(दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की पुस्तक 'चैतन्य' से उद्धृत)
'मैं इस नगर की साम्राज्ञी हूँ। ये सब मेरे अधीन हैं। यहाँ एकछत्र मेरा राज है!... मैं मोहिनी हूँ ... मन मोहिनी! हा ... हा ... हा ...!'- रानी मोहिनी (माया) स्व-प्रशंसा के बिगुल बजा रही थी। उसका अत्यंत चालाक और शातिर मंत्री अचेतासुर ( अज्ञानता का असुर) पास ही खड़ा था। अपनी बिलोई आँखों से मोहिनी का त्रिया चरित्र देख रहा था। दोनों राजभवन के शाही बाग में खड़े होकर संवाद कर रहे थे। बगीचे के साथ सटी सड़क पर से अनेक नागरिक गुज़र रहे थे। उनकी चाल में नशीली झूम थी, लड़खड़ाहट थी। ... वे वशीभूत हुए, गिरते-पड़ते राह से गुज़र रहे थे।
उधर अपने रत्नजड़ित बेशकीमती हार को गले में झुलाते हुए मोहिनी कह रही थी- 'अचेत! जानते हो न तुम, मेरा सबसे सशक्त हथियार क्या है?... यह जादुई शरबत (मायावी नशा)! हा ... हा ... हा! यहीं तो मेरे मुरीदों को मेरे वश में रखता है। इसकी एक घूँट अंदर जाती नहीं कि ... इनकी मति कठपुतली की तरह मेरे इशारों पर नाचने लगती है। ...
अचेतासुर भी खिसियानी हँसी हँसते हुए बोला- 'हाँ रानी! इन सबकी चेतना सोई पड़ी है। इसलिए ये हमारी मायावी धुनों पर नृत्य करने को विवश हैं।'...
... मोहिनी- ध्यान रहे, अचेत, ... एक दिन भी एक गुलाम भी इसे पिए बिना न रहे! ...
अचेतासुर- ऐसा ही होता रहेगा, रानी।
इस मायानगरी के राजपथ पर एक बालक खड़ा था। उसका नाम था- 'जीवनमुक्त'. उसकी निश्छल आँखें हर और छलावे भरे संसार को देख रही थीं। वह मन ही मन सोच रहा था- ...क्या यूँ मर-मर कर जीना ही जीवन है?'
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