हमारे वेदों और उपनिषदों में सृष्टि की उत्पत्ति संकल्प से होने का विवरण है। स्वयं भगवान ने सृष्टि के आरंभ में एक संकल्प धारण किया- 'एकोSहं बहुस्याम:'- मैं एक से अनेक हो जाऊँ। मानव उसी संकल्पवान ईश्वर की अनुपम और सर्वोत्तम कृति है। वह तो बना ही संकल्पवान होने के लिए है- 'संकल्पमयोSयं पुरुष:'।
परन्तु क्या हमारे अंदर इतनी संकल्प शक्ति है कि जिस लक्ष्य का हम चयन करें, उसे प्राप्त करके ही रहें? अक्सरां हमलोग नववर्ष या वर्षगाँठ पर कोई न कोई संकल्प लेते हैं। लेकिन जितनी शीघ्रता से उन्हें धारण करते हैं, उतनी ही तेज़ी से वे टूट व बिखर जाते हैं। क्यों? किसी दार्शनिक ने इस विषय में खूब कहा- 'जिसे हम और आप संकल्प कह देते हैं, वे तो मात्र हमारी चाह या इरादे होते हैं। चाह हो, तो यूँ उड़ जाती है जैसे सूखी मिट्टी पर लिखे शब्द हवा उड़ा ले जाती है। वहीं इरादे हों, तो यूँ बह जाते हैं जैसे गीली मिट्टी पर लिखे शब्द पानी के बहाव में बह जाते हैं। पर संकल्प इतना हल्का व कमज़ोर नहीं होता। वह तो चट्टान जैसा वज्रवत होता है, जिसे न तो हवा उड़ाने की, न ही पानी बहाने की हिम्मत रखता है।' हम ऐसे कटिबद्ध, संकल्पवान साधक कैसे बन सकते हैं? आइए, इसी प्रश्न का उत्तर इन विशेष सूत्रों से प्राप्त करते हैं।
समस्त ऊर्जा का केन्द्रीकरण
स्वामी रामतीर्थ अपनी पुस्तक 'Conscious Living' में इस सूत्र को एक दृष्टांत के माध्यम से व्यक्त करते हैं। वे लिखते हैं- उष्णकटिबन्धीय देशों में कई बार तापमान 130 डिग्री से भी ऊपर पहुँच जाता है। पर इतना अधिक तापमान भी खाना पकाने की क्षमता नहीं रखता। कारण? तापमान का केन्द्रित न होना! इसी प्रकार यदि संकल्प के औज़ार यानी हमारा पुरुषार्थ, हमारा बल, हमारी इच्छा, हमारी क्षमता, हमारी समस्त ऊर्जा केंद्रीभूत नहीं है, तो हम अपने लक्ष्य का कभी भेदन नहीं कर सकते। हमारा संकल्प अपनी मंज़िल को तभी प्राप्त कर पाएगा, जब हमारी सारी ऊर्जा व क्षमता संगठित हो उसकी पूर्ति म़े पूर्ण सहयोग दे। ऐसे ही चुनिंदा अन्य विशेष सूत्रों को पूर्णतः जानने के लिए पढ़िए जनवरी'17 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।