
कई शताब्दियों पहले की बात है। हिमालय के शिखरों में आदिवासियों का एक कबीला रहा करता था। इस प्रांत में सभ्यता के कदम ही नहीं पड़े थे। ये आदिवासी ... पशुओं का शिकार कर, चीड़-फाड़ कर कच्चा माँस खाते व रक्त पिया करते थे। अग्नि तक को प्रज्वलित करने का ज्ञान उन्हें नहीं था।
इसलिए उनके पास रौशनी का सिर्फ एक साधन था सूर्य। ... सूरज की गर्मी से उनके हाथ-पाँव हरकत में आते थे। पर सूर्य ढल जाने पर ... पूरा प्रांत मानो काली चादर से ढक जाता था। ... हाथ को हाथ नहीं दिखता था। इस भयंकर अंधेरे के बीच कई कबीले वाले अपना सिर फुडवा चुके थे। कई मृत्यु के ग्रास बन गए थे।
यही वजह थी कि इस आदिम कबीले में एक धारणा बन गई थी। वे आपस में कहते थे ...
'जल्दी! जल्दी! झोपड़ी वापिस चलो। शाम ढलने वाली है। काला दानव आकाश में बाँहें फैलाने वाला है। वो सबकुछ पर सवार होकर बैठ जाएगा। ... भागो! वो आ रहा है ...'
मतलब कि रात के प्राकृतिक अंधेरे को वो 'राक्षस' मान बैठे थे।
... एक दिन सारे कबीले वासी एक सभा में इकट्ठे हुए। विचार- विमर्श का विषय था- 'आखिर इस राक्षस को कैसे मारें?'
... इतने में एक अनुभवी वृद्ध बीच में बोले- 'शेर का शिकार खुले आकाश तले नहीं किया जाता। उसे उसकी माँद में धर-दबोचा जाता है। हमें इस अंधेरे के राक्षस की भी माँद ढूँढनी होगी, जहाँ वो दिन भर सुस्ताता और सोता है।'
आदिवासी- हाँ! हाँ! चलो-चलो! राक्षस की माँद खोजो!
तो क्या उन्हें मिल गया दानव का ठिकाना? क्या हो पाया अज्ञानता के राक्षस का अंत? जानने के लिए पढ़िए इस बार की चैत्र मास, विक्रमी संवत 2070 की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।