अंग्रेज़ चले गए, अंग्रेज़ियत छोड़ गए... | Akhand Gyan | Eternal Wisdom

अंग्रेज़ चले गए, अंग्रेज़ियत छोड़ गए...

आपने अक्सरां इस वाक्य को सुना होगा-'अंग्रेज़ चले गए, अंग्रेज़ियत छोड़ गए।' इस वाक्य को भले ही आज हम मज़ाक में ले लेते हैं, पर गौर से देखा जाए तो यह वाक्य बहुत गहरी समस्या की ओर इशारा कर रहा है। आज भारत को अंग्रेजों से आज़ाद हुए 70 साल हो गए हैं। लेकिन कहीं न कहीं आज भी हम भारतीयों की मानसिकता उन्हीं के पिंजरे में कैद दिखती है।...


उदाहरणतः-

क्यों उत्तीर्ण होने के लिए न्यूनतम अंक 33% ही रखे जाते हैं?


सनातन भारतीय गुरुकुल परम्परा के अंतर्गत प्राप्त शिक्षा प्रणाली को अंग्रेजों ने अमान्य घोषित कर दिया था। इसके स्थान पर आरंभ की एक नई शिक्षा पद्धति। गुरुकुल में एक व्यक्ति को शिक्षित करने का अर्थ होता था- उसका पूर्ण रूप से शारीरिक, मानसिक, नैतिक, चारित्रिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक निर्माण। भारतीय संस्कृति के मूल्य व आदर्श उसके भीतर रोपित किए जाते थे। वहीं भारत में अंग्रेजों द्वारा लाई गई शिक्षा का उद्देश्य ही अलग था। वे चाहते थे भारतीयों को भारत की गौरवमय संस्कृति से दूर रखना। उन्हें चाहिए थे ऐसे पढ़े-लिखे भारतीय गुलाम, जो उनके प्रशासनिक कार्यों में क्लर्क या नीचे ओहदों पर काम कर सकें। इस उद्देश्य से सन् 1858 में अंग्रेजों ने पहली मैट्रिक की परीक्षा रखी।


कहते हैं, इस इम्तिहान का आयोजन करने पर एक प्रश्न उठा- 'परीक्षा पास करने के लिए न्यूनतम प्रतिशत क्या होना चाहिए?' इसे तय करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंग्लैंड में टेलीग्राम भेजा। इंग्लैंड से उत्तर आया- 'यहाँ 65% न्यूनतम उत्तीर्ण अंक होते हैं। चूँकि भारतीयों की बुद्धि अंग्रेज़ों से आधी होती है। इसलिये भारत में मैट्रिक पास करने के न्यूनतम अंक 65% के आधे यानी 32.50% रख दिए जाएँ।' इसलिए भारत में सन् 1858 से 1861 तक पास होने के लिए न्यूनतम औसत यही 32.50% रहे। परन्तु फिर आकलन को आसान करने के लिए 32.50% को 33% कर दिया गया। तब से अब तक भारत में अनेक परीक्षाओं के न्यूनतम उत्तीर्ण अंक 33% ही रखे जाते हैं।
कितने दुःख की बात है! आज भी शिक्षा के क्षेत्र में हम जाने-अनजाने '33% न्यूनतम उत्तीर्ण अंक' की मानसिक गुलामी को ढो रहे हैं... जिसके मूल में हम भारतीयों की बौद्धिक क्षमता का घोर उपहास है।
ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं जिनमें इस गुलामी के चिह्न आज भी अनेक स्थानों पर देखने को मिल जाते हैं। पूर्णतः जानने के लिए पढ़िए मार्च'18 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।

Need to read such articles? Subscribe Today