'बुद्ध जयंती' के पावन पर्व पर प्रस्तुत है यह बुद्ध विषयक लेख । इस लेख में सिद्धार्थ से महाबुद्ध तक की विकास यात्रा दी जा रही है। यह एक सनातन प्रक्रिया है- साधक से साध्य में लीन होने की! मानव से भगवान बनने की!
सिद्धार्थ गौतम परिव्राजक बन गए। मगध राज्य की राजधानी राजगृह पहुँच गए। मगध का नरेश बिम्बिसार था। उसके कानों में समाचार पड़ा 'महाराज! कपिलवस्तु का राजकुमार, शाक्य-पुत्र सिद्धार्थ संन्यासी हो गया है। उसकी तपोस्थली मगध का पांडव-पर्वत बना है।' समाचार सुनते ही बिम्बिसार सिद्धार्थ से भेंट करने जा पहुँचे। दोनों के बीच एक संवाद शुरु हुआ। एक ओर 'संसार' के प्रतिनिधि थे बिम्बिसार; दूसरी ओर 'अध्यात्म' के जिज्ञासु पथिक या साधक थे सिद्धार्थ !
राजा बिम्बिसार- हे सुकुमार गौतम! तुम्हारे अंग चंदन और आभूषणों से सुसज्जित होने चाहियें, संन्यासी चीवर से नहीं। तुम्हारी भुजाओं में प्रजा-रक्षण का कौशल है। भिक्षापात्र थाम कर इनके शौर्य का निरादर मत करो।
सिद्धार्थ गौतम- हे राजन्! मुझे इतना न तो सर्पों से भय लगता है और न ही आकाश से होने वाले वज्रपात से, न ही अंगारों की तपिश से जितना भय इन्द्रियों के विषयों से लगता है... और राज्य तो विषयों का अगाध सागर है। मैं उसे कैसे स्वीकार कर लूँ?
राजा बिम्बिसार- परन्तु हे कुमार शास्त्र कहता है- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- जीवन के ये चार पुरुषार्थ हैं। तुम इस प्राकृतिक और शास्त्रीय श्रृंखला को क्यों तोड़ रहे हो?
सिद्धार्थ गौतम- क्योंकि मैं अनुभव कर चुका हूँ कि 'अर्थ' और 'काम' अनित्य और असंतोषकारी हैं। फिर मैं नश्वर को पाने हेतु पुरुषार्थ कैसे और क्यों करूँ?
राजा बिम्बिसार- हे तारुण्य के पुँज! क्या तुम्हें •ऐसा नहीं लगता कि अभी यौवन में विषयों को भोग लूँ। वार्द्धक्य में तो सारी इन्द्रियाँ क्षीण हो ही जाती हैं। विषय-भोगों को भोगने योग्य नहीं रहतीं। इसलिए वही उचित समय है, ईश्वर-लाभ करने का।
सिद्धार्थ गौतम- बुढ़ापे की प्रतीक्षा तो वह करे, जिसे मृत्यु से कोई आश्वासन-पत्र मिला हो? मैं तो नहीं जानता कि मैं अगले पल भी श्वास ले पाऊँगा या नहीं... हे राजन्! भीषण रोगों के बाण छोड़ता हुआ काल प्राणियों को बींधने के लिए तत्पर है। कुछ नहीं कह सकते, उसके बाण की नोंक किसकी ओर होगी बालक, किशोर, युवा या वृद्ध? तो फिर मैं किस आधार पर धर्म-लाभ के लिए बुढ़ापे की प्रतीक्षा करूँ?
राजा बिम्बिसार- परन्तु तुम्हें इस प्रकार वैरागी वेश में देखकर मेरा हृदय पीड़ित है और नेत्र नम हैं।
सिद्धार्थ गौतम- हे राजन्। संसार के दुःखों को देखकर मैं मर्मान्तक पीड़ा का अनुभव कर रहा हूँ। जीवन के चिरंतन दुःखों का अंत कर देना चाहता हूँ। इसीलिए शांति की खोज में निकला हूँ।
राजा विम्बिसार- जाओ गौतम! दुःख से पीड़ित समाज के लिए परम-औषधि खोज लाओ।
एक साधक की खोज...
सिद्धार्थ अपने पथ की खोज में निकल पड़े। साधना की अनेक परम्पराओं पर उन्होंने प्रयोग किया। तपस्या की प्रचलित पद्धतियों का परीक्षण किया। उग्र तप किया। आत्म-पीड़न के सभी साधन अपनाए। नितांत अल्पाहार किया। कभी-कभी तो जंगली फल या जड़ें खाकर गुज़ारा किया... छह वर्षों तक उनका तप उग्र से उग्रतम होता गया। देह हड्डियों का पिंजर मात्र रह गई। उदर और कमर के बीच केवल कुछ धमनियों का गुच्छा भर रह गया; शेष कुछ नहीं !
