कौन कहता है कि लक्ष्य को पाना आसान होता है? मंज़िल के रास्ते में मुश्किलों के सैलाब भी आते हैं और चुनौतियों के बवंडर भी। कभी डर हमें रोकने की कोशिश करता है; तो कभी लालच अपने चंगुल में फाँसने के लिए हमें फुसलाता है।
लेकिन कौन कहता है कि इन मुश्किलों और चुनौतियों के बावजूद भी मंज़िल तक नहीं पहुँचा जा सकता? जब दिल और दिमाग मे लक्ष्य को पाने का पागलपन हो और रगों में ईमानदारी रक्त बनकर दौड़ती हो, तब फिर इन अवरोधों को मुँह की खानी ही पड़ती है। इतिहास में ऐसी बहुत सी हस्तियाँ हुई हैं, जो अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जोश और जज्बे की सारी हदें पार कर गईं। जिन्होंने अपने जीवन में सिर्फ एक ही मूलमंत्र को अपनाया- ' गिरना नहीं... थकना नहीं... रुकना नहीं... चाहे कुछ भी हो जाए।'...
अगस्त, 1936... जर्मनी के बर्लिन शहर में ओलंपिक खेलों का आयोजन किया गया। भारत और जर्मनी के बीच हॉकी का मैच चल रहा था। मैच शुरु होने से पहले, सभी खिलाड़ियों ने अपने ध्वज को नमन किया। अपने राष्ट्र का जयकारा लगा अपने पोर-पोर में ऊर्जा और देश-प्रेम का संचार किया। फिर मैदान में उतर गए।
इधर जर्मनी टीम भी अपने मंजे हुए खिलाड़ियों के साथ जीत हासिल करने को लालायित थी। उनकी जीत का लुत्फ लेने के लिए जर्मनी का तानाशाह हिटलर भी मैच देखने वालों में शामिल था।
मैच शुरु हुआ... भारत के खिलाड़ी मैदान में बेहतरीन प्रदर्शन कर रहे थे। वह भी तब जब प्रकृति ने भरपूर पानी बरसाया था, जिस कारण मैदान में पानी भर गया था। इसलिए भारतीय टीम के खिलाड़ियों को भागने में मुश्किल आ रही थी। जबकि जर्मनी के खिलाड़ियों ने ऐसे खास किस्म के जूते पहने हुए थे, जिनसे पानी में बिना फिसले दौड़ा जा सकता था। पर भारतीय खिलाड़ी फिर भी अपने मोर्चे पर डटे हुए थे। इधर, भारतीय हॉकी टीम का कप्तान ध्यानचंद सारी परिस्थिति समझ रहा था। जानता था कि इसके बारे में किसी से कहने का कोई फायदा नहीं था। साथ ही, मैदान छोड़ कर जाना भी उचित नहीं था।... उसके सिर पर तो एक ही जुनून सवार था- भारत की जीत! अपनी टीम की जीत!
... मैदान में एक-एक करके पूरे आठ गोल कर भारत ने 8-1 के स्कोर से जर्मनी को बुरी तरह हरा दिया।
ऐसा क्या हुआ कि भारत हारते-हारते हुए मैच जीत गया? अन्य लोगों के जीवन से अनमोल प्रेरणाओं को संजोने के लिए और अपनी साधकता को हमेशा-हमेशा रोशन करने के लिए पढ़िए अक्टूबर'2016 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।