तेरे ही वास्ते आलम में हो गए बदनाम,
तेरे सिवा नहीं रखते किसी से हम कुछ काम।
वतन! न दे हमें तर्के वफा का तू ,इल्ज़ाम,
कि आबरू पे तेरी निसार हो गए सरेआम।
यह जलता हुआ समर्पण-गीत एक क्रांतिकारी ने लिखा था। लेखन का स्थान कोई खूबसूरत वादियाँ नहीं थीं। ब्रिटिश हुकूमत की जेल की एक काल-कोठरी थी। ज़ाहिर है, यह गीत किसी आशिक द्वारा अपनी माशूका के लिए नहीं रचा गया था। एक सच्चे सपूत ने इसे अपनी माँ भारती को समर्पित किया था।
स्वतंत्रता संग्राम का भी वह क्या दौर था! भारत के छड़े नौजवान सपूत बड़े-बड़े तापसी ऋषि बन गए थे। ऐसे क्रांतिकारी ऋषि, जिन्होंने घोर वनों, कन्दराओं और हिम-शिखरों पर दुर्गम तप में रत तपस्वियों तक को पीछे छोड़ दिया था। फर्क बस इतना था... आध्यात्मिक साधु-तपस्वी जहाँ 'आत्म-मुक्ति' को अपना लक्ष्य बनाते हैं; वहीं स्वतंत्रता संग्राम के इन साधकों ने 'राष्ट्र- मुक्ति' को अपना 'साध्य' लक्षित कर लिया था। इनकी एक ही साधना थी- स्वतंत्रता क्रांति! एक ही तप था, एक ही पूजा थी, एक ही भजन था- आज़ादी का संग्राम! स्वराज्य के लिए संघर्ष! इनकी एक ही इष्ट थी- माँ भारती!
……
कहते हैं, एक बार क्रांतिकारी वीर खुदीराम बोस कहीं से गुज़र रहे थे। राह बीच एक मंदिर दिखाई दिया। उसके आँगन में खुदीराम ने एक विचित्र नज़ारा देखा। आँगन का फर्श तप रहा था। ऊपर खुला आकाश गर्मी के अंगारे बरसा रहा था। पर फिर भी कुछ लोग नीचे आँगन में आकाशोन्मुख होकर लेटे हुए थे। उन्हें देखकर खुदीराम हैरान रह गए। उन्होंने पास खड़े एक जानकर से पूछा- 'ये लोग इस कड़ी धूप में जानबूझ कर झुलस क्यों रहे हैं?' जानकार बोला- 'ये एक रूढ़ि से ग्रस्त हैं। इनकी अरदास है कि ईश्वर इनके रोगों का उपचार करे। इसी मुराद की पूर्ति के लिए ये तप कर रहे हैं।'
खुदीराम मुस्कुरा दिए। धीमे स्वर में बोल गए- 'लगता है, मुझे भी ऐसे ही तप से गुज़रना होगा।' जानकार ने सुन लिया, जिज्ञासा रखी- 'क्यों भाई? क्या आप भी किसी रोग से पीड़ित हैं?'
खुदीराम- हुँ! हम सब ही हैं! …
वो कौनसा रोग था जिसकी बात खुदीराम कर रहे थे???
अकूत धैर्य व विश्वास! सतत संघर्ष! एकलक्षित आस्था! अनुपम वैराग्य! मृत्यु से अभय! अनन्य समर्पण! … ऐसे-ऐसे महान आध्यात्मिक अलंकार इन आज़ादी के दीवाने साधकों के श्रृंगार बन गए थे। … स्वतंत्रता क्रांति के ऋषि-तपस्वियों का क्रांतिकारी सफर पूर्णतः जानने के लिए पढ़िए अगस्त माह की मासिक हिन्दी अखण्ड ज्ञान पत्रिका!