भौतिक संसार में एक उक्ति की अक्सर चर्चा होती है-'क्रॅब मेनटॅलिटी'- केकड़ा प्रवृत्ति! केकड़े एक-दूसरे की उन्नति से जलते हैं। इसलिए जब एक केकड़ा ऊपर चढ़ने लगता है, तो दूसरा उसकी टाँग खींचकर उसे नीचे घसीट लेता है। सांसारिक संगठनों में यह प्रवृत्ति इसलिए भी देखने को मिलती है, क्योंकि सभी कर्मचारियों के पास ऊँचा उठने का एक ही मार्ग, एक ही सीढ़ी होती है।
लेकिन सज्जनों! गुरु-भक्तों का तो संसार ही निराला है। यहाँ सबकी मंज़िल तो एक ही है-गुरु! पर उस तक पहुँचने की सीढ़ी सबके पास अपनी-अपनी है; अलग-अलग है. हर साधक या गुरु-भक्त, अपनी-अपनी गति से अपनी-अपनी सीढ़ी चढ़कर सदगुरू तक पहुँचता है।
लेकिन अफ़सोस! कई बार इस पंथ में भी अज्ञानता का प्रवेश हो जाता है। कई साधक तुलना और प्रतिस्पर्धा के दंश से पीड़ित दिखाई देते हैं। अपनी सीढ़ी पर चढ़ते हुए एक आंख साथ वालों की सीढियों पर रखते हैं। अपनी गति नहीं बढ़ाते; दूसरों की गति से ईर्ष्या से करने लगते हैं। कई बार तो दूसरों की गति बाधित करने तक की योजनाएँ मन में आकार ले लेती हैं। तुलना या ईर्ष्या-द्वेष करना हमारी आदत बन जाता है। हम भूल जाते हैं कि हम क्या पाने इस मार्ग पर चले थे और क्या पा रहे हैं! ऊँचा देखने की जगह हमारी दृष्टि दाएँ-बाएँ ताकने-झाँकने में ही उलझ जाती है।
प्रस्तुत लेख हम सभी साधकों को 'विवेक की दीक्षा' दे रहा है। ऐसा विवेक, ऐसी समझदारी जिसे यदि हम धारण कर लें, तो बहुत हद तक ईर्ष्या-द्वेष आदि मनोरोगों से छुटकारा पा सकते हैं। इस विवेक की दीक्षा को पूर्णतः प्राप्त करने के लिए पढ़िए इस जुलाई माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका!