श्राद्ध द्वारा पितरों का कल्याण- कैसे? | Akhand Gyan | Eternal Wisdom

श्राद्ध द्वारा पितरों का कल्याण- कैसे?

घर में पूजा शुरु हुई, जिसे 14 साल का रोहन बड़ी बारीकी से देखने और समझने का प्रयास कर रहा था। सर्वप्रथम, गणेश जी की स्तुति कर पंडितों द्वारा गंगा-अवतरण की कथा सुनाई गयी। फिर लोटे में जल, तिल, चावल, जौ डालकर रोहन के पिताजी ने दाहिने हाथ में दर्भा घास को लिया और तर्पण की विधि पूरी की। अब बारी थी, ‘ब्रह्म-भोज’ की। सो आए हुए पंडितगणों को खीर, पूरी-छोले का भोज अर्पित किया गया। इसके पश्चात् दान-दक्षिणा प्राप्त कर पंडितों ने आशीर्वाद दिया और घर से वे सभी प्रस्थान कर गए।

...और फिर कुछ घंटों के बाद, रोहन के पिताजी के एक मित्र घर पर आए। आपको बता दें कि पिताजी के ये मित्र आध्यात्मिक स्तर पर जागृत थे और ज्ञान-साधना में संलग्न थे।

रोहन- पिताजी! आज घर पर क्या था? 

पिताजी- बेटे, पिछले वर्ष आपके दादाजी का देहांत हो गया था। आज उनका ‘श्राद्ध’ है और उसी के निमित्त सुबह पूजा हुई थी। भारतीय संस्कृति में श्राद्ध करने की परम्परा है। इस सोलह दिनों के पर्व को महालया, पितृ-पक्ष, कनागत्त आदि नामों से भी जाना जाता है।

रोहन- पर दादाजी तो चले गये। तो फिर हम यह सब पूजा वगैरह क्यों कर रहे हैं?

पिताजी- रोहन! यही तो हमारी भारतीय संस्कृति की महानता है। हमारे यहाँ मृत पितरों को भी अन्न-जल दिया जाता है। पता है, जब शाहजहाँ को उसी के बेटे औरंगज़ेब ने 7 वर्षों तक कारागार में रखा था, तब उस पिता ने अपने बेटे को एक पत्र लिखा जिसकी अंतिम पंक्तियाँ थीं-

ऐ पिसर तू अजब मुसलमानी,

ब पिदरे जिंदा आब तरसानी,

आफरीन बाद हिंदवान सद बार,

मैं देहदं पिदरे मुर्दारावा दायम आब।

मतलब- ऐ बेटे! तू भी बड़ा अजीब मुसलमान है, जो अपने जीवित पिता को पानी के लिए तरसा रहा है। शत-शत वंदन है उन ‘हिंदुओं’ को, जो अपने मृत पूर्वजों को भी पानी देते हैं। इसीलिए बेटे रोहन, यह हमारी सांस्कृतिक परंपरा है, जहाँ पितरों के लिए भी श्राद्ध पूजा की जाती है।

रोहन- पिताजी, आप दादाजी को ‘पितर’ क्यों कह रहे हो? ये पितर कौन होते हैं?

पिताजी- बेटे, हमारे जितने भी पूर्वज हैं, वे सभी ‘पितर’ कहलाते हैं। मृत्यु के बाद हमारे पूर्वज पितृ-लोक में निवास करते हैं, तब तक जब तक उनकी आत्मा की आगे के लोकों में गति नहीं होती। जब हम श्राद्ध की पूजा में अर्पण, तर्पण के पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन करवाते हैं, तब हमारे पितरों की आत्मा को आवश्यक ऊर्जा और गति मिलती है- जिससे कि वे किसी अच्छे स्थान पर अगला जन्म पा सकें। साथ ही, यह अन्न-जल का दान देकर हमें उन सभी पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है।... अब समझे, हम यह श्राद्ध पूजा क्यों करते हैं?

रोहन- पर लोटे से थाल में पानी उड़ेलने से, ब्राह्मणों को खाना खिलाने से दादाजी को ऊर्जा कैसे मिलेगी? उन तक यह सब कैसे पहुँचेगा? क्या पंडित जी का पेट कोई लेटर-बॉक्स है, पिताजी?

