प्रश्न: गुरु महाराज जी, कहा जाता है कि हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित होता है- अच्छा या बुरा- उसका कारण हमारे कर्म हैं। पर फिर मुझे यह समझ नहीं आता कि एक पापी- अत्याचारी का जीवन इतना सुख व साधन संपन्न क्यों है? वहीँ एक नेक- ईमानदार सज्जन व्यक्ति इतना गरीब और दु:खी क्यों है? ... ऐसे में कर्म का विधान पक्षपाती लगता है। मेरी दुविधा दूर करें, गुरुदेव!
उत्तर: यही दुविधा डॉ. एनी बेसेन्ट के मन में भी उत्पन्न हुई थी। वे बहुत मेधावी, प्रतिभा संपन्न व 'द न्यू रिव्यू' पत्रिका के संपादक मंडल की सदस्या थीं। पर उनके जीवन में कुछ क्षण ऐसे भी आए, जिन्होंने उन्हें भीतर तक झंझोड़ दिया। ...दरअसल, हुआ यूँ कि उनका बच्चा जन्म से ही काफी भयंकर रोग से ग्रस्त था। उम्र बढ़ने के साथ उसकी बीमारी बढ़ती गई। उसका शरीर तेज़ बुखार से तपता था। उसे दौरे पड़ते थे। अपने छोटे से बच्चे को ऐसे तड़पता देख, बेसेन्ट का दिल रोया करता। वे ईश्वर से प्रश्न करतीं- 'मेरे इस नन्हे से बच्चे ने तो आज तक चींटी को भी नुकसान नहीं पहुँचाया, फिर इसे किस कर्म की सजा मिल रही है? इसके जीवन में इतना दु:ख क्यों?' जब अपने इन प्रश्नों का उन्हें कहीं से उत्तर नहीं मिला, तो उनका ईश्वरीय सत्ता पर से विश्वास उठ गया।
लेकिन फिर एक दिन, ...उनका नज़रिया बदल गया।
कहा गया कर्मों का सिद्धांत बहुत गूढ़ है। यह एक जन्म नहीं, कई जन्मों का हिसाब-किताब है।
...यह भी सुनने में आता है कि हर कर्म का फल मिलना अवश्यंभावी है।
...पर इसका अर्थ यह भी नहीं कि मनुष्य अपने कर्मों से बने भाग्य की कठपुतली है।
...तो फिर क्या अपने भाग्य को बदल देना, मनुष्य के लिए संभव है? कैसे बेसेन्ट का नज़रिया बदला, क्या है इन सभी उलझे प्रश्नों का समाधान, पूर्णतः जानने के लिए पढ़िये सितम्बर माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान 2013 मासिक पत्रिका!