कोरोना... एक और किश्त! djjs blog

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सन् 2020 चल रहा है। आप और हम... होश संभाल कर, साक्षी बनकर... जरा पिछले दशक को देखें। क्या दिखा? वल्गाओं के बिना उड़ती-दौड़ती आधुनिकता! क्या केवल यही? नहीं! हमें दिखती हैं, विध्वंस का उफान लिए सुनामी लहरें! हरीकेन (चक्रवात) का अंधड़-तूफान! थल को लीलता बाढ़वत जल! जंगलों को झुलसाता दावानल! मौसमों की मनमानी, असंतुलित चाल! कहीं भीषण गर्मी, तो कहीं भीषण ठंड! मैली दूषित हवाएँ... इतनी कि साँस लेना भी दूभर! सूखते नल, बूँद-बूँद पानी को तरसते जन! कहीं अतिवृष्टि से, तो कहीं अल्पवृष्टि से नष्ट होती फसलें! पिघलते ग्लेशियर... गंजे और बौने होते पहाड़! क्या आप भी देख पा रहे हैं ये दर्दनाक दृश्य? प्रकृति का विध्वंसकारी तांडव? एक के बाद एक आपदा... ऐसा लगता है, मानो प्रकृति किश्तों में मृत्यु भेज रही है। मृत्यु की एक ऐसी ही किश्त वर्तमान में हमारे पास आई है, कोरोना संक्रमण के रूप में!
 
यह तो आपने सुना या पढ़ा ही होगा कि हाथी एक ऐसा जीव है, जो जंगल के राजा सिंह से भी टक्कर ले लेता है। अपनी लचीली सूंड में उसे लपेटकर पटकनी दे डालता है। परन्तु वहीं एक नगण्य सी चींटी उसी सूंड में प्रवेश कर भीमकाय गजराज को बेचैनी का नाच नचा डालती है। कोरोना द्वारा उत्पन्न वर्तमान स्थिति पर यही उपमा सटीक बैठती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह वायरस साधारण माइक्रोस्कोप से भी नहीं दिखता। शोधकर्ता ‘ब्लतव-मसमबजतवद उपबतवेबवचल’ की मदद से, तीव्र ऊर्जा से युक्त इलेक्ट्रॉन्स की धार द्वारा ही इस कोरोना वायरस के चित्र ले पाए। माने इतना सूक्ष्म है यह वायरस! इसकी यही सूक्ष्मता इतना प्रबल प्रभाव लिए हुए है कि पूरा विश्व इसकी भयावह तर्ज पर थिरकने को मजबूर हो गया है। 
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने इस स्थिति का संज्ञान लेते हुए स्पष्ट चेतावनी की घंटी बजा दी है और इसे सर्वव्यापी महामारी (चंदकमउपब) घोषित कर दिया गया है। बड़े-बड़े और तकनीकी शक्तियों से युक्त विकसित देशों में भी लोगों की जिन्दगी का चक्का जाम (लॉकडाउन) हो गया है। इस स्थिति से निपटने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय- सभी स्तरों के स्वास्थ्य संगठनों ने समाज के लिए कुछ परामर्श व सावधानियाँ जारी की हैं। आधुनिक प्रयोगशालाओं में इसकी दवा पर भी परीक्षण किए जा रहे हैं। परन्तु संकट के बादल आगे कितना फैलेंगे, सघन होंगे- कुछ नहीं कहा जा सकता। हमारी आशापूर्ण शुभकामना है कि जब तक यह पत्रिका आप तक पहुँचे और आप इसे पढ़ रहे हों- तब तक स्थिति संभलकर सुधार की रफ्रतार पकड़ चुकी हो।
लेकिन स्थिति संभलने पर भी, मुद्दे की बात वही की वही है। प्रकृति द्वारा लगातार भेजी जा रही मृत्यु की किश्तें--- मौत के पैगाम! पहले ये पैगाम स्थूल थे, क्षेत्र-विशेष थे। पर अब ये सूक्ष्म से सूक्ष्मतर, माने तीव्र से तीव्रतर होते हुए विश्वव्यापी हो चले हैं। क्या ऐसा नहीं लगता जैसे अपने उद्दंड बालक को सुधारने के लिए माँ उसे डाँटती-झिड़कती है। बालक न सुधरे, तो उसे एक थप्पड़ जड़ देती है। फिर भी न माने, तो घर में बंद कर उसके आने-जाने, खाने-पीने पर रोक लगा देती है! सजा का स्तर बढ़ाती जाती है। ऐसे ही, प्रकृति माँ भी हमें उग्र से उग्रतर दंड देने को विवश हो रही है।
 
