अरे होली है!
होली के दिन अगर कोई आपके ऊपर रंग डाले तो क्या बुरा मानने वाली बात है? बिल्कुल नहीं। अगर कोई पिचकारी से रंगों की बौछार करे, तो क्या बुरा मानने वाली बात है? बिल्कुल नहीं। अगर कोई खुशी में झूमे-नाचे, तो क्या बुरा मानने वाली बात है? बिल्कुल भी नहीं। तभी तो जब गुब्बारा पड़ता है, कपड़े भीगते हैं, अलग-अलग रंगों और डिज़ाइनों में चेहरे चमकते हैं- तो भी सब यही कहते हैं- 'भई बुरा न मानो, होली है!'
लेकिन यदि रंग की जगह लोग एसिड फेंकने लग जाएँ... खुशी में झूमने की जगह नशे में होशो-हवास खोकर अश्लील और भद्दे काम करने लग जाएँ... पर्व से जुड़ी प्रेरणाएँ संजोने की बजाए, हम अंधविश्वास और रूढ़िवादिता में फँस जाएँ- तब? तब फिर इस पर्व में भीगने की जगह पर्व से भागना ही बेहतर है। प्रस्तुत है इस पर्व की कुछ बिगड़ी हुई झलकियाँ, जिनके चलते यही कहना सही है- 'बुरा कैसे न माने? अरे, यह कैसी होली है!'
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होली से पहले होलिका दहन का प्रचलन है। यह परम्परा हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के अग्नि-दहन होने और भक्त प्रह्लाद की रक्षा से आरंभ हुई। दूसरे शब्दों में, यह बुराई के अंत और सच्चाई की जीत की द्योतक है। परन्तु अज्ञानतावश आज इस परम्परा के साथ लोगों ने अलग-अलग भ्रांतियाँ जोड़ दी हैं। जैसे- मथुरा, राजस्थान आदि क्षेत्रों में एक प्रथा है- होलिका दहन के समय, जब आग की लपटें थोड़ी कम हो जाती हैं, तब उसमें से गाँव के कुछ लोग नंगे पाँव चलकर जाते हैं। जो भी उस आग में से सुरक्षित बाहर आ जाता है, ऐसा माना जाता है कि उसे भगवान ने बचाया है। अतः गाँववाले उसे प्रह्लाद की संज्ञा दे देते हैं।
कैसी विडम्बना है- कहाँ तो हमें इतिहास के दृष्टांतों के पीछे मर्म को समझना था और कहाँ हमने इनके अर्थ का अनर्थ कर डाला...
कैसे हम इस पर्व की बिगड़ी हुई सूरत को फिर से खूबसूरत बनाएँ। पूर्णतः जानने के लिए पढ़िए मार्च'17 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।