फिर एक दिन... सिद्धार्थ गौतम के भीतर तीव्र मनोमंथन चल पड़ा- 'मैंने देह को तो जैसे तैसे साध लिया, लेकिन मेरा मन और चित्त। इनका क्या? ये तो वैसे के वैसे ही हैं, फिर उस महान ज्ञान और अवस्था को कैसे पाऊँ, जो मन और चित्त को शांत करने पर ही प्राप्त होती है? नहीं!... नहीं... यह आत्म-पीड़न का मार्ग है, आत्म ज्ञान का नहीं! दुःखों को आमंत्रण है, दुःखों का समाधान नहीं... मैं इस प्रचण्ड हठयोग को अभी तिलांजलि देता हूँ।"
उस समय सिद्धार्थ गौतम न्यग्रोध वृक्ष तले बैठे थे। संयोग से, उस वृक्ष के पूजन हेतु तभी वहाँ कुमारी सुजाता का आगमन हुआ। वह अपने साथ स्वर्ण पात्र में खीर भी लाई थी। अनुभवी कहते हैं, सुजाता एक सिद्ध आत्मज्ञानी थी। हठयोग से अशक्त हुए गौतम को ज्ञान मार्ग पर प्रशस्त करने आई थी। खीर अर्पित करते हुए उसने गौतम से कहा था- 'वीणा की तारों को इतना ढीला भी मत छोड़ो कि उसमें से स्वर ही न प्रस्फुटित हो और इतना कसो भी मत कि वे तारें टूट ही जाएँ। मध्यम मार्ग ही श्रेष्ठ मार्ग है। सुजाता ने सिद्धार्थ गौतम को तत्त्वज्ञान भी प्रदान किया। इस तरह सिद्धार्थ की खोज पूर्ण हुई।
एक साधक का अटल संकल्प...!
सिद्धार्थ ने खीर ग्रहण की। उसी रात उन्हें पाँच दिव्य अनुभूतियाँ प्राप्त हुई। उन समस्त अनुभूतियों का केवल एक ही संकेत था कि उन्हें 'बोधि' प्राप्त होकर रहेगी। आशा के नए सूर्य के साथ, वे राजपथ से होते हुए 'गया' पहुँच गए। गया में पीपल के एक विशाल वृक्ष की छाँव तले वे पद्मासन लगाकर बैठ गए। नेत्र मूँदने से पहले सिद्धार्थ ने एक महासंकल्प लिया, जो युग-युगीन साधकों के लिए प्रेरणा के स्वर्णिम अक्षर हैं। वह महासंकल्प था- 'मैं 'बोधि' पाए बिना इस आसन से नहीं हिलूँगा। पूर्णता को प्राप्त किए बिना मैं अपनी साधना की शृंखला को नहीं तोडूँगा।'
एक साधक का भीषण संघर्ष
हरी हरी पत्तियों के छत्र तले गौतम ध्यानस्थ थे। तभी 'मार' ने पूरे दल-बल के साथ उनके मन और चित्त पर धावा बोला दिया। बौद्ध ग्रंथों में 'मार' बुरे विचारों, विकारों व कुसंस्कारों को कहते हैं। उधर गौतम पूर्ण धैर्य रखकर 'मार' के वार पर पलट वार करते रहे। यानी ध्यान के बाण से उन नकारात्मकताओं का हनन करते गए। अंतत: 'मार' को घायल होकर सदा-सदा के लिए विदा लेनी ही पड़ी।
एक साधक का बुद्धत्व!
चार सप्ताह तक गौतम प्रगाढ़ ध्यान में लीन रहे। केवल थोड़ा बहुत भोजन व जल ग्रहण करने हेतु वे नेत्र खोलते। अंततः तम विलीन हुआ। पूर्ण प्रकाश प्रखर हुआ। ज्ञान का भुवन भास्कर अंतर्जगत में देदीप्यमान हो उठा। सिद्धार्थ 'बुद्ध' हो गए। 'दुःख क्यों होता है?' 'दुःख कैसे दूर किया जाए?'- अंतर्जगत की गहन गहराइयों में गौतम ने इन प्रश्नों का समाधान खोज लिया। उनका यही शोध समाज के लिए 'धम्म' (धर्म) पथ बनकर उजागर हुआ।
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