्षु विमल नेत्र खुलता है तो हम अपने अंदर भगवान के दर्शन करते है। जब गुरु हमें दीक्षा देते है हमारे मष्तक पर हाथ रखते है, उसी क्षण हमारा दिव्य नेत्र खुलता है।

'ध्यान' की विशुद्ध परिभाषा हमें प्राप्त होती है- 'Meditation is not the cessation of outer experiences, dooming of faculties into 'Nothingness', rather it's a re-orientation of them towards the very supramental, Divine element inbuilt within us.' अर्थात् ध्यान-साधना बाह्य या ऐन्द्रिक अनुभवों का अवरोध करना भर नहीं है। अपने बोध को किसी :खालीपन' पर टिका देना भी नहीं; बल्कि ध्यान स्वबोध को एक दिव्य, अलौकिक, परमोज्जवल तत्व में ले जाना है, जो हमारे अंदर ही समाया है। सारांशतः 'ध्यान' सिर्फ आँखे मूंद कर, एक स्थान पर स्थिर होकर ज्ञान मुद्रा में बैठ जाना ही नहीं है। ध्यान बाह्य लोक में स्थित होकर 'अंतर्लोक' में पूरी गति से 'ध्येय' की ओर यात्रा करना है। स्वयं विचार करें- यदि हम एक शिकारी के हाथ में तीर-कमान पकड़ा दें, तो वह क्या करेगा? वह उसी समय प्रत्यंचा चढ़ाकर लक्ष्य (Target) की मांग करेगा। इसी प्रकार हमारी देह रूपी कमान के भीतर भी एक मन रूपी व्याकुल तीर है। उसे अवरोधित करना सम्भव नहीं। उसे भी साध्य-ध्येय की आवश्यकता है। अतः 'ध्येय' बिना 'ध्यान' असंभव है।

गणित की भाषा में कहें, तो 'ध्यान'='ध्याता'+'ध्येय'। ध्यान दो तत्वों का योग है ध्याता (Subject)और ध्येय (Object)। यदि 'ध्येय' होगा, तभी 'ध्यान' लगेगा। इसलिए आवश्यकता है- 'ध्येय' की। ध्येय समक्ष हो, तभी ध्यान का लक्ष्य-बाण सटीक बिंदु पर जा सधता है। अब देखा जाए, 'ध्याता' तो हम हैं। परंतु शुद्ध-विशुद्ध 'ध्यान' के लिए 'ध्येय' होना चाहिए।

'ध्यान' = ध्याता+?

अब हम उक्त प्रश्नचिन्ह का ही उत्तर जानेंगे। हमारे समस्त शास्त्र-ग्रंथों के अनुसार इस सकल जगत में साधने योग्य एकमात्र ध्येय वह चिरस्थायी सत्ता है, जो हर मनुष्य के भीतर स्थित 'प्रकाश स्वरूप आत्मा' है। यही वह स्थिर परम-बिंदु है, जो स्थायी और नित्य आनंद का केंद्र है। यही वह महा-लक्ष्य है, जिसे बींध कर हमारे मन का विकल तीर शांत हो सकता है। तभी गीता में जब यौद्धा अर्जुन ने अपने व्यग्र मन की दशा व दिशा रखी, तो प्रभु श्री कृष्ण ने 'ध्यान' की प्रक्रिया के सम्बंध में यही कहा -

यतो यतो निश्चरति मनश्चज्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्येतदात्मन्येव वशं नयेत्।। (गीता 6:26)

अर्थात् यह चंचल और अस्थिर मन जिन-जिन कारणों से विषयों में विचरण करता है, उन्हें संयमित कर 'आत्मा' के वश में लाएँ; आत्मा में स्थिर करें। 'आत्मा' रूपी 'ध्येय' में मन का स्थित हो जाना ही ध्यान है। स्वामी विवेकानंद भी कहा करते थे- 'I mean by Meditation- the mind trying to stand up on soul.'

उपनिषद में मनीषी कहते है- ह्रदय (यहाँ मस्तक पर स्थित आध्यात्मिक ह्रदय की बात की जा रही है) में ही आत्मा रूपी ध्येय का निवास है-  हृदि अयम्।

अपने 'दिव्य सिम कार्ड' को एक्टिवेट कराएँ!

