आयुर्वेद के अनुसार भगवान ने हमारे शारीरिक पुर्जों को तकरीबन १०० सालों तक बेरोक-टोक काम करने के लिए गठित किया। पर एक शर्त के साथ- 'No adulteration' यानी 'किसी मिलावट की गुंजाइश नहीं!' पर हुआ क्या? आज हम साँस ले रहे हैं तो दूषित हवा में! पी रहे हैं तो प्रदूषित पानी! खा रहे हैं तो मिलावटी भोजन!
यह मिलावटी आहार सितंबर-अक्टूबर के महीने में हमें सबसे ज़्यादा नुक्सान पहुँचाता है। क्योंकि ये महीने यानी मौसम की अदला-बदली। यह मौसम सुहाना तो बहुत होता है, न ही ज़्यादा गर्मी और न ही ज़्यादा सर्दी! किन्तु इन महीनों में हमारी जठराग्नि मंद पड़ जाती है। पाचन क्रिया कमज़ोर होने लगती है। ... बार-बार कीटाणुओं का हमला होता है और बेचारा हमारा पेट! ... हर रोज़ एक अलग ही प्रतिक्रिया देता है।
... इसलिए ही आयुर्वेदाचार्यों ने इस मौसम में व्रत-उपवास का प्रावधान चलाया। ताकि हम भारी-भरकम खाने से बचें, हल्का-फुल्का भोजन करें और शरीर को स्वस्थ व तंदुरुस्त रख सकें।
पर क्या बताएँ, आजकल के व्रत-उपवास में भी हो गया हमारी जिह्वा का वास! व्रत में भी हमने खोज ही निकालीं अपने लिए कुट्टू के आटे की तली हुई भारी पूरियाँ और तले हुए आलू! इससे हमारे पेट पर तो फिर से गाज़ गिर गई। पाचन क्रिया की तो धज्जियाँ उड़ गईं। उपवास के बावजूद भी हमारे शरीर में भारीपन व फुलाव आ गया।
तो इस बदलते मौसम में आखिर हम क्या खाएँ, क्या पीएँ? जानने के लिए पूर्णतः पढ़िए अक्टूबर माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका!