सत्य सदा विजयी होता है। इस शाश्वत बात से शैतान भली प्रकार अवगत है। किन्तु इस सच्चाई को जानने के बाद भी उसके विद्रोह में कमी नहीं आती। वह सत्य को झुठलाने का निरन्तर प्रयास करता है। हर युग में शैतान/अज्ञानता का यह हठ ज़ारी रहता है। ज़रथुश्त्र के समय में भी कुछ ऐसा ही हुआ।
ज़रथुश्त्र पारसी धर्म के प्रवर्तक थे। उनके जन्म से पूर्व ही दुष्कर्मियों को उनके आगमन की आहट हो गयी थी। ... इसलिए उन्होंने ज़रथुश्त्र के पदार्पण की संभावना को ही खत्म करना चाहा। पर 'जाको राखे साईया मार सके न कोय !' ... आख़िरकार इस दिव्य आत्मा का आलिंगन कर धरा प्रफुल्लित हो उठी। ... उनके रूप में एक दिव्य विभूति का अवतार धरती पर हुआ था, जिनके आगमन का एक महान उद्देश्य था - समाज को दुष्टों और दुष्टता से स्वतन्त्र करना। परम सत्य को रोपित करना। ...
30 वर्ष की आयु में ज़रथुश्त्र की आत्म-क्षुधा शांत हुई। उन्हें पूर्ण गुरु की शरणागति प्राप्त हुई। गुरु ने ज़रथुश्त्र के भीतर गुप्त विद्या को प्रकट कर ईश्वर का दर्शन कराया। ... ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर... उन्होंने दो वर्षों तक गहन साधना की।
इस भीतरी यात्रा के बाद उन्होंने बाहरी यात्रा की ओर पग बढ़ाए। ज़रथुश्त्र ने जनमानस को अज्ञानता की निद्रा से जगाने के लिए शंखनाद किया। वे जहाँ भी जाते, यही कहते – ‘Be the Warriors of light’ - प्रकाश के साम्राज्य के योद्धा बनो। ... यह अग्नि है, जो पथ को प्रकाशित करती है। ज़रथुश्त्र ने जनमानस का आह्वान किया - "आओ! ईश्वर की सेना में सम्मिलित हो जाओ! - "...
इस आह्वान को सुनकर लोगों में प्रश्न पूछा- "ईश्वर की सेना में शामिल होकर हमें क्या करना होगा?"
प्रत्युत्तर में ज़रथुश्त्र ने कहा - " धर्म पथ का अनुगामी बनना होगा। … अर्थात जीवन में श्रेष्ठ विचारों, श्रेष्ठ वचनों और श्रेष्ठ कर्मों को स्थान देना होगा। "
पर इन तीन सूत्रों को कैसे धारण किया जाए?... जानने के लिए पढ़िए मई '16 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।