पृथ्वी लोक का एक भाग ब्रह्मलोक बना था। यह था- गोकुलधाम। ब्रह्मा जी ने नीचे झाँका और कारण टटोलना चाहा। अद्भुत... आला-निराला प्रेम का नज़ारा दिखाई दिया। हँसी के फव्वारे... मसखरी... ठिठोली- नटखट प्रेम का पूरा महाभोज यहाँ पक रहा था। हर पकवान में था, कृष्ण- रस का तड़का!...
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आइए, चलते हैं, गोकुल की प्रेमपगी बस्ती में... मिलते हैं, कन्हैया की धमाल-चौंकडी मचाने वाली गोप मंडली से! द्रष्टा बनते हैं उनके गुदगुदाते खेलों के और उनमें छिपे अलौकिक रहस्यों के!
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कान्हा का पसंदीदा खेल- गो एवं गोवत्सों (बछड़ों) संग आनंद मनाना। ...
एक दिन आनंदकंद ने एक नूतन लीला करने की ठानी। मैय्या रसोईघर में थी। सखियों सहित दधि को बिलो रही थी। नंदबाबा गोशाला में व्यस्त थे। गोपालकों के संग दुग्ध-दोहन कर रहे थे। अवसर चोखा था।दोनों नन्हे कुमार- कन्हैया और दाऊ नंद भवन से बाहर दौड़ लिए।
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दाऊ ने एक बछड़े की पूँछ पकड़ी। कन्हैया ने दूसरे बछड़े की। दोनों लगे पूँछों को खीचने। खिंचाव पड़ा, तो गोवत्स विचलित हुए। रंभाए और तुनक कर उचकने लगे। उठ खड़े हुए और इत-उत पैर चलाने लग गए। उनके हो-हल्ले से आसपास भी आपाधापी मच गई। बाकी गोवत्स भी बिगड़ गए। चिड़चिड़ाहट में कोहराम मचाने लगे।
उधर दोनों भाई सहायता के लिए पुकार उठे- 'मईया! बाबा!... काका!... बचाओ!... गैया कुचल डालेगी हमें! बचाओ!... रक्षा करो!'
मानो गोकुल उमड़ आया।... यशोदा माँ... नंद बाबा... काका-काकी... गोप-गोपांगनाएँ... सभी घटना स्थल पर पहुँच गए। देखा, गोवत्सों के बीच भगदड़ मची थी। धूल के गुबार में जूझ रहे थे, दोनों भाई। पूँछ खीचे जा रहे थे।...
यह देख, मैईया हाहाकार कर उठी।... लल्ला, पूँछ छोड़ दो दोनों।...
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पर नासमझ लल्ला... पूँछ को जकड़े हुए घसीटे जा रहा था। कैसे कान्हा और दाऊ भैया ने पूँछ छोड़ी? पूँछ क्रीड़ा से क्या संदेश देना चाहते थे लीलाधारी कान्हा हमें? जानने के लिए पढ़िए अगस्त'16 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।