सद्गुरु श्री आशुतोष महाराज जी ने अपने दिव्य विचारों के माध्यम से सदैव यही समझाया है कि उस परम लक्ष्य ईश्वर तक पहुंचने के लिए हर एक शिष्य को कठिन परीक्षाओं से गुज़रना ही पड़ता है ठीक उसी प्रकार जैसे एक गर्भस्थ शिशु को इस संसार में प्रवेश से पहले गर्भाग्नि से गुज़रना पड़ता है। पूर्ण गुरु की शरण एक शिष्य के लिए वो कार्यशाला है जहाँ ज्ञान की अग्नि में तप कर एक शिष्य कुंदन मानिंद दमक उठता है। धैर्य, भक्ति, समर्पण इत्यादि गुण उसे एक साधारण इंसान से एक सच्चा शिष्य बनाती है। साधना एवं सेवा रुपी खडग के माध्यम से पल प्रतिपल अपने मन के विकारों, कुसंस्कारों का अंत करते हुए एक शिष्य इस भक्ति मार्ग पर अग्रसर हो पाता है।
एक पूर्ण सद्गुरु अपने शिष्य के विकारों का अंत करते हुए उसे सद्गुणों से पोषित करते है। उनकी कृपादृष्टि उनके सभी शिष्यों में समान रूप से होती है। मासिक सत्संग कार्यक्रम एक माध्यम है ऐसे विचारों एवं गुरु की दिव्य प्रेरणाओं को प्रत्येक शिष्य तक पहुंचाने का। गुरु के दिव्य मिशन में दृढ़ता से बढ़ने के संकल्प हेतु पावन सन्देश के साथ साथ प्रत्येक माह की भांति 10 फरवरी को नूरमहल आश्रम, पंजाब में सत्संग समागम का आयोजन किया गया। जिसमें सुमधुर एवं भावपूर्ण भजनों, सत्संग विचारों एवं अनुभवों को मंच से सांझा किया गया।
सत्संग विचारों के माध्यम से बताया गया कि एक शिष्य का लक्ष्य सिर्फ परमात्मा होता है। शिष्यत्व की यात्रा कई उतार चढ़ावों से भरी होती है जहाँ आवश्यकता है गुरु के प्रति समर्पण उनके वचनों पे पूर्ण विश्वास की एवं निरंतर ध्यान साधना की। हमारा चंचल मन सदैव हमें अपने लक्ष्य से भटकाने की कोशिश करता है लेकिन एक सच्चा शिष्य मन की इस कुचाल से सचेत रहते हुए सदैव उस परम लक्ष्य की ओर केंद्रित रहता है। दृढ संकल्प के अभाव में हम अपनी ध्यान साधना को आज से कल और कल से परसों में टालते रहते है।
सत्संग विचारों में आदि गुरु शंकराचार्य जी के एक दृष्टान्त का वर्णन किया जहाँ उन्होंने मानव जाति के कल्याणार्थ कुछ समय के लिए अपने शरीर का त्याग कर एक राजा की मृत देह में प्रवेश किया था तथा साथ ही साथ अपने शिष्यों को अपनी देह के संरक्षण का दायित्व सौंपा था। अपने गुरु की इस आज्ञा को पूर्ण करने हेतु उनके शिष्यों ने अनेकोनेक कठिनाइयों एवं विषम परिस्तिथियों का सामना करते हुए अपने प्राण तक को दांव पर लगा कर अपने गुरु की आज्ञा का पालन किया था। गुरुदेव के पुनः अपनी देह को धारण करते ही शिष्यों ने अपनी परीक्षा उत्तीर्ण की और ये केवल धैर्य, साहस एवं अपने गुरु के वचनों पर पूर्ण विश्वास के कारण ही संभव हो पाया। इतिहास साक्षी है कि एक शिष्य के जीवन में आने वाली परीक्षाएं मापदंड होती है उसके धैर्य, और दृढ़ संकल्प का और जैसे जैसे शिष्य इन गुणों का परिचय देते हुए आगे बढ़ता है तो उसका मार्ग स्वयं ही प्रशस्त होता जाता है। आध्यात्म के मार्ग को बुद्धि से नहीं समझा जा सकता अपितु इसे केवल अपने सद्गुरु के चरणों में पूर्ण विश्वास के माध्यम से ही समझना संभव है। एक शिष्य का विश्वास चट्टान की भांति मज़बूत होना चाहिए तभी वह माया के कुचक्र से बच सकता है क्योंकि एक पूर्ण सतगुरु सर्व समर्थ सत्ता होते है और उनकी प्रत्येक लीला शिष्य के कल्याणार्थ ही होती है। इस कार्यक्रम ने संस्थान के दिव्य मिशन को उपस्थित संगत के बीच पुनः प्रसारित किया। धन्य हैं वे सभी भक्त आत्माएं जो सर्व श्री आशुतोष महाराज जी द्वारा इतिहास में दर्ज होने वाली इस महान क्रांति में उनके अनुगामी है।