यह आध्यात्मिक 'हृदय', जो आत्म-तत्त्व (ध्येय) का निवास स्थल है, हमारे मष्तक के बीचोंबीच अर्थात् आज्ञा चक्र पर स्थित माना गया है। किन्तु यहाँ जानने योग्य बात यह है कि इस आज्ञा चक्र पर सीधे मन को एकाग्र करने से भी काम नहीं बनेगा, ध्यान नहीं सधेगा। केवल अंधकार का ही साक्षात्कार कर पाएँगे, आत्मतत्व के प्रकाश से तो अब भी वंचित ही रहेंगे। हमारा यत्न ऐसा होगा जैसे बिना SIM Card वाले मोबाइल से सम्पर्क जोड़ना।

यह दिव्य सिम कार्ड (Spiritual SIM Card) क्या है? सभी प्रमाणित शास्त्रों के अनुसार इसे तृतीय नेत्र, दिव्य नेत्र या शिव नेत्र कहते हैं, जो हमारे आध्यात्मिक हृदय के बीचोंबीच स्थित होता है। एक पूर्ण गुरु 'ब्रह्मज्ञान' की दीक्षा देते समय इसी अलौकिक नेत्र को खोल देते है अर्थात् दिव्य सिम कार्ड को एक्टिवेट कर डालते है। इस दिव्य दृष्टि के प्राप्त करते ही, भीतर स्थित आत्म-तत्व का प्रकट दर्शन होता है। उपनिषद का कथन है-

ज्ञाननेत्रं समादाय उद्धरेद्वह्नि वत्परम्।
निष्कलं निश्चलं शान्तं तद्ब्रम्हाहमिति स्मृतम।।

अर्थात् अरणि मंथन से जैसे अग्नि प्राप्त होती है, उसी प्रकार ज्ञान-नेत्र (दिव्य-दृष्टि) द्वारा अग्नि के समान उज्ज्वल ब्रह्म-तत्त्व को साक्षात् प्रत्यक्ष करो।

पाश्चात्य दार्शनिक डेकार्ट ने भी अपने एक चित्र में इसी स्थल के इर्द-गिर्द तेज़ किरणें अथवा आभा-मंडल दिखलाया है। यह संकेत करने हेतु कि इसी स्थल पर आत्म-स्वरूप के विलक्षण प्रकाश की अनुभूति होती है। अकसर महानुभावों का यह मानना होता है कि आत्म या परमात्म तत्त्व दर्शनीय नहीं होता। परन्तु यह धारणा न तो शास्त्रानुकूल है और न ही तत्त्वज्ञानियों के मत से मेल रखती है।

अतः सद्गुरु द्वारा प्रकट 'दिव्य-नेत्र' से परम या आत्म-तत्त्व का दर्शन किया जाता है। इस प्रकाश स्वरूप में ही व्यक्ति का मन एकाग्र व लीन होता है।

और यहीं से होता है, 'ध्यान' का मंगलारम्भ! इसीलिए हमें अपने जीवन के अंदर ऐसे पूर्व सद्गुरु की खोज करनी है जो हमें दीक्षा प्रदान कर हमारे उस दिव्य चक्षु को खोल दें। जिसके बाद अंदर कुछ दिखे ध्येय मिले। हमारा ध्यान सफल हो पाए। यहीं शाश्वत्व प्रक्रिया हमारे समस्त धार्मिक ग्रंथ बताते है। जब मन को एकाग्रता मिलती है, तो हमारे विचार (thought) हमारे नियंत्रण में आते है। तो जीवन का हर एक कार्य नियंत्रण में होता है। Controlled जो हमारे कर्म है तो कार्य हमेशा अच्छा होगा। काम नियंत्रण में है तो हमारा आचरण (conduct) अच्छा बनता है। आचरण अच्छा है तो सारा का सारा जीवन ही अच्छा बनता है। और इस प्रकार जब एक-एक व्यक्ति अच्छा बनता है तो समस्त समाज विश्व ही कल्याण को प्राप्त होता है। फिर सब तरफ शांति और संतुष्टि की भावना पैदा होती है। तब जीवन में निराशा का कोई स्थान नहीं होता। अर्जुन के बारे में तो हमनें सभी ने सुना है कि वह एक महान व्यक्ति था । किन्तु उसकी महानता को पूर्णता तभी मिली जब श्रीकृष्ण जी ने ध्यान की शाश्वत्व प्रक्रिया (गीता 11:8) दी और अर्जुन श्रेष्ठ बन पाया।

सारांशतः 'बाहरी नेत्रों को बंद करना ध्यान नहीं, अपितु दिव्य-नेत्र का खुल जाना ध्यान का आरम्भ है।'

 

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