सूखे ठूँठ से वृक्ष! पीली लताएँ मानो सूखी फूलमालाओं की तरह लटकी हों! भूमि ने भी भूरी चादर ओढ़ ली थी! ...वायु विरहनी हो चली थी, मानो उससे प्राणवायु ही छीन ली हो। ...वन में पतझड़ की धाक! न कहीं फूल खिलते थे, न कली फूटती थी। यदि पेड़- पौधों का कोई श्रृंगार था,तो काँटों के आभूषण!क्या ऐसे पतझड़ को भी कोई बसंत का स्वप्न दिखा सकता है? ...क्या सूर्य, चन्द्र और कृत्रिम प्रकाश के अभाव में भी कोई निरंतर अंधकार से लड़ सकता है? जी हाँ! नि:संदेह! एक भक्त का जीवन इन सब प्रश्नों का उत्तर है। ...
ऐसे ही जीवन की स्वामिनी थी- शबरी! सबूरी कहें या शबरी- दोनों एक दूसरे के पूरक थे! वर्षों व्यतीत हो गए... परन्तु शबरी का प्रतीक्षाकाल समाप्त होने को ही नहीं आ रहा था! ...शबरी यौवनावस्था से वृद्धावस्था में प्रवेश कर गई थी। तन का सौन्दर्य बुढ़ापे की झुर्रियों के जाल मेंकहीं खो सा गया था। नयन-ज्योति राह तकते-तकते धूमिल होने लगी थी। झुकी कमर को लाठी का सहारा लेना पड़ गया था। बहुत कुछ बदलता जा रहा था। पर यदि कुछ नहीं बदला था,तो वह था- शबरी का ....!
प्रतिदिन शबरी हाथों में पात्र लिए, वन में जाती! मीठे बेरों के चयन के लिए! बेर तोड़ती! यदि पका होता तो पात्र में डाल देती, अन्यथा गिरा देती! पात्र भर कर लौट आती! फिर प्रतीक्षा में द्वारपर आकर बैठ जाती! अगली प्रातः फिर मार्ग बुहारती। राह के कंकड़ पत्थर और काँटे हटाती। पुष्प तोड़कर मार्ग सजाती फिर पात्र उठाती और बेर तोड़ने चल पड़ती। उसके बाद लौट आती कुटिया में- फिर प्रतीक्षा! कारण क्या था- ऐसी अनवरत प्रतीक्षा का! ध्येय क्या-ऐसी अंतहीन परीक्षा का! परिणाम क्या है- ऐसी अखण्ड प्रतीक्षा (साधना) का!
एकदा यही प्रश्न शबरी से सम्पूर्ण प्रकृति ने कर डाला।
क्या था शबरी का आधार?
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