क्या करूँ, क्या न करूँ? | Akhand Gyan | Eternal Wisdom

क्या करूँ, क्या न करूँ?

हर मनुष्य के जीवन में कभी ऐसी परिस्थिति आती है, जब वह दुविधा में होता है- 'यह कार्य करूँ या न करूँ? अपने साहित्य में ऐसी ही दुविधापूर्ण परिस्थिति का वर्णन शेक्सपीयर करते हैं- 'What to दो, What not to do?' इस स्थिति का वर्णन श्री कृष्ण द्वारा गीता के सोहलवें अध्याय में भी किया गया- 'कार्याकार्यव्यवस्थितौ'- कर्तव्य और अकर्तव्य के बीच क्या निर्णय करें? अलग-अलग साहित्यों में, ग्रंथों में और जीवन के विभिन्न प्रसंगों में इस असमंजस की चर्चा होती रही है। विद्वानों और दार्शनिकों ने इसका समाधान बताते हुए कई सिद्धांत दिए हैं। अब हम यदि इस दुविधापूर्ण स्थिति की चर्चा मैनेजमेंट क्षेत्र से जोड़कर करें, तो यहाँ भी कई दिग्गजों ने इसका समाधान देने का प्रयास किया है. इसमें पहला सिद्धांत है-

Utilitarianism Theory

(उपयोगिता सिद्धांत)

यह सिद्धांत जेरेमी नामक दार्शनिक द्वारा दिया गया है। यह सिद्धांत नैतिक और अनैतिक कार्य के बीच चुनाव करने में सहायक होता है. इसमें प्रमुख है, कर्म उपयोगिता (Act Utilitarianism) का सिद्धांत। यह सिद्धांत कहता है कि यदि आप किन्हीं दो कार्यों के बीच असमंजस में फँस जाए, तो उस कार्य का चुनाव करना चाहिए जिसके परिणामस्वरूप अधिकतम लोगों को फायदा अथवा सुख की प्राप्ति हो और कम से कम लोगों को फायदा अथवा दुःख की प्राप्ति हो।

परन्तु क्या यह सिद्धांत हर परिस्थिति में लागू किया जा सकता है? इस सिद्धांत के कुछ अपवाद स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। आइए, एक अपवाद को हम उदाहरण के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। चीन के एक कारखाने में 25 बाल मज़दूरों द्वारा जींस बनवाई जाती है। यह जींस इंग्लैंड में स्थित एक कंपनी क लिए बनवाई जा रही है। इससे कंपनी के हज़ारों शेयर धारकों को अत्यंत फायदा पहुँचता है। यदि हम इस परिस्थिति को ध्यान से देखें, तो यह नैतिक रूप से सही नहीं है। कारण- बल मज़दूरी करवाना कहीं भी नैतिक नहीं माना जा सकता है। भले ही इससे हज़ारों लोगों को फायदा ही क्यों न हो रहा हो! उपयोगिता सिद्धांत के अनुसार यह सही है, परंतु नैतिक रूप से यह सही नहीं है। इससे यह स्थापित होता है कि द्वन्द की स्थिति में हम इस सिद्धांत को सार्वभौमिक रूप से लागू नहीं कर सकते।

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