इसलिए हमारे वैदिक पूर्वजों ने बताया-
यद् उग्रो देव ओषधयो वनस्पतयस्तेन। (कौषीतकि ब्राह्मण)
-औषधियों, वृक्ष-वनस्पतियों अर्थात् प्रकृति का एक रूप ‘उग्र’ भी है। जो माँ बनकर सतत रक्षा करती है, वही रुष्ट होने पर संहार भी करती है। 
 
शतपथ ब्राह्मण में इसी वस्तुस्थिति को एक दूसरे सादृश्य से समझाया गया-
ओषधयो वै पशुपतिः। (शतपथ ब्राह्मण, 6ः1ः3ः12)
अर्थात् प्रकृति पशुपति-भगवान शिव के समान है। शिव ‘शिव’ इसलिए हैं, क्योंकि वे विष का पान कर अमृत प्रदान करते हैं। प्रकृति द्वारा हमारे द्वारा फैलाए विष को निगल कर हमें जीवनदायी प्राण देती है। परन्तु शिव का एक दूसरा रूप ‘रुद्र’ भी है। भयंकर... संसार का नाशक और संहारक! जब समाज पतन की हदें पार कर दे, तो प्रकृति को भी रोद्ररूपा बन कर संहार का तांडव करना पड़ता है। कोरोना महामारी इसी प्राकृतिक तांडव की एक लघु झाँकी है।
 
इसलिए यजुर्वेद (6ः22) कहता है- ‘मा-ओषधीर्हिंसीः’- प्रकृति के साथ हिंसा मत करो। उसे मत सताओ।
ऋग्वेद के ट्टषि भी चेतावनी देते हैं-
 
अयमस्मान् वनस्पतिर्मा च हा मा च रीरिषत्। (ट्टग्वेद, 3ः53ः20)
 
- प्रकृति की इस कदर उपेक्षा मत करो। कहीं ऐसा न हो कि वह तुमसे रूठकर दंड देने को उतारू हो जाए!
 
इसलिए अब तो संभल जाएँ, सुधर जाएँ। सुधरने का एक ही उपाय है। यदि बाहरी प्रकृति को सुखद-सौम्य बनाना है, तो अपनी आंतरिक प्रकृति को सँवारें। गीता (7/4) बहुत मार्मिक सूत्र देती है-
 
भूमिरापो{नलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।
 
अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार- ये कुल 8 प्रकार की मेरी अपरा प्रकृति है।
 
गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी कहा करते हैं कि यह अपरा प्रकृति हमारे बाहरी और आंतरिक, दोनों स्तरों पर विद्यमान और क्रियाशील रहती है। इस बाहरी और आंतरिक अपरा प्रकृति में बराबर सामंजस्य बना रहता है। मानव समाज की जैसी आंतरिक प्रकृति या प्रवृत्ति होगी, बाहरी प्रकृति में वही प्रतिबिम्बित होगा। यदि मानव के पंच तत्त्व, मन बुद्धि, व अहंकार दूषित हाेंगे, तो वही दूषण बाहरी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, समष्टि के मन, बुद्धि, व अहंकार तत्त्व को प्रदूषित करेगा। यदि मानव के पंच तत्त्व, मन, बुद्धि आदि भूषित होंगे, तो वही भूषण बाहरी पृथ्वी, जल आदि को विभूषित करेगा। यह सनातन समीकरण है- ंद मजमतदंस मुनंजपवद! इसके हिसाब से तो यही समाधान निकलता है कि अपनी आंतरिक प्रकृति माने अपने मन-बुद्धि, अपनी सोच को बदला जाए। जब सामूहिक स्तर पर समाज की सोच बदलेगी, तभी सकारात्मक, अनुशासित व अहिंसक कर्म होगा। हम सुधरे हुए बालक की तरह आचरण करेंगे। तब सोचिए, प्रकृति माँ रुष्ट या उग्र क्यों होगी? क्योंकि दंड तो केवल उद्दंड को ही दिया जाता है।
 
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