खेत नहीं, चिताएं जल रही हैं! | Akhand Gyan | Eternal Wisdom

खेत नहीं, चिताएं जल रही हैं!

मैं धरती का एक टुकड़ा हूँ। भारत ने मुझे 'धरती माँ' का संबोधन दिया है। माँ का कर्त्तव्य होता है- जन्म देना और पालन-पोषण करना। मैं भी ऐसी एक माँ हूँ। मेरा किसान बेटा मेरे सीने में कुछ मुट्ठी भर बीज बोता है। पर बदले में मैं उसे कई-कई क्विंटल अन्न उपजा कर लौटाती हूँ।

जब मेरे खेतों में धान की लहलहाती फसल कड़ी होती है, तो किसान कटाई का पुरुषार्थ करता है। मशीन चलाकर वह अन्न से भरी फसल काट लेता है। धान तो अलग हो जाता है, पर पीछे खेत में पुआल गड़ी या बिखरी, दोनों रूप में रह जाती है। अब किसानों को चिंता होती है कि एक महीने के अंदर-अंदर खेत को अगली बिजाई के लिए तैयार करना है। समय कम है और खेत में ८-९ इंच ऊँचा पुआल खड़ा है! उससे ... निजात पाने के लिए मेरे ये किसान बेटे अक्सर एक बेहद खतरनाक रास्ता अपनाते हैं। मेरी नाजुक सतह पर, पुआल के बीच, घोर अग्नि प्रज्वलित कर देते हैं. आग की भीषण ज्वालाएँ, तड़-तड़ करती हुईं, मुझ पर उगे या तितर-बितर हुए पुआल को लीलने लगती हैं. ... इन जलते खेतों से उठता धुआँ लगभग पूरे पंजाब को ढके हुए है।

... यही तो मेरी वेदना है! खेतों की यह आग मेरे अलग-अलग अंगों की जलती चिताओं जैसी ही है और मेरी ही क्यों! यह आग तो पृथ्वी के साथ-साथ पवन को भी मैला कर रही है।

क्या क्या है इसके दूरगामी घातक परिणाम? अगर धरती माँ की करुण पुकार को सुनने का दुस्साहस किसान भाई करें भी तो, अगर वो पुआल को जलाए नहीं, तो उसका क्या करें? यह सब जानने के लिए पूर्णतः पूरा लेख पढ़िए फरवरी 2013 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान पत्रिका में...

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