मेरा सुरक्षा कवच- गुरु स्वरूप! | Akhand Gyan | Eternal Wisdom

मेरा सुरक्षा कवच- गुरु स्वरूप!

मैं गाँव के रास्ते से गुज़र रहा था। एक आदमी ने मुझे रोका और कहने लगा- 'प्रणाम महात्मन! क्षमा कीजिए मैंने आपको रास्ते में रोक दिया। पर दरअसल मैं स्वयं ही अपने आपको रोक नहीं पाया। मैंने अक्सर आपको यहाँ से गुज़रते हुए देखा है। आपके चेहरे का आलौकिक तेज, आपकी दिव्य आभा मेरे अंदर आपके प्रति एक आकर्षक खिंचाव पैदा करती है। मैंने अपने जीवन में अनेक संतों-महात्माओं को देखा और जाना है। पर जो पवित्रता आपके चेहरे में दिखती है, वह अनूठी है। आपको देखकर लगता है, मानो कोई सिद्ध पुरुष उजला चोला पहनकर काजल की कोठरी से बेदाग निकल आया हो। अपने सही अर्थों में अपने नाम को सार्थक किया है, कुलदानंद ब्रह्मचारी जी।'

 को सुनकर मैंने विनीत भावों से मस्तक झुका दिया। बिना कुछ कहे मैं मौन ही आगे बढ़ चला। मार्ग पार कर अपने कक्ष में पहुंचा। अब मेरे नेत्रों ने उस अभेद्द कवच का दर्शन किया, जिसने उस व्यक्ति के कहे हर शब्द को साकार किया और आज भी उस सत्य की रक्षा कर रहा है। वह अभेद्द कवच- मेरे गुरुदेव विजयकृष्ण जी का स्वरूप। अभी-अभी मिले वे सारे प्रशंसा के फूल मैंने गुरु-स्वरूप को समर्पित कर दिए।

इस घटना ने मेरे स्मृति पटल पर जीवन के कुछ पुराने अध्याय खोल दिए। मुझे याद आ गया वह दौर, जब मेरी साधकता घोर संघर्ष से गुज़र रही थी। मन के भीतर विकारों और वासनाओं का तीखा कोलाहल था। उन दिनों मैं स्वयं को जबरन ध्यान-साधना में भी बिठाया करता। तब भी, न तो प्रभु का चिंतन होता, न गुरु के प्रति भाव उमड़ते। न ही सुमिरन का कुछ भान रहता!... अगरकुछ घटता, तो वह था मुझ पर काम-वासनाओं का प्रहार! मैं अपने मैं की उस स्थिति को समझ नहीं पा रहा था। चाह कर भी उस दूषित अवस्था से मुक्त नहीं हो पा रहा था। मन की उस दुर्बलता को किसी के समक्ष प्रकट करने का साहस भी नहीं जुटा पाया था। रह-रह कर यहीं विचार उठते... अगर किसी को अपनी इस स्थिति के बारे में बता दिया, तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगा... नहीं! नहीं...।

... मैं बदहवास हुआ दौड़ पड़ा.... कहाँ?

... किस आलौकिक सुरक्षा कवच ने कुलदानंद की रक्षा की? जानने के लिए पूर्णतः पढ़िए जुलाई'१८ माह की हिंदी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।

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