हम सभी काल के साक्षी हैं। हमने काल को व्यतीत होते हुए देखा व अनुभव किया है। पाश्चात्य सभ्यता १ जनवरी से ३१ दिसम्बर तक के अंतराल को एक वर्ष मानती है। इसी क्रम में अपनी शताब्दियाँ सहस्त्राब्दियाँ निर्धारित करती है। पर भारतीय संस्कृति का काल-ज्ञान विज्ञानों का विज्ञान है। उसके अनुसार काल (समय) तो अनादि है. सर्वथा अविभाज्य तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म है
भारतीय ऋषियों-महर्षियों ने अपनी ऋतम्भरा प्रज्ञा के द्वारा काल के सूक्ष्म-तत्त्व एवं रहस्य को ज्ञात कर लिया था। ...
... कालगणना सम्बन्धित भारतीय पद्धति के मूल-तत्त्व आज भी विज्ञान द्वारा प्रमाणित हैं। तर्कसंगत और प्रासंगिक हैं। परन्तु विडंबना है कि आज हम अंग्रेज़ी कैलेंडर के अनुसार वर्षगाँठें मनाने लग गए। हमारे संकीर्ण व अज्ञानपूर्ण दृष्टिकोण ने भारत के महान इतिहास को हमारे लिए अपरिचित बना दिया। इसी क्रम में यह हुआ कि हम अपनी मौलिक काल गणना से भी दूर होते गए। अंग्रेज़ी कैलेंडर कि तिथियों और उसके अनुसार निर्धारित नववर्ष को मनाने लगे। आक्रान्ताओं कि यह दुरभिसंधि हमारे मन में बहुत हद तक पैठ गई है कि हमारे तीर्थ, हमारे पर्व, हमारी काल गणना आदि- सब अंधविश्वास है। इसीलिए हम अपनी रामायण, महाभारत के स्थान पर मिल्टन का 'पैराडाइज़ लॉस्ट' पढ़ने लगे। शिव और इन्द्र पर विश्वास न करके, जिहोवा और जुपिटर के नाम की अँगूठी व जवाहरात पहनने लगे।
विचारणीय है कि हम स्वयं अपने ऐतिहासिक काल की व्याख्या ठीक से नहीं जानेंगे, तो दूसरे लोग तो हमारे इस वैज्ञानिक धरोहर को काल्पनिक और मिथ्या ही कहेंगे न!
...क्या है काल का अद्वितीय ज्ञान? क्या है भारत की प्राचीन काल गणना? किसके आधार पर ज्योतिष शास्त्र और पंचांग का निर्माण हुआ?
... हमारी कृतियों के प्रत्येक संकल्प के साथ यह काल गणना इस प्रकार जुड़ी हुई है, जिससे हम अपने इतिहास को भूल न जाएँ।
... क्या है इस संकल्प का वास्तविक अर्थ? ये सब जानने के लिए पढ़िए पूर्णतः हिंदी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका का जनवरी माह 2014 अंक!!!