'दशहरा' भारतीय संस्कृति का एक अनुपम पर्व है, जिसे सदियों से असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। कहीं श्रीराम द्वारा अभिमानी रावण का वध और कहीं जगजननी माँ दुर्गा भवानी द्वारा महिषासुर-मर्दन... ऐसी विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा है यह दिन। परंतु हमारी विश्ववारा भारतीय संस्कृति की विशेषता इसकी विविधता में बसती है। इसी कारण विविधता के ये बहुरंग इस दशहरे पर्व में भी देखने को मिलते हैं। आपको सुखद आश्चर्य होगा यह जानकर कि भारत के कई प्रान्त ऐसे हैं, जहाँ दशहरा पर्व का राम-रावण युद्ध से कोई संबंध नहीं है। इन क्षेत्रों में यह पर्व नितांत निराले ढंग से और अलग आदर्शों की पीठिका पर मनाया जाता है। इसी श्रृंखला में मुकुटमणि स्थान प्राप्त है- 'बस्तर के दशहरा' को। आइए, इस वर्ष बस्तर के दशहरे के इतिहास व प्रथाओं को जानते हैं और उनके पीछे छिपे आध्यात्मिक रहस्यों को आत्मसात करते हैं।
'बस्तर दशहरा' नाम से प्रसिद्ध इस पर्व की शुरुआत आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व तत्कालीन बस्तर रियासत में हुई थी। वर्तमान में यह स्थान मध्य भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर जिले में स्थित है। 'बस्तर दशहरा' विश्व का सबसे लंबी अवधि तक मनाया जाने वाला पर्व है। यह श्रावण मास की हरेली अमावस्या से आरंभ होकर आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी (या पूर्णिमा) तक पूरे 75 दिनों तक चलता है। इन 75 दिनों में यहाँ एक बार भी रावण, मेघनाथ व कुम्भकरण का पुतला दहन नहीं किया जाता। छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों द्वारा मनाया जाने वाला यह पर्व यहाँ की आराध्या देवी माँ दंतेश्वरी को समर्पित है। समग्रतः यह पर्व आध्यात्मिकता, संस्कृति व सद्भावना का अद्वितीय संगम है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Historical Aspect)
15वीं सदी में बस्तर के सिंहासन पर चालुक्य नरेश भैराजदेव के पुत्र पुरुषोत्तम देव आरूढ़ हुए। पुरुषोत्तम देव आरंभ से ही भगवान जगन्नाथ के परम उपासक थे। जनश्रुति है कि राज्य की सुख-समृद्धि के लिए राजा पुरुषोत्तम देव ने पैदल चलकर पुरी में भगवान जगन्नाथ मंदिर तक पहुंचने का संकल्प लिया था। लगभग एक वर्ष की लंबी पदयात्रा के बाद वे जगन्नाथ मंदिर पहुँच गए और उन्होंने अपने भाव-पुष्प प्रभु को अर्पित किए। अपने भक्त के शुद्ध भावों व कठिन संघर्ष पर भगवान जगन्नाथ रीझ गए। वे मंदिर के पुजारी के स्वप्न में प्रकट हुए और उसे निर्देश दिया- 'तुम मेरी रथ-यात्रा में प्रयुक्त होने वाला रथ राजा को आशीर्वाद स्वरूप दे दो और उसे मेरी ओर से 'रथपति' की उपाधि भी प्रदान करो। पुजारी ने प्रातः होते ही राजा को भगवान जगन्नाथ का लकड़ी का रथ समर्पित कर उसे 'रथपति' बना दिया। राजा पुरुषोत्तम देव उस रथ को खींचकर बस्तर की ओर निकल पड़े। कहा जाता है कि तभी से बस्तर में इस पर्व की शुरुआत हुई, जहाँ आज भी रथ खींचने की प्रथा का निर्वाह किया जाता है।
बस्तर दशहरे का आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य और इसकी निराली प्रथाओं में आध्यात्मिक प्रेरणाएँ जानने के लिए पूर्णतः पढ़िए अक्टूबर'19 माह की अखण्ड ज्ञान हिन्दी मासिक पत्रिका।