पौराणिक काल की एक प्रसिद्ध कथा है, जिसके मुख्य पात्र थे- ऋषि विश्वामित्र और इक्ष्वाकु कुल के वंशज प्रसिद्ध राजा सत्यवादी हरिशचन्द्र का पुत्र सत्यव्रत। सत्यव्रत अयोध्या का सूर्यवंशी राजा था। उसका दूसरा नाम त्रिशंकु था। उसकी यह प्रबल इच्छा थी कि वह सशरीर स्वर्ग जाए। इस कामना की पूर्ति हेतु उसने ऋषि वशिष्ठ एवं उनके पुत्रों से आग्रह किया। परन्तु उन्होंने इसे प्रकृति के विरूद्ध जानकर यज्ञ करने से मना कर दिया। उसके पश्चात् त्रिशंकु ने ऋषि विश्वामित्र के समक्ष अपनी इच्छा प्रस्तुत की। ऋषि विश्वामित्र ने यज्ञ करना आरम्भ कर दिया और त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया। किन्तु जब त्रिशंकु स्वर्ग पहुँचा, तो इन्द्र तथा अन्य देवताओं ने उसे भीतर प्रवेश नहीं करने दिया और पुनः पृथ्वी पर धकेल दिया। तब ऋषि विश्वामित्र ने 'तत्रैव तिष्ठ' का उच्च संबोधन किया और नीचे गिरते त्रिशंकु को आकाश में ही रोक दिया। ऐसा माना जाता है कि उस समय से त्रिशंकु आकाश में ही औंधे सिर लटका हुआ है।
यह थी पुराणों में वर्णित एक रोचक घटना। अब यदि हम इस घटना को आधुनिक युग के तार्किक बुद्धिजीवियों के समक्ष रखें, तो वे इसके ... अस्तित्व को ही आधारहीन और मिथ्या घोषित कर देंगे। परन्तु यह उसी तरह है, जैसे
एक पहली कक्षा का विद्यार्थी पी.एच.डी. स्तर के विज्ञान को ऊल-जलूल मान बैठे। ...
तो फिर क्या है वैदिक काल की उक्त घटना का विवेकी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण। पूर्णतः जानने के लिए पढ़िए अखण्ड ज्ञान हिन्दी मासिक पत्रिका का जनवरी 2013 अंक।