जब दीपक की लौ बुझने वाली होती है, उस पल उसे देखिए। उस ज्योति में सबसे तीव्र चमक होती है। रात का अंतिम प्रहर सबसे ज़्यादा काला होता है। मृत्यु शैय्या पर आँख मूँदने वाले की साँसों पर गौर कीजिए। धौंकनी जैसी तेज़ चलती हैं उसकी साँसें और धड़कनें! अंतकाल ऐसा ही हुआ करता है! सघन! तीव्र! चरम लक्षणों वाला!
ठीक ऐसे ही लक्षण यह वर्तमान युग दर्शा रहा है। कलिकाल अपनी चरम कालिमा में दिखता है। पाप और अज्ञानता की सघनता का ओर-छोर पाना मुश्किल है। पतन की हर सीमा जैसे लाँघी जा चुकी है। क्या ये प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं कि कलिकाल अपनी आखिरी साँसें भर रहा है? उसका अंत सन्निकट है? उसके संहार का मंच सज चुका है? नए युग अथवा नवयुग की पदचाप हर दिशा से सुनाई देने लगी है। प्रकृति स्वागत की तैयारी में है। महाभारत के हरिवंश पर्व का कथन है-
परस्पर हृतश्वाश्च निराकंद्य सदुःखिता।
एवं कष्ट मनुप्राप्तः कलि संध्यांशके तदा।।
प्रजाक्षयं प्रयस्येति साध्यं कलियुगे न हि।
क्षीणो कलियुगे तस्मिन्ततः कृतयुगं पुनः।।
अर्थात् कलि के समाप्त होने के समय पर, उसके संध्यांश के समय बड़ी भयावह परिस्थितियाँ बन जाती हैं। प्रजा में विस्फोटक हालात पैदा हो जाते हैं। युद्ध का दानव विकराल रूप धारण कर लेता है। जिससे जनमानस का क्षय होने लगता है। पाप और अशांति की जैसे पराकाष्ठा हो जाती है। ऐसा होने पर समझना चाहिए कि कलियुग दम तोड़ने ही वाला है। सुन्दर व स्वस्थ समाज कृतयुग (नवयुग) में पुनः प्रकट होगा।
ये सारे बड़बोल या बातों के पुलिंदे नहीं हैं। ऐसा नहीं कि हम आपको सब्ज़बाग दिखा रहे हैं। दुनिया भर के शास्त्रों, विद्वानों, शोधकर्ताओं और भविष्य-वक्ताओं ने यही अद्भुत तथ्य उजागर किया है। उनके साथ बड़ी भव्य और क्रांतिकारी उद्घोषणाएँ हो चुकी हैं। कैसी-कैसी?
यह संधिकाल की बेला है! नवयुग आने वाला है!
महाभारत का यह श्लोक गुनिए-
यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्य बृहस्पति।
एक राशौ समेष्यन्ति प्रपत्स्याति तदा कृतम।।
अर्थात जब तिष्य में चन्द्र, सूर्य और बृहस्पति एक राशि पर समान अंशों में आ जाएँगे, तब सतयुग का शुभारंभ होगा। प्रकृति संतुलित हो जाएगी। सभी स्वस्थ और सुन्दर होंगे।...
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