खेलत रघुपति होरी हो! | Akhand Gyan | Eternal Wisdom

खेलत रघुपति होरी हो!

होली के रंग विविध हैं। इन रंगों को खेलने के ढंग भी

विविध हैं। ' होली' का त्यौहार रूढ़ियों के ढर्रे पर कभी नहीं चला। वह हर युग में नया वेश लेकर आया है। हर युगावतार की शैली में.नाचा है, थिरका है।...जैसा प्रांत, जैसी विभूति, जैसा भाव-वैसा ही रूप बनाकर फाग झूमा है। होली के इन अनेक रंगों और ढंगों में एक बात ' एक' सी रही है। वह है, प्रेम की। होली का उत्सव प्रेम का ही महोत्सव है। आएँ, होली की प्रेम-भीनी फुहारों में झूमें।

अवध नगरी नववधू सी सजी थी। रंगोत्सव का प्रभाव धरा और गगन पर छाया था। राजभवन भी रंगभवन में बदल गया था। सूर्यवंश का राजसी परिवार बगीचे में एकत्र था। रघुवीर श्री राम जनकदुलारी  के संग पूरी शोभा में उपस्थित थे। उनके संग थे, भाई भरत, लखन और शत्रुघ्न। सिया के आसपास भी सहचरियों की सजी- धजी टोली थी। होलिकोत्सव की तैयारियाँ पूरे यौवनपर थी- खेलत रघुपति होरी हो, संगे जनक किसोरी।

इत राम लखन भरत शत्रुघ्न, उत जानकी सभ गोरी, केसर रंग घोरी।

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श्री राम ही इस उत्सव के केन्द्र थे। इस रंगलीला के नायक थे।इसीलिये सभी के हृदय में एक ही गुप्त भाव था- राघव के रंग में रंग जाने का! प्रभु से अपने जीवन की साधना के लिए रंगीला रस माँग लेने का!

सबसे पहले भरत ने आगे बढ़ कर अपने बड़े भईया के संग फाग खेला। बड़ी शालीनता से उनके श्री चरणों में चंदन का तिलक लगाया। फिर भावुकता से प्रणाम किया। प्रभु ने चंदन, अबीर से सुगंधित रंग- बिरंगे गुलालों की ओर देखा और भरत से पूछा-' कहो भरत, कौन सा रंग लगाऊँ तुम्हें?'

भरत ने शीश नवाते हुए कहा-' वही जो गाढ़ा हो। सदैव चढ़ा रहे।...मेरे हृदय- कोश में आपका सतत स्मरण बसा दे। भईया राम, मुझे ऐसा रंग ही प्रिय है, जो मुझे आपका परम प्रिय बना दे।'

प्रभु मुस्कुराए। कनक किरणों के समान चमकते रंग को मुट्ठी में भर लिया।...

किस रंग में प्रभु ने भरत को रंगा? आगे लखन, शत्रुघ्न और सिया ने खुद को किस रंग में रंगवाना चाहा और वो होली के पावन अवसर पर कैसे प्रभु के हाथों रंगे गए, जानने के लिए पढ़िए मार्च'16 माह की हिंदी अखण्ड ज्ञान  मासिक पत्रिका।

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