जब विवेकानंद से मिले तिलक... | Akhand Gyan | Eternal Wisdom

जब विवेकानंद से मिले तिलक...

सन् १८९२ में अक्टूबर का महीना था।मुम्बई के विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन पर पुणे जाने वाली गाड़ी प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। तिलक आए, तो उन्हें डिब्बा एकदम खाली मिला। वे आराम से बैठ गए। सामान जमा लिया। डब्बे के द्वार पर कुछ लोग आ खड़े हुए थे। तिलक का ध्यान अनायास ही उस ओर चला गया। वे लोग डब्बे में प्रवेश कर रहे थे। सबसे पहले जो व्यक्ति भीतर आया, वह संन्यासी था- गेरुआधारी युवा संन्यासी ( स्वामी विवेकानंद)। उसकी अवस्था अभी तीस वर्षों की भी नहीं होगी। उसका व्यक्तित्व प्रभावशाली और कुछ विशिष्टता लिए हुए था। उसके साथ तीन व्यक्ति और थे। वे साधारण गुजराती व्यापारी जैसे लग रहे थे। संन्यासी ने तिलक की ओर ध्यान नहीं दिया था; किंतु उसके साथियों में से एक ने तिलक को देख लिया था।

'अरे आप!' उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तिलक ने पहचाना, वे मुंबई के प्रसिद्ध बैरिस्टर रामदास छबीलदास थे। उन्हें प्रणाम करते देख उनके साथियों का ध्यान भी तिलक की ओर गया। उन्होंने भी हाथ जोड़कर सम्मानपूर्वक प्रणाम किया।संन्यासी ने भी उनकी ओर देखा। बैरिस्टर रामदास ने परिचय कराने की शैली में कहा- 'स्वामी जी! आप हमारे प्रसिद्ध सामाजिक और राजनीतिक नेता- श्री बालगंगाधर तिलक हैं। आपने 'केसरी' और 'मराठा' समाचार पत्र देखे ही होंगे। ये ही उनके संपादक-संचालक हैं। राजनीति में काफी उग्रता और निर्भीकता से अंग्रेजों का विरोध करते हैं।
स्वामी ने देखाः पैंतीस एक वर्ष के युवा तिलक अपनी मूँछों में काफी भव्य लग रहे थे। उनके चेहरे पर जो तेज था, वह उनकी ऊर्जा का परिचायक था। स्वामी ने हाथ उठाकर अभिवादन किया, 'नमोनारायणः'।
'और ये हमारे स्वामी जी (विवेकानंद) हैं।' बैरिस्टर रामदास ने कहा, 'बहुत ही विद्वान व्यक्ति हैं। सिद्ध कोटि के तपस्वी हैं। आपको इनसे बात करना अच्छा लगेगा।'

'आप दोनों की यात्रा अच्छी कटेगी।' गाड़ी चलने का संकेत मिलते ही वे तीनों गुजराती सज्जन विदा हो गए।

तिलक अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाए। बोले- 'स्वामी जी! पुणे में कहाँ ठहरेंगे?

'जहाँ ईश्वर ठहराएँगे, वहीं ठहर जाऊँगा।'

'वहाँ ईश्वर का कोई घर नहीं है।'

'सारे घर ईश्वर के ही हैं, लोग उन्हें अपना माने बैठे हैं।' स्वामी जी मुस्कुराए।
तिलक ने पहली बार ध्यान दिया कि संन्यासी की आँखें बहुत गहरी और आकर्षक हैं।
'आपने गीता तो पढ़ी होगी?' तिलक ने पूछा, 'या उस सम्प्रदाय के हैं, जिसमें लिखना-पढ़ना निषिद्ध है?' 
'पढ़ी तो है, चाहे उतनी समझी न हो, जितनी आपने समझी है।'

तिलक उनकी ओर देखते रहे- 'यह शालीनता थी अथवा संन्यासी कटाक्ष कर रहा था?'
अंततः तिलक बोले- 'एक बात मेरी समझ में नहीं आई।... भीप्म से झगड़ कर कर्ण ने शपथ ली थी कि जब तक पितामह जीवित हैं, वह युद्ध में सम्मिलित नहीं होगा। किंतु जब दुर्योधन अपने गुरु द्रोण के समक्ष युद्ध क्षेत्र में उपस्थित अपने योद्धाओं के नाम गिना रहा है ( अध्याय १),उसमें कर्ण का नाम भी है।' तिलक बोले- 'तो क्या कर्ण ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ी?'

क्या था स्वामी जी का उत्तर? सवालों की सूची यहीं थम गई या और आगे बढ़ी? कैसा रहा इन महान विभूतियों का ट्रेन सफर?

जानने के लिए पढ़िए मई'17 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।

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