गुरु की आवश्यकता- ज्ञान में भी, ध्यान में भी! | Akhand Gyan | Eternal Wisdom

गुरु की आवश्यकता- ज्ञान में भी, ध्यान में भी!

गुरु- एक ऐसा विषय, जो बहुत से लोगों को बहुत गुरु यानी भारी-भरकम और बोझिल सा लगता है। गुरु धारण करने के सम्बंध में अनेकानेक धारणाएँ हैं, शंकाएँ हैं, प्रश्न हैं! इतनी भ्रांतियों और भ्रमों के बीच, ज़्यादातर लोग इस विषय से दूर रहना ही बेहतर समझते हैं। परंतु जिस विषय से हम परहेज़ करते हैं, उसी को हमारे शास्त्र-ग्रंथ खुलकर हमारे सामने रखते हैं। गुरु तत्त्व में निहित महिमा और गरिमा के सत्त्व की एक-एक बूंद को अच्छी तरह जज़्ब करने का संदेश देते हैं। हमारे और शास्त्रों के मत में यह विरोधाभास क्यों?

द्वन्द्वों से लैस इस विषय से जुड़े कुछ अहम् मुद्दों व प्रश्नों पर यह लेख रोशनी डालेगा। आशा करते हैं, तथ्यों पर आधारित इस जानकारी से आप तथाकथित मान्यताओं व धारणाओं को विवेकपूर्ण आंक सकेंगे।

गुरु के सम्बंध में जो सबसे पहला प्रश्न उठता है, वह यही है- आखिर गुरु धारण ही क्यों करें? यह दुविधा ज़्यादातर लोगों के मन-मस्तिष्क में दस्तक देती है- ' जब हमारा ईश्वर से सीधा सम्पर्क है, हम उसे मानते हैं, भजते हैं, फिर गुरु क्यों?' इस बात का उत्तर इतिहास के पन्नों में दर्ज़ यह दृष्टांत हमें बड़ी स्पष्टता से देता है-

बारह वर्ष बीत चुके थे। परंतु शुकदेव माँ के गर्भ से बाहर आने को तैयार नहीं थे। पिता वेदव्यास जी द्वारा कारण पूछे जाने पर शुकदेव बोले- 'संसार में प्रवेश करते ही यह माया मुझे अपने पाश में बांध लेगी। मुझे मेरे ईश्वर से दूर कर देगी। अतः मैं बाहर नहीं आऊँगा।' तब वेदव्यास जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि माया का उन पर प्रभाव नहीं होगा। तब कहीं जाकर शुकदेव माँ के गर्भ से बाहर आए। अब माया का प्रभाव नहीं था, इसलिए मन में माया के प्रति वैराग्य और मायापति के लिए अनुराग भरपूर था। अतः अल्पायु में ही शुकदेव जंगलों में तपस्या करने निकल पड़े। खूब जप-तप किया। एक दिन मन में प्रभु दर्शन की तीव्र उत्कंठा उठी। सो, शुकदेव चल पड़े, बैकुण्ठ धाम की ओर। तपोबल इतना प्रखर था कि वे सहजता से बैकुण्ठ के द्वार तक पहुँच गए।पर यह क्या? द्वारपाल ने उनका स्वागत करने की बजाय उन्हें प्रभु का खरा-सा संदेश सुना दिया- 'प्रभु निगुरों को ( जिन्होंने सत्गुरु की शरणागति प्राप्त नहीं की) दर्शन नहीं देते।'

ओह शुकदेव मुनि के हृदय पर तो जैसे किसी ने गहरा आघात कर दिया। वे सुन्न खड़े रह गए। जिस ईश्वर के लिए उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया...  माया की छाया तक को अपने ऊपर पड़ने नहीं दिया...  सांसारिक सुख-ऐश्वर्यों को भोगना तो दूर, उनके स्पर्श से भी स्वयं को कोसों दूर रखा... आज उसी ईश्वर ने उनसे मुख फेर लिया। एक झलक तक नहीं दिखाई। उन्हें बैकुण्ठ के द्वार से ही लौटा दिया। क्यों?....

आखिर क्यों! जानने के लिए पढ़िए अक्टूबर'19 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।

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