... थोड़ी सी भी मिलावट नहीं चलेगी!
रूस की परम्पराओं में एक अनोखी परम्परा है। इसके अंतर्गत एक अजीब खेल खेला जाता है। इस खेल में कुछ पुरुष एकत्र होकर एक समूह बनाते हैं। समूह के प्रत्येक व्यक्ति को तीन लोगों के लिए एक-एक बोतल वोदका ( रूसी शराब) बनानी होती है। इसके बाद शुरू होता है- पीने का दौर। इस प्रथा में हर कोई शराब पीने में डूब जाता है। व्यक्ति तब तक पीता है, जब तक कि वह अचेत होकर गिर नहीं जाता। इस खेल में व्यक्ति किसी भी प्रस्ताव को मना नहीं कर सकता। क्योंकि मना करने का मतलब है- अन्य प्रतियोगियों का अपमान! इस विचित्र सी परम्परा का एक नियम यह भी है कि शराब का एक गिलास पीकर रखने और दूसरा गिलास उठाने के बीच ज़्यादा समय नहीं लगना चाहिए। मतलब कि एक के बाद दूसरा, तीसरा... गिलास गटकते चले जाओ। यही नहीं, यदि आपने शराब से भरा गिलास उठाकर वापिस रख दिया, तो यह भी असभ्य माना जाता है। और तो और, रूसी शराब में कुछ और मिलाकर उसे कम नशीला करना डरपोक होने का सूचक माना जाता है। यही कारण है कि प्रत्येक रूसवासी एक वर्ष में औसतन २० लीटर अमिश्रित रूसी शराब का सेवन करता है। परिणामतः हर वर्ष इस ज़हर से लगभग ३६,०००-५०,००० लोग मारे जाते हैं।
ज़रा विचार कीजिए... कैसा हो यदि ऐसा जुनून ईश्वरीय गुणों, उच्च आदर्शों, नैतिक मूल्यों, सकारात्मकताओं जैसे सद्गुणों का अमृत ग्रहण करने के लिए हो! कैसा हो यदि इन दिव्य गुणों में थोड़ी सी भी मिलावट हमारी अंतरात्मा को स्वीकार न हो? कैसा हो यदि प्रत्येक व्यक्ति संघबद्ध हो ईश्वरीय नाम की मस्ती में डूब जाए?... ध्यान-साधना के अभ्यास में कहीं कोई रुकावट, कोई ठहराव न हो! बस निरंतरता हो!... ज़रा सोचिए... कैसा हो यदि मनुष्य इन सद्गुणों को अपने भीतर समेटने का प्रयास तब तक ज़ारी रखे, जब तक कि उसका संपूर्ण व्यक्तित्व दिव्यता से परिपूर्ण न हो जाए? यदि सच में ऐसी कोई प्रथा का आरंभ हो जाए, तो जानते हैं कि इसका क्या परिणाम होगा? मौत के तांडव के स्थान पर आनंद, प्रेम, उल्लास, दिव्यता से साकार जीवन नृत्य करेगा। क्या यह परिवर्तन धरती को स्वर्ग नहीं बना देगा? विचार कीजिएगा।
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... ऐसी ही अनेक प्रथाओं के अर्थ का अनर्थ और उसके वास्तविक अर्थ को जानने के लिए पढ़िए अप्रैल'17 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।