पिताजी ने सहायता की अपेक्षा से अपने मित्र की ओर देखा।

पिताजी के मित्र- देखो रोहन, वैदिक मंत्रों के अर्थ में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड, दोनों भाव निहित होते हैं। कर्मकाण्ड वो था, जो तुम सबने सुबह किया। ज्ञानकाण्ड वह है, जो आंतरिक ज्ञान- ‘आत्मज्ञान/ ब्रह्मज्ञान’ की ओर संकेत करता है। श्राद्ध की परम्परा का ज्ञानकाण्डी अर्थ गूढ़ है, गहरा है और बहुत सूक्ष्म भी है।

सर्वप्रथम यह जानते हैं कि वेदों में प्रयुक्त शब्द ‘ब्राह्मण’ किसको संबोधित कर रहा है। हमारे ऋषि-मुनि कहते हैं- ‘ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः’ अर्थात् जो ब्रह्म को जानता है, वही ब्राह्मण है। पूर्ण संत-सद्गुरु ही तो असल में ‘ब्राह्मण’ कहलाने योग्य हैं। ऐसे तत्त्वज्ञानी गुरुओं को जब श्रद्धा-भाव से कुछ भी अर्पित किया जाता है या उनके जन-कल्याण के मिशन में जब निष्काम सेवा की जाती है- तब हमारा कल्याण निश्चित हो जाता है। हमारा क्या... उनमें तो हमारे पितरों का कल्याण करने का भी सामर्थ्य होता है। सो ब्राह्मणों को भोजन कराने से तात्पर्य है, पूर्ण गुरुओं की श्रद्धा पूर्वक निष्काम सेवा करना।

और रोहन, हम यह भी समझें कि एक पूर्ण गुरु की सबसे बड़ी सेवा होती है उनके ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना। जब समाज में ब्रह्मज्ञान का प्रचार-प्रसार किया जाता है, तब पुण्य-पुँज के संचय से पितरों का और स्वयं का कल्याण होता है। यही श्राद्ध का ज्ञानकांडी पक्ष है।

रोहन- अंकल! पिताजी जो सुबह अर्पण-तर्पण कर रहे थे, उसका क्या मतलब था?

मित्र- बेटे! आपके पिताजी ने जो किया, वो तर्पण ‘तृप्’ धातु से बना एक शब्द है। इसका अर्थ होता है, किसी को तृप्त अथवा संतुष्ट करना। हर जीवात्मा को ‘ब्रह्मज्ञान’ ही तृप्त कर सकता है। हमारे द्वारा की गई ब्रह्मज्ञान की ध्यान-साधना ही हमारे पूर्वजों को पूर्ण संतुष्ट कर सकती है। यही ध्येय है, तर्पण विधि का भी।... और एक बात- ‘पितर’ यानी जिनको उनके कर्म-संस्कारों के कारण सद्गति नहीं मिली है। अब इसके निवारण के लिए भोजन खिलाना और पूर्वजों की मनचाही वस्तु का दान देना पर्याप्त नहीं होगा। क्योंकि शास्त्रों के अनुसार बुरे कर्म-संस्कारों का हनन ऐसे बिल्कुल नहीं होता है। इसका एक मात्रा उपाय है, ब्रह्मज्ञान को पाना और उसकी साधना करना। ध्यानबिंदु उपनिषद् में भी लिखा है- यदि पर्वत के समान पाप-कर्मों का संचय अनंत योजन तक भी क्यों न हो जाए, तो भी उन सभी का ध्यान-योग की साधना से नष्ट हो जाना संभव है। अन्य किसी उपाय से यह बिल्कुल भी संभव नहीं!-

यदि शैलसमं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम्।

भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।

तुम्हें सुबह पंडित जी ने गंगा-अवतरण की कथा अवश्य सुनाई होगी। उसमें पूर्वजों द्वारा किए गए पाप-कर्मों के कारण राजा भगीरथ को कठोर तपस्या करनी पड़ती है, ताकि उनके पूर्वजों का कल्याण हो सके।

इसलिए मित्र! कर्मकाण्ड अपनी जगह है। पर उससे आगे बढ़कर ब्रह्मज्ञान की भी प्राप्ति करो। ब्रह्मज्ञान की साधना करके ही तुम अपने व पूर्वजों के कर्म-संस्कारों को वास्तव में नष्ट कर पाओगे। उन्हें ज्ञान-ऊर्जा का शाश्वत भोजन अथवा तर्पण करा पाओगे। तभी उनका पूर्ण कल्याण होगा। ठीक जैसे कि ब्रह्मज्ञान को प्रह्लाद ने प्राप्त किया... उस ब्रह्म के ध्यान में मग्न रहकर उसने अपना तो मंगल किया ही, साथ ही अपनी 21 कुलों का भी कल्याण कर दिया- ‘त्रिः सप्तभिः पिता पूतः पितृभिः... भवान्वै कुलपावनः’ (श्रीमद्भागवत पुराण 7/10/18)।

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