...मैं एक निर्जीव, काली, पाषाण सी सड़क! आज आप से कुछ कहना चाहती हूँ। ...इक नई सुबह... कल का सारा धुँआ बैठ चुका था। ठंडी- ठंडी हवा बह रही थी। सूर्य अपनी किरणों से नभ पर दस्तक दे रहा था। ...सब कुछ बहुत सुंदर और मनोरम था। पर फिर अचानक से पीं-पीं करती एक गाड़ी मेरे ऊपर से गुज़री। और बस सिलसिला शुरू हो गया... 'एक के बाद एक लगातार गाड़ियों के गुजरने का।
... तभी अचानक... एक हवा से बातें करती गाड़ी पर कहीं से एक पत्थर आकर लगा। गाड़ी के ड्राईवर ने तेज़ी से ब्रेक लगाई। झट से गाड़ी से उतरा। पास खड़े एक गरीब लड़के को उसने कॉलर से पकड़ा और लगा चिल्लाने- 'अरे! दिखता नहीं? इतनी महंगी गाड़ी पर पत्थर फेंक दिया। ... ड्राइवर चीख ही रहा था कि उस गाड़ी से सूटिड- बूटिड मालिक उतरा। उस सज्जन को देखकर लगा कि शायद वह शांति से समस्या सुलझा लेगा। पर नहीं, उसने तो बालक के पास पहुँचते ही सूट-बूट के पीछे छिपी अपनी अभद्रता दिखाई और बालक के चेहरे पर जोर से थप्पड़ जड़ दिया। फिर लगा चिल्लाने-'अंधा है क्या? मेरी इतनी महंगी गाड़ी पर पत्थर मारने की हिम्मत कैसे हुई तेरी? ... अब ऐसे क्या आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहा है? क्या सफाई देना चाहता है? यही न कि साहब गलती हो गई, जान-बूझकर नहीं फेंका'
बालक अब तपाक से बोला- 'नहीं साहब! गलती से नहीं, जान-बूझकर ही मैंने पत्थर आपकी गाड़ी पर फेंका था।'
'जान-बूझकर' ऐसा क्यों किया उस बालक ने? पूर्णतः जानने के लिए पढ़िए हिन्दी मासिक पत्रिका अखण्ड ज्ञान का अक्टूबर 2012 अंक।