श्री मद्भागवत महापुराण में समुद्र मंथन की गाथा उल्लिखित है। समुद्र मंथन का मुख्य उद्देश्य था, अमृत की प्राप्ति। इसी हेतु देवताओं और असुरों ने आपस में संधि कर एक साथ समुद्र मंथन करने का निर्णय लिया। नागराज वासुकि को नेति ( रस्सी) बना कर मंदराचल पर लपेटा गया। फिर पूर्ण उत्साह व आनंद के साथ मंथन का कार्य प्रारंभ किया गया।
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परन्तु अधिक भार व आधाररहित होने के कारण मंदराचल समुद्र में धंसने लगा। मंदराचल को समुद्र में डूबने से बचाने के लिए भगवान ने कच्छप अवतार धारण किया।... तत्पश्चात असुर व देवगण बड़े वेग से समुद्र मंथन करने लगे। सबसे पहले समुद्र से हलाहल निकला। इससे चहुँ ओर त्राहि- त्राहि मच गई।... पुनः मंथन कार्य प्रारंभ हुआ। मंथन से अनेक रत्न, कामधेनु, कल्पवृक्ष इत्यादि निकले। अन्ततः धन्वंतरि हाथ में अमृत कलश लिए प्रकट हुए। अमृत कलश देखते ही देव-असुरों की संधि जैसे छूमंतर हो गई।... इसके निवारण हेतु भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया। तब भगवान ने मोहिनी रूप में देव व असुर गणों की अलग-अलग पंक्तियाँ बनवा कर उन्हें विभिन्न दलों में बिठा दिया। फिर विश्व मोहिनी देवताओं को अमृत पान कराने लगी। वहीं दैत्य मोहिनी के सौन्दर्य पर मोहित हो, प्रतीक्षा करने लगे। इसी बीच दैत्य स्वर्भानु को आभास हुआ कि दानवों को छला जा रहा है। वह देवताओं का वेष बना कर चुपके से सूर्य और चन्द्र देव के मध्य जाकर बैठ गया। अमृत प्राप्त करने में भी सफल हो गया। पर तभी चन्द्रमा व सूर्य देव ने उसको पहचान लिया।...
...इससे पहले कि स्वर्भानु अमृत कंठ से अंदर निगल पाता, भगवान ने अपने चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।... फिर कैसे स्वर्भानु का सिर अमर हो गया... कैसे इस दैत्य का राहु केतु से सम्बंध बना? ग्रंथों और विज्ञान की भाषा के अनुसार राहु केतु का क्या अर्थ है, जानने के लिए पढ़िए सितंबर'2016 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।